★★★ अपने अंतर्तम के केंद्र को पहचानो ★★★
कभी आंख बंद करके बैठें और खयाल करें कि मेरे शरीर का केंद्र कहां है ? आप इतने दिन जी लिए हैं, लेकिन आपने अपने शरीर का केंद्र कभी खोजा नहीं होगा। और यह बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हमें अपने शरीर के केंद्र का भी पता न हो।
अधिक लोगों को यह कील खोपड़ी में मालूम पड़ेगी। क्योंकि वहीं चलता रहता है कारोबार चौबीस घंटे। दुकान वहां खुली रहती है। बाजार वहां भरा रहता है। अधिक लोगों को ऐसा लगेगा कि कहीं खोपड़ी में ही।लेकिन खोपड़ी बहुत बाद में विकसित होती है।
मां के पेट में जिस दिन बच्चे का निर्माण होता है, उस दिन मस्तिष्क नहीं होता। फिर भी जीवन होता है। इसलिए जो बाद में आता है, वह केंद्र नहीं हो सकता।कुछ लोगों को, जो भावपूर्ण हैं -
स्त्रियां हैं, कवि हैं, चित्रकार हैं, मूर्तिकार हैं -- उनको लगेगा कि हृदय केंद्र है। क्योंकि उन्होंने जब भी कुछ जाना है, सौंदर्य, प्रेम, तो उन्हें हृदय पर ही उसका आघात लगा है। तो जिन लोगों का भावना से भरा हुआ चित्त है, वे हृदय को केंद्र बताएंगे।
लेकिन हृदय भी जन्म के साथ नहीं धड़कता। बच्चा जब पैदा हो जाता है, तब पहली श्वास लेता है और हृदय की धड़कन होती है। नौ महीने तो हृदय धड़कता ही नहीं। मां के हृदय की धड़कन को ही बच्चा सुनता रहता है, अपना उसके पास कोई हृदय नहीं होता।
इसलिए लाओत्से कहता है: नाभि केंद्र है, नतो हृदय और न मस्तिष्क। नाभि से ही बच्चा मां से जुड़ा होता है। इसलिए जीवन की पहली झलक नाभि है। और वह ठीक है। वह वैज्ञानिक रूप से ठीक है। तो अपने भीतर खोजें।
लाओत्से कहता है, साधना की पहली बात यह हैकि खोजते-खोजते नाभि के पास अपने केंद्र को ले आएं। जिस दिन आपका असली केंद्र और आपकी धारणा का केंद्र एक हो जाएगा, उसी दिन आप इंटिग्रेटेड हो जाएंगे।
जिस दिन फोकस मिल जाएगा, आपके चित्त का केंद्र, सोचने का केंद्र और आपका असली केंद्र जिसदिन करीब आकर मिल जाएंगे, उसी दिन आप पाएंगे कि आपकी जिंदगी बदल गई।
आप दूसरे आदमी हो गए। ए न्यू ग्रेविटेशन, एक नई कशिश आपकी दुनिया में आ जाएगी।..यह जो नाभि का केंद्र है, जिस दिन ठीक - ठीक पता चल जाए, उसी दिन आप मृत्यु और जन्म के बाहर हो जाते हैं। क्योंकि जन्म के पहले यह नाभि का केंद्र आता है; और मृत्यु के बाद यही बचता है,
बाकी सब खो जाता है। तो जो व्यक्ति भी इस केंद्र को जान लेता है, वह जान लेता है, न तो मेरा जन्म है और न मेरी मृत्यु है। वह अजन्मा और अमृत हो जाता है।
~ ओशो ~
(ताओ उपनिषद, भाग #2, प्रवचन #29)