तुमने कहानी सुनी? एक आदमी अपनी पत्नी के साथ अपने गधे को लेकर कहीं जा रहा था। राह में कुछ लोग मिले। दोनों पैदल चल रहे थे, क्योंकि दो गधे थे नहीं, एक गधा था। और गधा कमजोर था और दो को सम्हाल नहीं सकता था।
उन आदमियों ने कहा, हइ के मूरख मालूम होते हो, गधे को किसलिए लिए हो, और बैठते क्यों नहीं! यह गधे को काहे के लिए चल रहे हो? यात्रा पर जा रहे हो, गधे पर बैठो।
तो उस आदमी ने कहा कि म्लू बनने से तो यही बेहतर है,गधे पर बैठ जाएं; तो वह गधे पर बैठ गया, पत्नी उसकी नीचे साथ—साथ चलने लगी।दूसरी भीड़ मिली, उन्होंने कहा, हइ हो गयी, यह मूरख देखो, पत्नी को चलवा रहा हैपैदल, खुद गधे पर बैठे हैं! अरे मर्द बच्चा होकर चलता नहीं है नीचे! स्त्री को ऊपर बिठा!
उसने कहा, यह बात भी ठीक है। तो वह नीचे चलने लगा, स्त्री को ऊपर बिठा दिया।फिर कुछ लोग मिले, उन्होंने कहा, यह देखो मजा! आ गया कलियुग, स्त्री गधे पर बैठी है, पति नीचे चल रहा है! अरे, पति परमात्मा है! तो उन्होंने कहा, अब क्या करना, बड़ी मुसीबत; तो कहा, दोनों ही बैठ जाओ। तो दोनों गधे पर बैठ गए।
थोड़ी देर बाद फिर लोग मिले, उन्होंने कहा। देखो मार डालोगे गधे को; तुम गधे मालूम होते हो, गधे की जान निकली जा रही है, कमर झुकी जा रही है, दो—दो चढ़े बैठे हो! शरमनहीं आती?
आखिर पशुओं में भी प्राण हैं!तो उन्होंने कहा, अब क्या, करना क्या! तोउन्होंने कहा, अब एक ही उपाय बचा है कि हम गधे को लेकर चलें, क्योंकि और तो सब उपाय कर देखे।
तो एक रस्सी में गधे को बांधकर, उसकी टागों में रस्सी डालकर, डंडा पिरोकर कंधे पर रखकर दोनों चले।थोड़ी दूर गए थे कि फिर लोग मिल गए।
उन्होंने कहा, यह क्या कर रहे हो? होश है? हमने आदमी देखे गधे पर चढ़े, मगर गधा आदमी पर चढ़ा नहीं देखा, तुम कर क्या रहे हो?यह पुरानी पंचतंत्र की कथा है। मगर सार्थक है।
ऐसी ही दशा है। यहां अगर तुम लोगों की मानकर चलते रहो तो तुम जीवन में कभी भी थिर न हो सकोगे। चुप हुए तो लोग निंदा करेंगे, बोले तो निंदाकरेंगे। कुछ भी करो, लोग निंदा करेंगे। इस सूत्र का अर्थ क्या है?
इस सूत्र का अर्थ है कि निंदा का रस जिसको लेना है वह कारण खोज लेगा। इसलिए तुम निंदा करने वालों की चिंता मत करना।इसलिए बुद्ध कहते है, मूढ़ क्या कहते हैं, इस पर ध्यान देने की जरूरत भी नहींहै। मूढ़ तो मूढ़ता की बातें कहते रहेंगे।
तुम तो वही करना जो तुम्हारी प्रज्ञा तुम्हें करने को कहे। तुम्हेंअगर चुप बैठना ठीक लगे तो चुप रहना, चाहे लोग कुछ भी कहें।
तुम्हें बोलना ठीक लगे तो बोलना, चाहे लोग कुछ भी कहें। तुम्हें अल्पभाषण ठीक लगे तो अल्पभाषण करना, और तुम्हें धारा बहानी हो बाहर की तो धारा बहाना।
तुम लोगों की चिंता मत लेना कि लोग क्या कहते हैं।तुम अपने जीवन के मालिक हो। तुम अपने जीवन को अपने ढंग से जीना।
तुम तुम हो, और तुम इसकी फिकर मत करना कि लोगों का मत क्या है। मत की फिकर की, तो तुम्हें वे पागल बनाकर छोड़ेंगे।जिसने लोगों के मत की फिकर की, वह दो कौड़ी का होकर मरता है। लोगों के मतों की फिकर ही मत करना।
तुम अपने भीतर की शांति से, अपने भीतर के आनंद से अपने भीतर के बोध से जीना। जो तुम्हें ठीक लगता हो, उसे करना। और उसे रोज—रोज बदलना भी मत।अगर बदलना भी कभी पड़े तो अपने ही भीतर के बीध से बदलना, लोगों के बोध के कारण नहीं। लोग क्या कहते हैं, इस चिंता में मत पड़ना।
तो ही तुम कहीं पहुंच पाओगे। नहीं तो तुम कहीं भी न पहुंच पाओगे।तुम दक्षिण गए, लोग कहेंगे, कहां जा रहे हो, दक्षिण में क्या रखा है? तुम उत्तर गए, लोग मिल जाएंगे, कहेंगे, उत्तर में क्या रखा है, कहां जा रहे हो?
तुम पश्चिम जाओ तो लोग मिल जाएंगे, पूरब जाओतो लोग मिल जाएंगे। सब दिशाओं में लोग हैं, और सब दिशाओं के पक्षपाती और सब दिशाओं के खिलाफ कोई न कोई मिल जाएगा।
तुम्हें कुछ भी न करने देंगे लोग।तुम्हें अगर जीवन में कुछ पाना हो, कोई सिद्धि, कोई उपलब्धि, अगर जीवन के रस से तुम्हें कुछ निचोड़ना हो, कोई सुगंध, तो तुम अपनी धुन में रमे रहना। एक बात इस सूत्र से निकलती है।और दूसरी बात—कि दूसरे क्या कर रहे हैं, इसका तुम निर्णय मत करना।
तुम इस निंदा में मत पड़ना कि वे ठीक कर रहे हैं कि गलत कर रहे हैं, कौन जाने! वे जानें, उनका जानें। न तो तुम दूसरों को बाधा देने देना अपने काम में, और न दूसरों के काम में बाधा देना।
दुनिया काफी सुंदर हौ सकती है, अगर लोग एक—दूसरे के कामोंमें बाधा न दें, मंतव्य न दें, निर्णय न दें।
प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं होने का अधिकार है। और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीवन—दिशा खोजने का जन्मसिद्ध अधिकार है। होना चाहिए।
तुम दोनों बातों का स्मरण रखना। न तो दूसरे पर बाधा देना कि तुम क्या कर रहे हो, कैसा कर रहे हो, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए—तुम किसी के नियंता नहीं हो, मालिक नहीं हो।
उसे अपने ढंग से जीने दो, उसे परमात्मा को अपने ढंग से खोजने दो। और न तुम किसी को अपना मालिक बनाना। कोई तुम्हारा मालिक नहीं है।
इस प्ररम स्वतंत्रता में जो जीता है, वही एक दिन अपने भीतर के दीए को खोजपाता है, जला पाता है।
उसी को बुद्ध ने कहा है—
अप्प दीपो भव, अपने दीए बनो।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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