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Saturday, 19 March 2016

इधर मेरे अनुभव में रोज यह बात आती है। पश्चिम का मनोविज्ञान अहंकार पर जोर देता है। वह कहता है, स्वस्थ आदमी को सघनीभूत अहंकार चाहिए।

इधर मेरे अनुभव में रोज यह बात आती है। पश्चिम का मनोविज्ञान अहंकार पर जोर देता है। वह कहता है, स्वस्थ आदमी को सघनीभूत अहंकार चाहिए।

और पूरब का धर्म जोर देता है कि परम स्वास्थ्य के लिए निरअंहकारिता चाहिए। ये विपरीत मालूम पड़ते हैं, ये विपरीत नहीं हैं। और मेरे अनुभव में बड़ी अनूठी बात आती है।

पूरब के आदमी मेरे पास आते हैं, पश्चिम सेआदमी मेरे पास आते हैं। जब कोई भारतीय आता है, तो वह पैर ऐसे ही छू लेता है। उसमें कोई विनम्रता नहीं होती, आदतवश छू लेता है। और उसके चेहरे पर कुछ नहीं दिखाई पड़ता।

छू रहा है, सदा से छूता रहा है, एक औपचारिक नियम है, एक कर्तव्य है। छूने में कोई भाव नहीं है, कोई श्रद्धा नहीं है, न कोई निरअंहकारिता है।पश्चिम का आदमी आता है, छूने में बड़ी कठिनाई पाता है, पैर छूना उसे बड़ा मुश्किल मालूम पड़ता है।

वह उसकी शिक्षा का अंग नहीं है। उसे बड़ी कठिनाई होती है। ध्यान करता है, सोचता है, विचार करता है, अनुभव करता है, तब किसी दिन पैर छूने आता है।

लेकिन तब पैर छूने में अर्थ होता है।पूरब का आदमी पैर छू लेता है सरलता से, लेकिन उस सरलता में गहराई नहीं है, उथलापन है। पश्चिम के आदमी के लिए बड़ा कठिन है पैर छूना, लेकिन जब छूता है, तो उसमें अर्थ है। क्या कारण है?पश्चिम में विनम्रता सिखाई नहीं जाती, स्वस्थ अहंकार सिखाया जाता है।

और मेरी अपनी धारणा है कि दोनों सही हैं। पहले कदम पर स्वस्थ अहंकार सिखाया जाना चाहिए,ताकि दूसरे कदम पर विनम्रता की शिक्षा संभव हो सके। पश्चिम यात्रा की शुरुआत करता है और पूरब में यात्रा का अंत है।और यही सब चीजों के संबंध में सही है।

पहले विज्ञान सिखाया जाना चाहिए, क्योंकि वह यात्रा का प्रारंभ है। फिर धर्म, क्योंकि वह यात्रा का अंत है। पहले विचार करना सिखाया जाना चाहिए, प्रशिक्षण विचार का। फिर ध्यान। क्योंकिवह निर्विचार है। वह अंतिम बात है।

पश्चिम में जो हो रहा है, वह प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के प्राथमिक चरण में होना ही चाहिए। और जो पूरब की आकांक्षा है, वह प्रत्येक व्यक्ति के अंतिम चरण में होना चाहिए।

पैंतीस वर्ष काजीवन पश्चिम जैसा और पैंतीस वर्ष का आखिरी जीवन पूरब जैसा, तो तुम्हारे भीतर सम्यक संयोग फलित होगा।

गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–195
ओशो

उपनिषद का अर्थ होता है, द सीक्रेट डाक्ट्रिन।उपनिषद का अर्थ होता है, गुह्य रहस्य। उपनिषद शब्दका अर्थ होता है, जिसे गुरु के पास चरणों में बैठकरसुना। और निर्वाण उपनिषद का नाम सून करतोमानों मन गद्द

उपनिषद का अर्थ होता है, द सीक्रेट डाक्ट्रिन।उपनिषद का अर्थ होता है, गुह्य रहस्य। उपनिषद शब्दका अर्थ होता है, जिसे गुरु के पास चरणों में बैठकरसुना। और निर्वाण उपनिषद का नाम सून करतोमानों मन गद्द-गद्द हो उठता है।

एक मिश्री कीमिठास तन-मन को घेर लेती है।सारे उपनिषद मूलत: किसी भी धर्म की शिक्षानहीं देते। ये इतने शुद्धतम व्यिक्तत्व है, कि इनके आगेकुछ कहने की जरूरत ही नहीं होती। एक-एक उपनिषदअपने में पूर्णता को समाएँ हुए हे।

उपनिषदों के सूत्र—कोई ऐसे नहीं है कि उन सून हो और पूर्ण हो जाओ। येतुम्हेह जागरूक करने के, साधना करने के,आप अंदरअमृत्व भरने के लिए उत्साओहित करते है। इस लिए एकबात कितनी अजीब है किसी भी उपनिषद केरचयिता का कोई पता नहीं है।

क्यों कि जो इतनेउचे शब्द जमीन पर उतार रहे है उनमें मैं का भाव है हीनहीं। न जाने कितने-कितने ऋषियों ने इन उपनिषदोंकी रचना में सहयोग किया होगा। लेकिन फिर भीइनका को रचयिता घोषित नहीं है। इस परम्पैरा मेंनिर्वाण उपनिषद भी है। इस में भी ऋषि किसी सूत्रमें अपना नाम घोषित नहीं करता।

इसलिए उपनिषदों पर बोले ओशो के अमृत वचन सुननेका अपना ही आनंद है। वह बातों-बातों में न जानेकितने गुह्म रहस्योंा में ले जाते है…….

आगे एक सूत्रआता है, बहुत ही क्रांतिकारी है—टू मच रेवत्थूशनरि।शायद यही कारण है कि निर्वाण उपनिषद परटीकाएं नहीं हो सकीं। यह निग्लेक्टेड उपनिषदों मेंसे एक है, उपेक्षित। जब पहली दफा मैंने तय कियाकि इस शिविर में इस पर बात करनी है, तो

अनेकलोगों ने मुझे पूछा कि ऐसा भी कोई उपनिषद है —निर्वाण उपनिषद? कठोपनिषद है, छांदोग्य है,मांडूक्य है—यह निर्वाण क्या है? यत्न बहुत हीखतरनाक है।

‘’बहुत अद्भुत है निर्वाण उपनिषाद। इस पर हम यात्राशुरू करते है और यह यात्रा दोहरी होगी।एक तरफ मैंआपको उपनिषद समझता चलूंगा। और दूसरी औरआपको उपनिषद चलूंगा। क्यों कि समझाने से कभीकुछ समझ में नहीं आता हे। करेंगे तभी समझ में आएगा।इस जीवन में जो भी महत्वकपूर्ण है, उसकास्वाहदचाहिए। अर्थ नहीं। उसकी व्यााख्यात नहीं,उसकीप्रतीति चाहिए। आग क्याव है, इतने से काफी नहींहोगा। आग जलानी पड़ेगी। उस आग में जलनापड़ेगाऔर बुझना पड़ेगा। तब प्रतीति होगी निर्वाणक्यास है।

‘’ओशो’निर्वाण उपनिषद तो समाप्त हो जाता है, लेकिननिर्वाण-निर्वाणउपनिषाद के समाप्तय होने सेनहीं मिलता। निर्वाण उपनिषद जहां समाप्ताहोता है, वहां से निर्वाण की यात्रा शुरू होती हे।इस आशा के साथ अपनी बात पूरी करता हूं कि आपनिर्वाण की यात्रा पर चलेंगे, बढ़ेंगे। और यह भरोसारखकर मैंने ये बातें कहीं है कि आप सुनने को, समझनेको तैयार होकर आए थे।

मैंने जैसा कहा है और जो कहा है, उसमें अगर रत्तीाभरभी आपकी तरफ से जोड़ने का ख्याेल आए, तो स्मैरणरखना कि वह अन्यातय होगा—मेरे साथ ही नहीं,जिसने निर्वाण उपनिषद कहा है, उस ऋषि केसाथभी।आपके ध्याान करने की चेष्टाभ ने मुझे भरोसादिलाया है कि जिनसे मैने बात कहीं है, वे कहनेयोग्य थे।निर्वाण उपनिषद समाप्त !निर्वाण की यात्रा प्रारंभ !

’’ओशोनिर्वाण उपनिषद

कुछ युवा एक रात्रि एक वेश्या को साथ लेकर सागर तट पर आये। उस वेश्या के वस छीनकर उसे नंगा कर दिया और शराब पीकर वे नाचने-गाने लगे।

कुछ युवा एक रात्रि एक वेश्या को साथ लेकर सागर तट पर आये। उस वेश्या के वस छीनकर उसे नंगा कर दिया और शराब पीकर वे नाचने-गाने लगे।

उन्हें शराब के नशे में डूबा देखकर वह वेश्या भाग निकली। रात जब उन युवकों को होश आया, तो वे उसे खोजने निकले।

वेश्या तो उन्हें नहीं मिली, लेकिन एक झाड़ी के नीचे बुद्धबैठे हुए उन्हें मिले। वे उनसे पूछने लगे ‘‘महाशय, यहां से एक नंगी स्त्री को, एक वेश्या को भागते तो नहीं देखा? रास्ता तो यही है। यहीं से ही गुजरी होगी।

आप यहां कब से बैठे हुए हैं?”बुद्ध ने कहा, ‘‘यहां से कोई गुजरा जरूर है, लेकिन वह स्त्री थी या पुरुष, यह मुझे पता नहीं है। जब मेरे भीतर का पुरुष जागा हुआ था, तब मुझे स्त्री दिखायी पड़ती थी। न भी देखूं तो भी दिखायी पड़ती थी। बचना भी चाहूं तो भी दिखायी पड़ती थी।

आंखें किसी भी जगह और कहीं भी कर लूं तो भी ये आंखें स्त्री को ही देखती थीं। लेकिन जब से मेरे भीतर का पुरुष विदा हो गया है, तबसे बहुत खयाल करूं तो ही पता चलता है कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष है। वह कौन था,जो यहां से गुजरा है, यह कहना मुश्किल है।

तुम पहले क्यों नहीं आये? पहले कह गये होते कि यहां से कोई निकले तो ध्यान रखना, तो मैं ध्यान रख सकता था।और यह बताना तो और भी मुश्किल है कि जो निकला है, वह नंगा था या वस्त्र पहने हुए था।

क्योंकि, जब तक अपने नंगेपन को छिपाने की इच्छा थी, तब तक दूसरे के नंगेपन को देखने की भी बड़ी इच्छा थी। लेकिन, अब कुछ देखने की इच्छा नहीं रह गयी है।
इसलिए, खयाल में नहीं आता कि कौन क्या पहने हुए है….।

” दूसरे में हमें वही दिखायी देता है, जो हममें होताहै। दूसरे में हमें वही दिखायी देता है,जो हममें है। और दूसरा आदमी एक दर्पण की तरह काम करता है, उसमें हम ही दिखायी पड़ते हैं।बुद्ध कहने लगे, ” अब तो मुझे याद नहीं आता, क्योंकि किसी को नंगा देखने की कोईकामना नहीं है। मुझे पता नहीं कि वह कपड़े पहने थी या नहीं पहने थी।

” वे युवक कहने लगे, ‘‘हम उसे लाये थे अपने आनंद के लिए। लेकिन, वह अचानक भाग गयी है। हम उसे खोज रहे हैं।

”बुद्ध ने कहा, ‘‘तुम जाओ और उसे खोजो। भगवान करे, किसी दिन तुम्हें यह खयाल आ जाये, कि इतनी खूबसूरत और शांत रात में अगर तुम किसी और को न खोज कर अपने को खोजते, तो तुम्हें वास्तविक आनंद का पता चलता।

लेकिन, तुम जाओ और खोजो दूसरों को। मैंने भी बहुत दिन तक दूसरों को खोजा, लेकिन दूसरों को खोजकर मैंने कुछ भी नहीं पाया।

और जब से अपने को खोजा, तब से वह सब पा लिया है, जिसे पाकर कोई भी कामना पाने की शेष नहीं रहती।

संभोग से समाधि की ओर–49

ओशो

★★भाई-बहन या निकट सम्बन्धियों में विवाह..★★★★★★ ..न करने का वैज्ञानिक कारण ★★★★ मां - बेटे का संबंध या बेटी और बाप का संबंध अवैज्ञानिक है।

★★भाई-बहन या निकट सम्बन्धियों में विवाह..★★★★★★ ..न करने का वैज्ञानिक कारण ★★★★

मां - बेटे का संबंध या बेटी और बाप का संबंध अवैज्ञानिक है।

उससे जो बच्चे पैदा होंगे वे अपंग होंगे, लंगड़े - लूले होंगे, बुद्धिहीन होंगे। इसका कोई धर्म से संबंध नहीं है।

यह सत्य दुनिया के लोगों को बहुत पहले पता चल चुका है। सदियों से पता रहा है। विज्ञान तो अब इसका वैज्ञानिक रूप दे रहा है।

भाई बहन का संबंध भी अवैज्ञानिक है। इसका कोई नैतिकता से संबंध नहीं है। सीधी सी बात इतनी है कि भाई और बहन दोनों के वीर्य कण इतने समान होते हैं कि उनमें तनाव नहीं होता। उनमें खिंचाव नहीं होता।

इसलिए उनसे जो व्यक्ति पैदा होगा, वह फुफ्फुस होगा; उसमें ऊर्जा नहीं होगी। जितने दूर का नाता होगा, उतना ही बच्चा सुंदर होगा, स्वस्थ होगा, बलशाली होगा, मेधावी होगा।

इसलिए फिक्र की जाती रही कि भाई बहन का विवाह न हो। दूर संबंध खोजें जाते है। जिलों गोत्र का भी नाता न हो, तीन-चार पाँच पीढ़ियों का भी नाता न हो।

क्योंकि जितने दूर का नाता हो, उतनाही बच्चे के भीतर मां और पिता के जो वीर्याणु और अंडे का मिलन होगा, उसमें दूरी होगी तो उस दूरी के कारण ही व्यक्तित्व में गरिमा होती है।

~ ओशो ~
(रहिमन धागा प्रेम का, प्रवचन #5)

◆◆ सृजनात्मक है स्त्री, भ्रम पाले बैठा है पुरूष ◆◆◆ स्त्री को वह शक्तियां मिली हुई हैं, जोउसे अपने काम को -- और स्त्री का बड़े से बड़ा काम उसका माँ होना है। उससे बड़ा काम संभव नहीं है। और शायद माँ होने से बडी कोई

◆◆ सृजनात्मक है स्त्री, भ्रम पाले बैठा है पुरूष ◆◆◆
स्त्री को वह शक्तियां मिली हुई हैं, जोउसे अपने काम को -- और स्त्री का बड़े से बड़ा काम उसका माँ होना है।

उससे बड़ा काम संभव नहीं है। और शायद माँ होने से बडी कोई संभावना पुरुष के लिए तो है ही नहीं, स्त्री के लिए भी नहीं है।

कभी आपने नहीं सोचा होगा, इतने मूर्तिकार हुए, इतने चित्रकार, इतने कवि, इतने आर्किटेक्ट, लेकिन स्त्री कोई एक बड़ी चित्रकार नहीं हुई! कोई एक स्त्री बडी आर्किटेक्ट, वास्तुकला मेंअग्रणी नहीं हुई! सृजन का सारा काम पुरुष ने किया है।

और कई बार पुरुष को ऐसा खयाल आता है कि सृजनात्मक शक्ति हमारे पास है। स्त्री के पास कोई सृजनात्मक शक्ति नहीं है।

लेकिन बात उलटी है। स्त्री पुरुष को पैदा करने में इतना बड़ा श्रम कर लेती है कि और कोई सृजन करने कि जरूरत नहीं रह जाती।

स्त्री के पास अपना एक सृजनात्मक कृत्य है, जो इतना बड़ा कि न, पत्थर की मूर्ति बनाना और एक जीवित व्यक्ति को बड़ा करना..... लेकिन स्त्री के काम को हमने सहज स्वीकार कर लिया है।

और इसीलिए स्त्री की सारी सृजनात्मक शक्ति उसके माँ बनने में लग जाती है। उसके पास और कोई सृजन की न सुविधा बचती है, न शक्ति बचती है।

~ ओशो ~
(सम्भोग से समाधि की ओर, प्रवचन #14)

सुख का अर्थ है, भीतर से संबंध जुड गया:ओशो--------------------------------------------------------------

सुख का अर्थ है, भीतर से संबंध जुड गया:ओशो--------------------------------------------------------------

भीतर से जब भी कोई जुड जाता है, सुख मिलता है ।और भीतर से जब भी संबंध छूट जाता है, दुख मिलता है ।

जहां -जंहा सुख मिलता हो वहां -वहां आंख बंद करके गौर से देखो ----भीतर से आ रहा या बाहर से ? तुम सदा पाओगे, भीतर से आ रहा है ।

और जंहा -जंहा जीवन में दुख मिलता हो, वहां भी गौर से देखना; तुम सदा पाओगे, दुख का इतना ही अर्थ होता है, भीतर से संबंध छूट गया ।

जिस घडी में भी तुम अपने से जुड जाते हो,सुख बरस जाता है । जिस घडी में भी तुम अपने से टुट जाते हो , दुःख बरस जाता है ।

किसी ने गाली देदी, दुःख मिलता है । लेकिनतुम समझना, गाली तुम्हें उत्तेजित कर देती है ।तुम भूल जाते हो अपने को । तुम्हारा भीतर से संबंध छूट जाता है । एक क्षण में तुम्हारे बावले हो जाते हो ।

उद्विग्न, विक्षिप्त । टूटे गया संबंध भीतर से ।मित्र आ गया बहुत दिन का बिछुड़ा, वर्षों की याद । हाथ में हाथ ले लिया, गले से गले लगा गए ।एक क्षण को भीतर से संबंध जुड गया।इस मधुर क्षण में, मित्र की मौजूदगी में तुम अपने से जुड गए ।

एक क्षण को भूल गईं चिंताएं, दिन के बोझ खो गए । एक क्षण को अपने में डूब गए । यह मित्र केवल निमित्त है ।

इस सत्य को धीरे-धीरे पहचानने लगता है जबकोई ,तो धीरे-धीरे निमित्त को त्यागने लगता है । फिर बैठ जाता है अकेला । इसी का नाम ध्यान है ।