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Sunday, 13 March 2016

ओशो ध्यान योग "दृष्टा साक्षी नहीं है।" द्रष्टा और दृश्य साक्षी के दो पहलू हैं।

"दृष्टा साक्षी नहीं है।"
द्रष्टा और दृश्य साक्षी के दो पहलू हैं।
जब वे एक-दूसरे में तिरोहित हो जाते हैं जब वे एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं, जब वे एक हो जाते हैं, तो पहली बार साक्षी का उसकी समग्रता में प्रादुर्भाव होता है।
परंतु एक प्रश्न कई लोगों को उठता है।
इसका कारण है कि वे साक्षी को ही द्रष्टा समझते हैं।
उनके मन में द्रष्टा और साक्षी पर्याय हैं।
यह भ्रांतिपूर्ण है, द्रष्टा साक्षी नहींहै, बल्कि उसका केवल एक अंश है। और जब भीअंश स्वयं को पूर्ण मानता है, गलती शुरूहो जाती है।द्रष्टा का अर्थ है चेतनागत, और दृष्य का अर्थ है पदार्थगत, विषयगत।
द्रष्टा का अर्थ है :जो दृश्य के बाहर हो, और द्रष्टा का अर्थ है जो भीतर है।
भीतर और बाहर को विभाजित नहीं किया जा सकता, वे युगपत हैं, और युगपत ही हो सकते हैं।
जब इस युगपत्य का, या कहा जाये अद्वैत का अनुभव हो जाता है तो साक्षी का प्रादुर्भाव होता है।
साक्षी को तुम साध नहीं सकते। यदि तुम साक्षी को साधो, तो बस द्रष्टा को ही साध पाओगे, और द्रष्टा साक्षी नहीं है।फिर क्या करना है? पिघलना है, विलीन होना है।
जब एक गुलाब के फूल को देखो, तोबिल्कुल भूल जाओ कि एक विषय है जो देखा गया और एक चेतना है जो देखनेवाली है।
उस क्षण के सौंदर्य को, उस क्षण की धन्यता को तुम दोनों को अभिभूत कर लेनेदो, ताकि तुम और गुलाब भिन्न न रहो, बल्कि एक लय, एक गीत, एक मस्ती बन जाओ।प्रेम करते हुए, संगीत सुनते हुए, सूर्यास्त को देखते हुए, इसे बार- बार होने दो।
यह जितना हो उतना ही अच्छा, क्योंकि यह कोई कला नहीं बल्कि एक कौशलहै, एक गुर है।
तुम्हें इसका सूत्र - संकेत ग्रहण कर लेना है, एक बार तुम इसे पा लो तो इसे कहीं भी, कभी भी शुरू कर सकते हो।
जब साक्षी का प्रादुर्भाव होता है, तो नतो कोई देखने वाला बचता है, न देखा जाने वाला।
साक्षी एक निर्मल दर्पण है, जो कुछ भी प्रतिबिंबित नहीं करता।
यह कहना भी उचित नहीं है कि वह एक दर्पण है,यह कहना बेहतर होगा कि वह एक दर्पणत्व है।
वह तो पिघलने और विलीन होने की एक गत्यात्मक प्रक्रिया है, वह कोई जड़ घटना नहीं, एक प्रवाह है! तुम गुलाब तक पहुंच रहे हो, गुलाब तुममें पहुंच रहा है :यह अंतरात्मा का एक आदान-प्रदान है।
यह धारणा भूल जाओ कि साक्षी द्रष्टा है,वह द्रष्टा नहीं है।
द्रष्टा को साधा जा सकता है, साक्षी सहज घटना है। द्रष्टा तो एक प्रकार की एकाग्रता है, द्रष्टा तुम्हें अलग रखे रहता है।
द्रष्टा तो तुम्हारे अहंकार में अभिवृद्धि करेगा, उसे सशक्त करेगा।
जितने तुम द्रष्टा होते चले जाओगे उतना तुम्हें लगेगा जैसे एक द्वीप हो गए —विभाजित, एकाकी, सुदूर।युगों से, संसार भर के साधक द्रष्टा को साधते रहे हैं। वे भले ही इसे साक्षी कहते रहे हों, पर यह साक्षी नहीं है। साक्षी तो बिलकुल भिन्न है, गुणात्मक रूप से भिन्न है। द्रष्टा को साधा जा सकता है, प्रयासपूर्वक विकसित किया जा सकता है, उसे साधकर तुम बेहतर द्रष्टा बन सकते हो।वैज्ञानिक अवलोकन करता है, संत साक्षी रहता है। विज्ञान की पूरी प्रक्रिया ही अवलोकन की है : इतने तत्पर, सूक्ष्म और तीक्ष्ण ढंग से देखना होता है कि कुछ भी चूक न जाए। लेकिन वैज्ञानिक परमात्मा को नहीं जान पाता। यद्यपि उसका अवलोकन बहुत ही कुशल होता है, फिर भी वह परमात्मा से अनभिज्ञ रहता है। उसका कभी परमात्मा से मिलना नहीं होता, बल्कि वह परमात्मा के होने से इनकार करता है, क्योंकि जितना वह अवलोकन करता है —और यह पूरी प्रक्रिया अवलोकन की ही है —उतना ही वह अस्तित्व से अलग हो जाता है। सेतु टूट जाते हैं और दीवारेंखड़ी हो जाती है, वह अपने ही अहंकार में कैद हो जाता है।संत साक्षी रहता है। लेकिन स्मरण रखना, साक्षित्व एक घटना है, एक उप - उत्पत्तिहै —क्षण में, परिस्थिति में, अनुभव में समग्र होने का परिणाम है। समग्रता ही कुंजी है : समग्रता से ही साक्षी की धन्यता का जन्म होता है।अवलोकन के विषय में सब भूल जाओ, उससे तुम्हें अवलोकित विषय के संबंध में तो अधिक परिमार्जित सूचना मिल जाएगी, लेकिन तुम अपनी ही चेतना से बिलकुल अनभिज्ञ रह जाओगे।-           
        ओशो
       ध्यान योग

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