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Wednesday, 6 April 2016

हर दुख तुम्हें निखारता हैजीवन दुख -ही-दुख नहीं है।यद्यपि दख यहाँ है।

हर दुख तुम्हें निखारता हैजीवन दुख -ही-दुख नहीं है।यद्यपि दख यहाँ है।

पर हर दुख तुम्हें निखारता है अौर बिना निखारे तुम सुख को अनुभव न कर सकोगे।हर दुख परीक्षा है।हर दुख प्रशिक्षण है।ऐसा ही समझो कि कोई वीणावादक तारोँ को कस रहा है।अगर तारों को होश हो तो लगेगा कि बडा दुख दे रहा है,तारों को कस रहा है,बडा दुख दे रहा है!

लेकिन वीणावादक तारों को दुख नहीँ दे रहा है; उनके भीतर से परम संगीतपैदा हो सके ,इसका आयोजन कर रहा है।ऐसा कोई दुख ही नहीँ है जो सुख का आयोजन न कर रहा हो।

हर दुख सुख के लिये पृष्ठभूमि है;सुख के रातों के लिये अमावस की रात है।इसे जानना मैं जीवन कीकला मानता हूं।तब यह सारा जगत अपूर्व सौंदर्य से भरा हुआ मालुम होगा।और उस अपूर्व सौंदर्य में ही परमात्मा की पहली झलक मिलती है।

खयाल रखो ,जिस जीवन में चुनौतियां नहीं हैं दुख की वह जीवन नपुंसक हो जाता है।जिस जीवन में बडे प्रश्न नहीं जगते उस जीवन में बडा चैतन्य पै दा नहीं होता।दुख को बदलो ।दुख को सुख की सेवा में लगाओ ।दुख को सुख का निखार बनाओ।दुख सेभागो मत ।जो भागता है,बुद्धिहीन है।जो जागता है,बुद्धिमान है।

अौर ध्यान रखना,दुख न हो तो जाग ही न सकोगे।इस जगत में जो दुख है वे जागरण के लिए उपाय हैं।यह जगत बिल्कुल सोया हुआ होता अगर यहां दुख न होते ।दुख न होता तो इस जगत में बुद्ध न होते

ओशो

"जीवन का लक्ष्य क्या है?? यह प्रश्न तो बहुत सीधा-सादा मालूम पड़ता है।

"जीवन का लक्ष्य क्या है??
यह प्रश्न तो बहुत सीधा-सादा मालूम पड़ता है।

लेकिन शायद इससे जटिल और कोई प्रश्न नहीं है। औरप्रश्न की जटिलता यह है कि इसका जो भी उत्तरहोगा वह गलत होगा।

इस प्रश्न का जो भी उत्तरहोगा वह गलत होगा। ऐसा नहीं कि एक उत्तर गलतहोगा और दूसरा सही हो जाएगा। इस प्रश्नके सभीउत्तर गलत होंगे। क्योंकि जीवन से बड़ी और कोईचीज नहीं है।

जो लक्ष्य हो सकें।जीवन खुद अपना लक्ष्य है। जीवन से बड़ीऔर कोईबात नहीं है जिसके लिए जीवन साधन हो सकें औरजो साध्य हो सकें। और सारी चीजों के तो साध्यऔर साधन के संबंध हो सकते हैं।

जीवन का नहीं,जीवन से बड़ा और कुछ भी नहीं है। जीवन ही अपनीपूर्णता में परमात्मा है। जीवन ही, वह जो जीवंतऊर्जा है हमारे भीतर। वह जो जीवन है पौधों में,पक्षियों में, आकाश में, तारों में, वह जो हम सबकाजीवन है।

वह सबका समग्रीभूत जीवन ही तोपरमात्मा है। यह पूछना कि जीवन का क्यालक्ष्यहै, यही पूछना है कि परमात्मा का क्या लक्ष्य है।

यह बात वैसी ही है जैसे कोई पूछे प्रेम का क्यालक्ष्य है। जैसे कोई पूछे आनंद का क्यालक्ष्य है। आनंदका क्या लक्ष्य होगा, प्रेम का क्या लक्ष्य होगा,जीवन का क्या लक्ष्य होगा।"

- ओशो

गच्छामि"सात साल का वर्तुलएक से सात साल तक:बच्चा बहुत मासूम होता है, बिलकुल संत जैसा। वह अपनी जननेंद्रियों से खेलता है लेकिन उसे पता नहीं होता कि वह गलत है। वहनैसर्गिक ढ़ंग से जीता है।सात से चौदह साल तक:सात साल में बच्चा बचपन से बहार आ जाता है। एक नया अध्याय खुलता है। अब तक वह निर्दोष था, अब दुनियादारी और दुनिया की चालाकियां सीखने लगता है।



झूठ बोलने लगता है, मुखौटे पहनने लगता है। झूठ की पहली पर्त उसे घेर लेती है।चौदह से इक्कीस साल तक:चौदह साल से पहले सेक्स उसके लिए कभी समस्या नहीं थी। लेकिन अब अचानक उसके अंतरतम में काम ऊर्जा पैदा हो जाती है। उसकी पूरी दुनिया ही बदल जाती है।

पहली बार विपरीत लिंगी व्यक्ति में उत्सुकता जगती है। जीवन की एक अलग ही दृष्टि पैदा होती है।इक्कीस से अट्ठाईस साल तक:अब उसकी सता की दौड़ शुरू है। महत्वाकांक्षा,धन कमाने का लालसा, नाम कमाने की लालसा, कुछ कर गुजरने की इच्छा। उसका मैं जग जाता है। यह सब इक्कीस वर्ष से शुरू होता है। उसे अपने आपको सिद्ध करना है, जीवन में जड़े जमानी है।अट्ठाईस से पैंतीस साल तक:यहां आकर वह सुरक्षा के बारे में सोचने लगता है। सुविधाएं, बैक बैलेंस…अपनी पूंजी कहीं न कहीं सुरक्षित रखने का सोचता है।

अट्ठाईस साल तक उसकी गाड़ी खतरे से खेलती रही। मुश्किलों का सामना करना पसंद करती रहीं। सारे विद्रोही और हिप्पी तीस साल से पहले होते है। तीस साल के बाद सारा हिप्पी वाद खत्म हो जाता है। तीस साल के आते ही सारी खलबली शांत होने लग जाती है। सब कुछ व्यवस्था का हिस्सा होना शुरू हो जाता है।पैंतीस से बयालीस साल तक:पैंतीस वर्ष की आयु फिर एक बदलाव की शुरूआत। पैंतीस वर्ष जीवन का शिखर है। अगर सत्तर वर्ष का जीवन हो तो पैंतीस उसका मध्य बिंदु है। जीवन वर्तुल आधा समाप्त हुआ। अब व्यक्ति मृत्यु के बारे में सोचने लगता है। उसे भय पैदा होता है।

यही उम्र है जब अल्सर, रक्तचाप, दिल का दौरा, कैंसर, टी. बी. और अन्य संधातम रोग सिर उठाने लग जोते है। भय के कारण। भय इन सबको पैदा करता है। व्यक्ति हर तरह की दुर्घटनाओं का शिकार होने लगता है। क्योंकि उसके भीतर भय पैदा हो गया है। मृत्यु निकट आती मालूम होती है। भय उसका पहला चरण लगता है।

बयालीस से उनचास साल तक:हर व्यक्ति को धर्म की जरूरत होती है। अब उसे धार्मिक संबंध की जरूरत होती है—ईश्वर या गुरु या कोई ऐसी जगह जहां वहसमर्पण कर सके; जहां जाकर वह अपना बोझ हल्का कर सके; जहां जाकर वह अपना बोझ हल्का कर सके। यदि धार्मिक व्यक्ति न मिला और लोग एडोल्फ हिटलर या स्टैलिन को खोज लेते है तो उन्हें भगवान बना देते है।

यदि वे भी न मिलें तो फिर मनोशिचकित्सक है, थेरेपिस्ट हे।उनचास से छप्पन साल तक–व्यक्ति धर्म में चल पड़ता है, तो उस मार्ग पर अपनी जड़े जमा लेता है। ध्यान और सुगंध के नये-नये अंकुर निकलने लग जाते है। जीवन में एक सरसता आ जाती है। गुरु की खोज समप्त हो जाती है। उसे राह मिल जाती है। और जीवन की डगर रस से भरी महसूस होती है…

छप्पन से त्रेसठ साल तक–अगर वह ध्यान में डूबता है, और सही मार्ग पर चलता चला जाता है। उसके जीवन में पत्तों के साथ फूलों का खिलना भी महसुस होने लग जाता है। कलियां चटकने लग जाती है। शांति और आनंद का उन्माद उसे घेरे रहता है। आंखों में एक गहराई आ जाती है। उसके संग साथ रहने से शांति फैलने लग जाती है। और एक दिन उसे सतोरी की झलक मिल जाती है।त्रेसठ से सत्तर साल तक–ये जीवन के अंतिम पड़ाव की सुगंध और मंदिर के कलस दिखाई देने लग जाते है।

फिर चाहे वो 80-90 साल तक जीए, इस से कोई फर्कनहीं पड़ता। वह मृत्यु के अगमन का स्वगत-सत्कार शुरू कर देता है। उस में डूब जाने की कला निपूर्ण हो जाता है। सतोरी के बाद में आदमी को मृत्यु का जो भय समया होता हैवह खत्म हो जाता है। हम मृत्यु को बीना जाने ही भय भीत रहते है। सतोरी के बाद मृत्यु एक सुंदर अनुभव है।

जिस की वह सतत प्रतिक्षा करता है। ये नहीं की वह आत्म हत्या करना चाहता है। वह जीवन भी बीना मृत्यु के भय के भार हीन जीता है। बिना कोई बोझ लिये। और धीरे-धीर वह एक दिव्यतामें प्रवेश कर जाता है।

फॉर मैडमैन ओनली
ओशो

बाबा साहब के आज के नुमाईंदे

बाबा साहब के आज के नुमाईंदे :

बाबा साहब के लोगों के बीच घूमते हुए कुछ अनुभव हुआ ।

कभी सोचता हूँ कि अगर बाबा साहब नहीं होते तो क्या होता आज ?

ये सोचने मात्र से ही चक्कर आने लगता है।

क्या हम ठंढा गर्म वाली कार में घूम पाते ?

क्या अपने घर में AC लगा कर 51 इंच का टेलीविजन का मजा ले रहे होते ?

क्या कोई घर पे आये तो उसके पास पंहुचने के लिए 4 दरवाजे  का इंटरलॉक खोलकर जा पाते ?

या मेरा मन करे तो दरवाजा खोलें या बिना दरवाजा खोले ही उनसे बात करें ऐसा कर पाते ?

इतनी आरामदायक और सुरक्षित जिंदगी के सूत्रधार और कोई नहीं हमारे महापुरुष ही हैं।

क्या वे लोग ऐसी जिंदगी जी पाये ?

क्या वे इसके हकदार नहीं थे ?

फिर भी उन्होंने अपनी जिंदगी आराम करने में क्यों नहीं बिताई।

क्योंकि अगर वे सुख चैन की जिंदगी बिताये होते तो हमें सुख चैन और आनंद नहीं मिलता।

यही सही है।

इसलिए अगर हम अपनी आरामदायक जिंदगी जो कि हमारे महापुरुषों के बदौलत है को 30 मिनट के लिए त्याग करें और उनके विचारों से अपने समुदाय को जगाने में खर्च करें तो हमारी आने वाली पीढ़ी का जीवन भी आरामदायक हो जायेगा।

मैं हमेशा एक बात सोचता हूँ

कि मैं अपने परदादा का नाम तक नहीं जानता पर ज्योतिबा फुले को जानता हूँ।

ऐसा मैं सोचता हूँ।

નજરને મેળવીને ફેરવી લ્યો વ્યાજબી નથી,

નજરને મેળવીને ફેરવી લ્યો વ્યાજબી નથી,

મને આપીને દામન સેરવી લ્યો વ્યાજબી નથી.

ગુનો તમે કરો ને ન્યાય પણ તમે,

નિર્દોષ તમને ઠેરવી લો વ્યાજબી નથી.

અમારા હાથમાં જે હાથને સોંપ્યાં હતા તમે,

બીજાના હાથમાં એ ભેરવી લ્યો વ્યાજબી નથી.

તમે પોતે જ બોલાવો તમારા ઘર સુધી અમને,

કરી ઘર બંધ સાંકળ ભેરવી લ્યો વ્યાજબી નથી.

આંસુ તો રહેવાદો અમારી એજ છે દોલત,

આંસુ સદંતર ખેરવી લ્યો વ્યાજબી નથી

दो प्रकार के ज्ञानएक ज्ञान है, जो भर तो देता है मन को बहुतजानकारी से, लेकिन हृदय को शून्य नहीं करता।एक ज्ञान है, जो मन को भरता नहीं, खाली करताहै। हृदय को शून्य का मंदिर बनाता है। एक ज्ञान है,जो सीखने से मिलता है और एक ज्ञान है जोअनसीखने से मिलता है।

दो प्रकार के ज्ञानएक ज्ञान है, जो भर तो देता है मन को बहुतजानकारी से, लेकिन हृदय को शून्य नहीं करता।एक ज्ञान है, जो मन को भरता नहीं, खाली करताहै। हृदय को शून्य का मंदिर बनाता है। एक ज्ञान है,जो सीखने से मिलता है और एक ज्ञान है जोअनसीखने से मिलता है।

जो सीखने से मिले,वह कूड़ाकरकट है। जो अनसीखने से मिले, वही मूल्यवान है।सीखने से वही सीखा जा सकता है, जो बाहर सेडाला जाता है। अनसीखने से उसका जन्म होता है,जो तुम्हारे भीतर सदा से छिपा है।ज्ञान को अगर तुमने पाने की यात्रा बनाया, तोपंडित होकर समाप्त हो जाओगे।

ज्ञान को अगरखोने की खोज बनाया, तो प्रज्ञा का जन्महोगा।पांडित्य तो बोझ है; उससे तुम मुक्त न होओगे। वह तोतुम्हें और भी बांधेगा। वह तो गले में लगी फांसी है,पैरों में पड़ी जंजीर है। पंडित तो कारागृह बनजाएगा, तुम्हारे चारों तरफ। तुम उसके कारण अंधे होजाओगे।

तुम्हारे द्वार दरवाजे बंद हो जाएंगे।क्योंकि जिसे भी यह भ्रम पैदा हो जाता है, किशब्दों को जानकर उसने जान लिया, उसका अज्ञानपत्थर की तरह मजबूत हो जाता है।तुम उस ज्ञान की तलाश करना जो शब्दों से नहींमिलता, निःशब्द से मिलता हैं। जो सोचने विचारनेसे नहीं मिलेगा, निर्विचार होने से मिलता है।

तुमउस ज्ञान को खोजना, जो शास्त्रों में नहीं है, स्वयंमें है। वही ज्ञान तुम्हें मुक्त करेगा, वही ज्ञान तुम्हेंएक नए नर्तन से भर देगा। वह तुम्हें जीवित करेगा वहतुम्हें तुम्हारी कब्र के ऊपर बाहर उठाएगा। उससे हीआएंगे फूल जीवन के। और उससे ही अंततः परमात्माका प्रकाश प्रकटेगा।
~ ओशो ~
(कहे कबीर दीवाना, प्रवचन #3)

जापान में एक बौद्ध भिक्षु था। सबसे पहले उसने ही चीनी भाषा से बुद्ध के वचन जापानी भाषा में अनुवाद किए। बड़ा काम था,विराट साहित्य था, उसको अनुवादित करना था। फकीर के पास, भिक्षु के पास कुछ भी न था।

जापान में एक बौद्ध भिक्षु था। सबसे पहले उसने ही चीनी भाषा से बुद्ध के वचन जापानी भाषा में अनुवाद किए। बड़ा काम था,विराट साहित्य था, उसको अनुवादित करना था। फकीर के पास, भिक्षु के पास कुछ भी न था।

वह गांव—गांव गया, दस वर्ष उसने भिक्षा मांगी,तब कहीं दस हजार रुपये इकट्ठे हुए और ग्रंथ का कामशुरू होने की संभावना बनी। लेकिन जैसे ही दस हजार रुपये इकट्ठे हुए, जिस क्षेत्र में वह रहता था वहां अकाल पड़ गया। अकाल पड़ गया तो उसने शास्त्र के अनुवाद का काम रोक दिया।

उसने वे दस हजार रुपये अकाल पीड़ितों को भेंट कर दिए।फिर भिक्षा मांगनी शुरू की, फिर दस वर्षलग गए, दस हजार रुपये इकट्ठे हुए। तभी एक भूकंप आ गया। उसने वे दस हजार रुपये उस भूकंप में दान कर दिए।

फिर भिक्षा मांगनी शुरू की। वह शास्त्रों का काम फिर रुक गया। जब उसनेभिक्षा मांगनी शुरू की थी तब वह चालीस वर्ष का था। जब तीसरी बार भिक्षा पूरी हुई तो वह सत्तर वर्ष का था। फिर दस हजार रुपये इकट्ठे हुए, ग्रंथों का काम शुरू हुआ। मरते समय किसी ने उससे पूछा कि क्या इन ग्रंथों का यह पहला संस्करणहै?

तो उसने कहा, नहीं; यह तीसरा संस्करण है,दो संस्करण पहले निकल चुके हैं।वे लोग हैरान हुए! उन्होंने कहा.. .उसने ग्रंथ पर लिखवाया भी कि तीसरा संस्करण, थर्ड एडिशन......लोगों ने पूछा कि यह क्या है?पहले दो संस्करण कहां हैं?उसने कहा, एक अकाल में लग गया, एक भूकंप में। और वे दो संस्करण इस तीसरे से श्रेष्ठ थे,

वे दिखाई नहीं पड़ते हैं। वेदिखाई नहीं पड़ते; वे श्रेष्ठ संस्करण थे। वे बहुत डिवाइन थे, बहुत दिव्य थे। हमको दिखाई पड़ेगा कि वे संस्करण हुए नहीं; लेकिन उसे दिखाई पड़ता है। जो प्रार्थना दिखाई पड़ती है वह असली नहीं है; जो बहुत हृदय की दशाओं में उत्पन्न होती है वही असली है।

निश्चित हां, तीसरा संस्करण कोई कीमत का नहीं है, असली संस्करण वे दो थे। लेकिन अगर यह अंधा पंडित होता, तो वह दस हजार रुपये का पहला संस्करण निकालता और मानता कि यही ठीक है, दूसरे का भी निकालता, मानता यही ठीक है। लेकिन उसके पास अंतर्दृष्टि थी, प्रेम था। उसे पता था प्रार्थना क्या है!तो यह जो हम सामान्यत: प्रार्थना और पूजा समझते हैं, इसमें बड़ा धोखा है।

आपका चित्त तो नहीं बदलता, कुछ बातें आपदोहरा कर निपट जाते हैं। एक काम को पूरा कर लेते हैं, एक रूटीन पूरी कर लेते हैं। फिर रोज—रोज उसे दोहराते रहते हैं और समझते हैं कि प्रार्थना कररहे हैं।

ओशोजीवन रहस्य
--(प्रवचन--04)
प्रार्थना : अद्वैत प्रेम की अनुभूति
—(प्रवचन—चौथा)

विश्व में हर रिकार्ड बाबा साहेब के नाम 1. भारत के सबसे पढे व्यक्ति

विश्व में हर रिकार्ड बाबा साहेब के नाम
1. भारत के सबसे पढे व्यक्ति

2. सबसे ज्यादा किताब लिखने वाले

3. सबसे तेज स्पीड से ज्यादा टाईप करने वाले

4. सबसे ज्यादा श्ाब्द टाईप करने वाले

5. सबसे ज्यादा आंदोलन करें

6. महिला अधिकार के लिए संसद में इस्तीफा देने
वाले

7. दलित, पिछडो के हको को दिलाने वाले

8. हिन्दू धर्म के ग्रन्थ मनुस्मर्ति को चोराहे पर जलाने
वाले

9. जातिवाद को समाप्त करने के लिए पंडतानि से
sadi करने वाले

10. गरीब मज़लूमो के हको के लिए 4 बच्चे कुर्बान करने
वाले

11. 2 लाख किताबो को पढ़कर याद रखने वाले

12. भारत का सविधान लिखा

13. पूना पैक्ट लिखा

14. मूक नायक पत्रिका निकाली

15. बहिस्किरत समाचार पत्र निकाला

16. सबसे तेज लिखने वाले

17. दोनों हाथो से लिखने वाले

18. mr ग़ांधी को जीवन दान देने वाले

19. सबसे काबिल बैरिस्टर

20. मुम्बई के सेठ के बेटे को फर्जी मुक़दमे से बरी कराने
वाले

21. योग करने वाले

22. सबसे ईमानदार

23. 18 से 20 घंटे पढ़ने वाले

24. सरदार पटेल को obc का मतलब समझाने वाले

25. स्कूल के बहार बैठकर और अपमान सहकर उच्च
शिक्षा पाने वाले

25. हम सबकी भलाई के लिए पत्नी रमाबाई को
खोने वाले ............

DR.B.R.AMBEDKAR

लाओत्से को मानने वाले एक छोटा सा प्रयोगसदियों से करते रहे हैं। और वह प्रयोग बड़ा बढ़िया है। वे कहते हैं कि जब तक आपके भीतर केंद्र का ही आपको पता नहीं है, यू कैन नॉट ग्रो, तब तक आपमें कोई विकास नहींहो सकता। तो वे एक छोटा सा प्रयोग करते हैं। दो छोटे से आप हौज बना लें और पानी भर दें।

बराबर एक मात्रा के हौज, एक सा पानी। एक हौज में एक लोहे का डंडा लगा देंबीच में केंद्र पर। और एक हौज में डंडा न लगाएं, खाली रखें, बिना केंद्र का। दो मछलियां, एक ही उम्र की, उन दोनों में छोड़ दें।

आप हैरान होंगे, जिसमें डंडा लगा हुआ है, उसकी मछली जल्दी बढ़ेगी; और जिसमेंडंडा नहीं लगा है, उसकी मछली जल्दी नहीं बढ़ेगी।जिसमें डंडा लगा हुआ है, वह मछली उसका चक्कर लगाती रहेगी दिन-रात। केंद्र है और केंद्र के आस-पास वह घूमती चली जाती है, घूमती चली जाती है।

जिस हौज में डंडा नहीं लगा है, उसकी मछली इधर-उधर भटकती रहेगी। कहीं कोई केंद्र नहीं है, जिसके आस-पास घूम सके। उसकी ग्रोथ नहीं होगी, वह स्वस्थ नहीं होगी, बीमार रह जाएगी। यह हजारों साल से चलता हुआ प्रयोग है और सदा इसका एक ही परिणाम होता है कि जिसमें केंद्र है जिस हौज में, उसकी मछली स्वस्थ, जल्दी विकसित होती है, ज्यादा ताजी, ज्यादा जीवंत होती है।

लाओत्से को मानने वाले कहते हैं कि जिस व्यक्ति को अपने केंद्र का पता चल जाता है, उसकी चेतना उस केंद्र का इसी मछली की तरह चक्कर लगाने लगती है। और तब चेतना में विकास शुरू हो जाता है। जिनको केंद्रका ही पता नहीं है, वे उस मछली की तरह रह जाएंगे–बेजान, लोच, निर्जीव। क्योंकि कोई केंद्र नहीं है, जिसके आस-पास वे घूम सकें और विकसित हो सकें।

उनको दिशा ही नहीं मालूम पड़ेगी–कहां जाएं?  क्या करें?    क्या हो जाएं? भटकेंगे वे भी।

एक ही परिधि पर निरंतर परिभ्रमण से चेतना विकसित होती है।तो लाओत्से कहता है कि यह जो नाभि का केंद्र है, आपको पता चल जाए, तो आपकी चेतनाको एकाग्र गति मिल जाती है–ए कनसनट्रेटेड मूवमेंट। आपकी चेतना फिर वहीं घूमती रहती है।

लाओत्से कहता है, चलो, लेकिन ध्यान नाभि का रखो। बैठो, ध्यान नाभि का रखो। उठो, ध्यान नाभि का रखो। कुछ भी करो, लेकिन तुम्हारी चेतना नाभि के आस-पास घूमती रहे। एक मछली बन जाओ और नाभि के आस-पास घूमते रहो। और शीघ्र ही तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर एक नई शक्तिशाली चेतना का जन्म हो गया।

इसके अदभुत परिणाम हैं। और इसके बहुत प्रयोग हैं। आप यहां एक कुर्सी पर बैठे हुए हैं। लाओत्से कहता है कि आपके कुर्सीपर बैठने का ढंग गलत है। इसीलिए आप थक जाते हैं। लाओत्से कहता है, कुर्सी पर मत बैठो। इसका यह मतलब नहीं कि कुर्सी पर मत बैठो, नीचे बैठ जाओ। लाओत्से कहता है, कुर्सी पर बैठो, लेकिन कुर्सी पर वजन मत डालो। वजन अपनी नाभि पर डालो।अभी आप यहीं प्रयोग करके देख सकते हैं।

एम्फेसिस का फर्क है। जब आप कुर्सी पर वजन डाल कर बैठते हैं, तो कुर्सी सब कुछ हो जाती है, आप सिर्फ लटके रह जाते हैं कुर्सी पर, जैसे एक खूंटी पर कोट लटका हो।खूंटी टूट जाए, कोट तत्काल जमीन पर गिर जाए। कोट की अपनी कोई केंद्रीयता नहीं है, खूंटी केंद्र है। आप कुर्सी पर बैठते हैं–लटके हुए कोट की तरह।लाओत्से कहता है, आप थक जाएंगे।

क्योंकि आप चैतन्य मनुष्य का व्यवहार नहीं कर रहेहैं और एक जड़ वस्तु को सब कुछ सौंपे दे रहे हैं। लाओत्से कहता है, कुर्सी पर बैठो जरूर, लेकिन फिर भी अपनी नाभि में हीसमाए रहो। सब कुछ नाभि पर टांग दो। और घंटों बीत जाएंगे और आप नहीं थकोगे।

अगर कोई व्यक्ति अपनी नाभि के केंद्र पर टांग कर जीने लगे अपनी चेतना को, तो थकान–मानसिक थकान–विलीन हो जाएगी। एक अनूठा ताजापन उसके भीतर सतत प्रवाहित रहने लगेगा। एक शीतलता उसके भीतर दौड़ती रहेगी। और एक आत्मविश्वास, जो सिर्फ उसी को होता है जिसके पास केंद्र होता है, उसेमिल जाएगा।

तो पहली तो इस साधना की व्यवस्था है कि अपने केंद्र को खोज लें। और जब तक नाभि केकरीब केंद्र न आ जाए–ठीक जगह नाभि से दो इंच नीचे, ठीक नाभि भी नहीं–नाभि से दो इंच नीचे जब तक केंद्र न आ जाए, तब तक तलाश जारी रखें। और फिर इस केंद्र को स्मरण रखने लगें।

श्वास लें तो यही केंद्र ऊपर उठे, श्वास छोड़ें तो यही केंद्र नीचे गिरे। तब एक सतत जप शुरू हो जाता है–सतत जप। श्वास के जाते ही नाभि का उठना, श्वासके लौटते ही नाभि का गिरना–अगर इसका आप स्मरण रख सकें…।कठिन है शुरू में। क्योंकि स्मरण सबसे कठिन बात है। और सतत स्मरण बड़ी कठिन बात है।

आमतौर से हम सोचते हैं कि नहीं, ऐसी क्या बात है? मैं एक आदमी का नाम छह साल तक याद रख सकता हूं।यह स्मरण नहीं है; यह स्मृति है। इसका फर्क समझ लें। स्मृति का मतलब होता है, आपको एक बात मालूम है, वह आपने स्मृति के रिकाघडग को दे दी। स्मृति ने उसे रख ली। आपको जब जरूरत पड़ेगी, आप फिर रिकार्ड से निकाल लेंगे और पहचान लेंगे।

स्मरण का अर्थ है: सतत, कांसटेंट रिमेंबरिंग।आप जरा कोशिश करें, एक पांच मिनट के लिए प्रयोग करें कि मैं अपने पेट के उठने और गिरने का खयाल रखूंगा, भूलूंगा नहीं। दो सेकेंड बाद आप पाएंगे, आप भूल चुके हैं, कुछ और कर रहे हैं। फिर घबड़ाहट आएगी कि यहतो मैं भूल गया, दो सेकेंड भी याद नहीं रख सका! श्वास अभी भी चल रही है, पेट अब भी हिल रहा है; लेकिन आप कहीं गए। फिर लौटा लाएं अपने स्मरण को।

अगर आप निरंतर प्रयास करें, तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, सेकेंड-सेकेंड आपका स्मरण बढ़ेगा। और जिसदिन आप कम से कम तीन मिनट सतत, मुतवातिर, एक क्षण को भी बिना चूके–तीन मिनट कोई लंबा वक्त नहीं है, लेकिन जब प्रयोग करेंगे, तब आपको पता चलेगा कि तीन साल से भी लंबा मालूम पड़ेगा–एक दफे भी चूकें नहीं, तीन मिनट केवल! तो आपको पता चलेगा कि अब आपको केंद्र का ठीक-ठीक अनुभव होनाशुरू हो गया। और तब सब शरीर अलग और केंद्रअलग झलकने लगेगा।

और यह केंद्र ऊर्जा का केंद्र है। इससे जो संयुक्त है, उसकी महिमा अपार है। क्योंकि वह निरंतर अनंत ऊर्जा को उपलब्ध कर रहा है।तो एक तो सतत स्मरण रखें नाभि के केंद्र का और उसके आस-पास ही अपनी चेतना को परिभ्रमण करने दें। वही मंदिर है, उसकी ही परिक्रमा जारी रखें। कुछ भी हो जाए–क्रोध हो, घृणा हो, वैमनस्य हो,र् ईष्या हो, दुख हो, सुख हो–

लाओत्से कहता है, हर हालत में, कुछ भी हो, पहला काम नाभि पर लौटने का करें, फिर दूसरा काम कुछ भी करें। किसी ने खबर दी कि प्रियजन मर गए, तो पहले नाभि पर जाएं और फिर इस खबर को ग्रहण करें। और तब, लाओत्से कहता है, कोई भी मर जाए, चित्त पर कोई चोट नहीं पहुंचेगी।कभी आपने खयाल न किया हो, लेकिन शायद कभी खयाल आया भी हो, या पीछे लौट कर प्रत्यभिज्ञा हो जाए, जब भी आपको कोई बहुत गहरी खबर सुनाता है, खुशी की या दुख की, तो चोट नाभि पर लगती है।

रास्ते पर आप चले जा रहे हैं, साइकिल पर या कार में और एकदम एक्सीडेंट होने की हालत आ गई, आपने खयाल किया है कि पहली चोट नाभि पर लगती है, धड़ से नाभि पर चोट जाती है। नाभि कंपित होती है, तभी सब कुछ कंपित होता है।लाओत्से कहता है, जब भी कुछ हो, तो आप सचेतन रूप से पहले नाभि पर जाएं। पहला काम नाभि, फिर दूसरा कोई भी काम। तो न सुख आपको सुखी कर पाएगा इतना कि आप पागल हो जाएं, न दुख आपको दुखी कर पाएगा इतना कि आप दुख से एक हो जाएं।

तब आपका केंद्र अलगऔर परिधि पर घटने वाली घटनाएं अलग रह जाएंगी। और आप साक्षी मात्र रह जाएंगे। योग कहता है, साक्षी की साधना करो। लाओत्से कहता है, सिर्फ नाभि को सतत स्मरण रखो, साक्षी की घटना फलित हो जाएगी, घटित हो जाएगी।यह जो नाभि का केंद्र है, जिस दिन ठीक-ठीक पता चल जाए, उसी दिन आप मृत्यु और जन्म के बाहर हो जाते हैं।

क्योंकि जन्म के पहले यह नाभि का केंद्र आता है; और मृत्यु के बाद यही बचता है, बाकी सब खो जाता है। तो जो व्यक्ति भी इस केंद्र को जान लेता है, वह जान लेता है, न तो मेरा जन्म है और न मेरी मृत्यु है। वह अजन्मा और अमृत हो जाता है।सतत स्मरण रखें। केंद्र को खोजें, सतत स्मरण रखें। पहली बात, केंद्र को खोज लें। दूसरी बात, स्मरण रखें। तीसरी बात, बार-बार जब स्मरण खो जाए, तो स्मरण खोता है इसका भी स्मरण रखें। वह थोड़ा कठिन पड़ेगा।जैसे कि आप किसी चीज पर ध्यान दे रहे हैं।तो लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, हमने नाभि पर ध्यान दिया, लेकिन वह खो जाता है। फिर क्या करें?

तो उनसे मैं कहता हूं, खो गया, इसको भी स्मरण रखें कि अब खो गया। इसको भी ध्यान का हिस्सा बनाएं। बी अटेंटिव ऑफ दि इनअटेंशन आल्सो। वह जो घटना घट रही है खोने की, उसको भी ध्यानपूर्वक! उसको भी गैर-ध्यानपूर्वकमत खोने दें। जब भी चूक जाएं, तत्काल स्मरण करें कि चूक गया। वापस लौट जाएंगे, कुछ और करने की जरूरत नहीं, सिर्फ इतना स्मरण कि चूक गया, स्मरण वापस लौट आएगा, धारा फिर जुड़ जाएगी।और चौथी बात, जब स्मरण पूरा हो जाए, केंद्रस्पष्ट दिखाई पड़ने लगे, अनुभव होने लगे, तो सब कुछ केंद्र के लिए समर्पित कर दें, सरेंडर कर दें। उस केंद्र को ही कह दें कितू ही मालिक है, अब मैं छोड़ता हूं। और यह आसान हो जाता है।

समर्पण बहुत कठिन है, जब तक केंद्र का पतान हो। लोग कहते हैं, परमात्मा के लिए समर्पण कर दो। लेकिन परमात्मा का कोई पतानहीं। जिसका पता नहीं, उसके लिए समर्पण कैसे कर दो? और परमात्मा आ भी जाए, तो भी समर्पण आपको करना हो, तो मालिक तो आप ही बने रहते हैं समर्पण के भी।

अगर कल दिल नाराज हो जाए और लगे कि यह परमात्मा कुछ अपनी मनपसंद का नहीं, तो अपना समर्पण वापस ले ले सकते हैं कि छोड़ो, हमने अपना समर्पण वापस लिया। देने वाले हम थे, ले भी हम सकते हैं। क्या, परमात्मा करेगा क्या?अगर आप अपना समर्पण वापस ले लें, तो परमात्मा करेगा क्या?

तो जो समर्पण वापस भी लिया जा सकता है, वह समर्पण तो नहीं है। वह दिया ही नहीं गया कभी।लाओत्से की प्रक्रिया अलग है। लाओत्से कहता है, जिस दिन इस केंद्र का पता चलता है, उस दिन समर्पण करना नहीं पड़ता, आपको अनुभव होने लगता है कि केंद्र मालिक है ही, मेरे बिना केंद्र सब कुछ कर रहा है।

श्वास ले रहा है, छोड़ रहा है; जीवन की धाराचल रही है; नींद आ रही है, जागरण आ रहा है; जन्म हो रहा है, मृत्यु हो रही है; सब केंद्र कर रहा है मेरे बिना कुछ किए। तो अब समर्पण का क्या सवाल है?

समर्पण हो जाता है।तो चौथी, आखिरी जो घटना है इस साधना में, वह है केंद्र के प्रति समर्पण को अनुभव कर लेना। फिर अहंकार के बचने का कोई उपाय नहीं–कोई उपाय ही नहीं। ऐसी समर्पित अवस्था में व्यक्ति परम सत्ता को उपलब्ध हो जाता है।