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Tuesday, 15 March 2016

जो मांगता ही चलता है.... एक कहानी मैंने सुनी है। एक शहर में एक नई दुकान खुली। जहां कोई भी युवक जाकर अपने लिए एक योग्य पत्नी ढूंढ़ सकता था। एक युवक उस दुकान पर पहुंचा। दुकान के अंदर उसे दो दरवाजे मिले। एक पर लिखा था, युवा पत्नी; और दूसरे पर लिखा था, अधिक उम्र वाली पत्नी!


युवक ने पहले द्वार पर धक्का लगाया और अंदर पहुंचा। फिर उसे दो दरवाजे मिले। पत्नी वगैरह कुछ भी न मिली। फिर दो दरवाजे! पहले पर लिखा था, सुंदर; दूसरे पर लिखा था, साधारण।

युवक ने पुनः पहले द्वार में प्रवेश किया। न कोई सुंदर था न कोई साधारण, वहां कोई था ही नहीं। सामरे फिरदो दरवाजे मिले, जिन पर लिखा था: अच्छा खाना बनानेवाली और खाना न बनानेवाली।

युवक ने फिर पहला दरवाजा चुना। स्वाभाविक, तुम भी यही करते। उसके समक्ष फिर दो दरवाजे आए, जिन पर लिखा था:अच्छा गाने वाली और गाना न गाने वाली।

युवक ने पुनः पहले द्वार का सहारा लियाऔर अब की उसके सामने दो दरवाजों पर लिखा था: दहेज लानेवाली और न दहेज लानेवाली।

युवक ने फिर पहला दरवाजा चुना। ठीक हिसाब से चला। गणित से चला। समझदारी से चला। परंतु इस बार उसके सामने एक दर्पण लगा था, और उस पर लिखा था,

“आप बहुत अधिक गुणों के इच्छुक हैं।समय आ गया है कि आप एक बार अपना चेहरा भीदेख लें।’ऐसी ही जिंदगी है: चाह, चाह, चाह! दरवाजों की टटोल। भूल ही गए, अपना चेहरादेखना ही भूल गए!

जिसने अपना चेहरा देखा, उसकी चाह गिरी। जो चाह में चला, वहधीरे-धीरे अपने चेहरे को ही भूल गया। जिसने चाह का सहारा पकड़ लिया, एक चाह दूसरे में ले गई, हर दरवाजे दो दरवाजों पर ले गए, कोई मिलता नहीं।

जिंदगी बस खाली है। यहां कभी कोई किसी को नहीं मिला। हां, हर दरवाजे पर आशा लगी है कि और दरवाजे हैं। हर दरवाजे पर तख्ती मिली कि जरा और चेष्टा करो। आशा बंधाई।आशा बंधी। फिर सपना देखा। लेकिन खाली ही रहे।

अब समय आ गया, आप भी दर्पण के सामने खड़े होकर देखो। अपने को पहचानो!जिसने अपने को पहचाना वह संसार से फिर कुछ भी नहीं मांगता। क्योंकि यहां कुछ मांगने जैसा है ही नहीं।

जिसने अपने कोपहचाना, उसे वह सब मिल जाता है जो मांगा था, नहीं मांगा था। और जो मांगता ही चलता है, उसे कुछ भी नहीं मिलता है।

      जिनसूत्रओशो

जो मांगता ही चलता है.... एक कहानी मैंने सुनी है। एक शहर में एक नई दुकान खुली। जहां कोई भी युवक जाकर अपने लिए एक योग्य पत्नी ढूंढ़ सकता था। एक युवक उस दुकान पर पहुंचा। दुकान के अंदर उसे दो दरवाजे मिले। एक पर लिखा था, युवा पत्नी; और दूसरे पर लिखा था, अधिक उम्र वाली पत्नी!


युवक ने पहले द्वार पर धक्का लगाया और अंदर पहुंचा। फिर उसे दो दरवाजे मिले। पत्नी वगैरह कुछ भी न मिली। फिर दो दरवाजे! पहले पर लिखा था, सुंदर; दूसरे पर लिखा था, साधारण।

युवक ने पुनः पहले द्वार में प्रवेश किया। न कोई सुंदर था न कोई साधारण, वहां कोई था ही नहीं। सामरे फिरदो दरवाजे मिले, जिन पर लिखा था: अच्छा खाना बनानेवाली और खाना न बनानेवाली।

युवक ने फिर पहला दरवाजा चुना। स्वाभाविक, तुम भी यही करते। उसके समक्ष फिर दो दरवाजे आए, जिन पर लिखा था:अच्छा गाने वाली और गाना न गाने वाली।

युवक ने पुनः पहले द्वार का सहारा लियाऔर अब की उसके सामने दो दरवाजों पर लिखा था: दहेज लानेवाली और न दहेज लानेवाली।

युवक ने फिर पहला दरवाजा चुना। ठीक हिसाब से चला। गणित से चला। समझदारी से चला। परंतु इस बार उसके सामने एक दर्पण लगा था, और उस पर लिखा था,

“आप बहुत अधिक गुणों के इच्छुक हैं।समय आ गया है कि आप एक बार अपना चेहरा भीदेख लें।’ऐसी ही जिंदगी है: चाह, चाह, चाह! दरवाजों की टटोल। भूल ही गए, अपना चेहरादेखना ही भूल गए!

जिसने अपना चेहरा देखा, उसकी चाह गिरी। जो चाह में चला, वहधीरे-धीरे अपने चेहरे को ही भूल गया। जिसने चाह का सहारा पकड़ लिया, एक चाह दूसरे में ले गई, हर दरवाजे दो दरवाजों पर ले गए, कोई मिलता नहीं।

जिंदगी बस खाली है। यहां कभी कोई किसी को नहीं मिला। हां, हर दरवाजे पर आशा लगी है कि और दरवाजे हैं। हर दरवाजे पर तख्ती मिली कि जरा और चेष्टा करो। आशा बंधाई।आशा बंधी। फिर सपना देखा। लेकिन खाली ही रहे।

अब समय आ गया, आप भी दर्पण के सामने खड़े होकर देखो। अपने को पहचानो!जिसने अपने को पहचाना वह संसार से फिर कुछ भी नहीं मांगता। क्योंकि यहां कुछ मांगने जैसा है ही नहीं।

जिसने अपने कोपहचाना, उसे वह सब मिल जाता है जो मांगा था, नहीं मांगा था। और जो मांगता ही चलता है, उसे कुछ भी नहीं मिलता है।

      जिनसूत्रओशो

OSHO कभी-कभी नहीं, सदा ही ज्ञानी साथ-साथ रोता और हंसता है। हंसता है अपने को देखकर, रोता है तुम्हें देखकर। हंसता है यह देखकर, कि जीवन की संपदा कितनी

कभी-कभी नहीं, सदा ही ज्ञानी साथ-साथ रोता और हंसता है। हंसता है अपने को देखकर, रोता है

तुम्हें देखकर। हंसता है यह देखकर, कि जीवन की संपदा कितनी सरलता से उपलब्ध है। रोता है यह देखकर, कि करोड़ों-करोड़ों लोग व्यर्थ ही निर्धन बने हैं।

हंसता है यह देखकर कि सम्राट होना बिलकुल सुगम था और रोता हैयह देखकर कि फिर क्यों अरबों लोग भिखारी बने हैं?जिसे तुम पाकर ही पैदा हुए हो, जिसे तुमने कभी खोया नहीं,

जिसे तुम चाहो तो भी खो न सकोगे, जिसे खोने का उपाय ही नहीं है, उसे तुमने खो दिया है यह देखकर रोता है।यह देखकर हंसता है, कि जो मुझे मिल गया है, उससे मिलाने के लिए कुछ भी करने की कभी कोई जरूरत न थी।

कहीं जाने की, किसी यात्रा की कोई जरूरत न थी। यह देखकर हंसता है कि सभी मेरे भीतर था और मैं कैसे चूकता रहा!और अचानक एक क्षण में आती है आंधी और सब कूड़ा-करकट उड़ जाता है। और भीतर परमात्मा विराजमान है।

तुम उसके मंदिरहो।तो जब भी भीतर देखता है, मुस्कुराता है; जब भी बाहर देखता है, उसकी आंखें आंसुओंसे भर जाती हैं।और ऐसा एक ज्ञानी के साथ नहीं होता, सभी ज्ञानियों के साथ होता है–और होगा ही।

इससे अन्यथा होने का उपाय नहीं है।इतना सरल है और इतना कठिन हो गया है!कबीर कहते हैं, कि मुझे हंसी आती है कि मछली पानी में क्यों प्यासी है?

चारों तरफ पानी ही पानी है, बाहर भीतर पानी ही पानी है; मछली पानी में ही पैदा होती है,पानी में ही जीती है, पानी में ही लीन होजाती है; फिर भी प्यासी!
    
    तो कबीर कहते हैं,

“मुझे आवै हांसी”; मुझे बड़ी हंसी आती है।आदमी परमात्मा में ही पैदा होता है, जैसे परमात्मा सागर हो तुम्हारे चारोंतरफ–और चारों तरफ ही नहीं, भीतर भी। वही हो भीतर, वही हो बाहर और फिर भी तुम अतृप्त रह जाओ।

अहर्निश उसका नाद बज रहा हो और तुम्हें धुन भी न सुनाई पड़े, एक कण भी तुम्हारे कानों में न आए। चारों ओर उसी के फूल खिलते हों

और तुम्हें कोई सुगंध न मिले। सब तरफ उसी की रोशनी हो और तुम अंधे ही बने रहो और अपने अंधेरे में ही जी लो।इस उलझन को देखकर ज्ञानी हंसता भी है, रोता भी है।

तुम पर उसे दया भी आती है और तुम्हारी अत्यंत हास्यास्पद स्थिति देखकर वह हैरान भी होता है।और इसलिए अक्सर ज्ञानी पागल मालूम होगा। क्योंकि तुम उस आदमी को भी समझ सकते हो, जो रोता हो–दुखी होगा।

तुम उस आदमी को भी समझ सकते हो, जो हंसताहै–सुखी होगा। वह आदमी तुम्हारी समझ के बाहर हो जाता है, जो हंसता भी है, रोता भी है साथ-साथ!अलग-अलग तुम समझ लेते हो। तुम भी हंसे हो, तुम भी रोए हो। हंसे हो, जब प्रसन्न थे;

एक मनोदशा थी। रोए हो, जब दुखी थे; एकदूसरी मनोदशा थी। कभी दिन था, कभी रात थी; कभी सुख था, की दुख था; कभी खिले थे, कभी मुरझा गए थे। उन दोनों स्थितियों को तुम जानते हो; लेकिन दोनों साथ-साथ तो तुमने या तो पागल में देखी हैं,

या ज्ञानी में देखी हैं।पागलखाने में जाओ तो तुम्हें पागल कभी-कभी, हंसते-रोते, साथ-साथ मिल जाएंगे। और ज्ञानी में फिर यही घटना घटती है।तो ज्ञानी पागल जैसा लगता है।

इसलिए बहुत बार ज्ञानियों से हम वंचित ही रह गए हैं। क्योंकि बेबूझ मालूम पड़ती है, वह जो कहता है, पहेलियां मालूम होती हैं। वह जो कहता है, उससे कुछ सुलझता नहीं, और उलझता मालूम पड़ता है।

उसे देखकर ऐसा नहीं लगता है, कि कोई समाधान मिल जाएगा। ऐसा लगता है, कि तुम वैसे ही उलझे थे, इसे देखकर और उलझ जाओगे।हंसता और रोता है साथ-साथ, इसका गहरा अर्थ है। इसका अर्थ है, कि जिनको तुमने अब तक विपरीत की तरह जाना है,

ज्ञानी उन्हें एक की तरह जानता है। उपनिषद कहते हैं, “एकं सत विप्रा बहुधा वदंति”। एक ही सत्य है; जानने वालों ने उसे बहुत ढंग से कहा। एक ही अवस्था है जीवन की, अभिव्यक्ति बहुत तरह से हो सकती है।वही रोता है, वही हंसता है; वह एक ही है–एकं सत। वह सत्य एक ही है, जो हंसता है और रोता है।

जो दुखी होता है, जो सुखीहोता है, वह एक ही है।लेकिन तुम कभी उसे देख नहीं पाए। या तो तुमने उसे दुखी देखा, जब दुखी देखा, तब तुम सुख को भूल गए। और जब तुमने उसे सुखी देखा, तब तुम दुख को भूल गए। इसलिए तुम्हारे जीवन में अधूरापन है।

तुम उसे अखंड न देख पाए, कि वही हंसता है, वही रोता है। और अगर तुम यह देख पाओ कि वही हंसता है, वही रोता है, तो तुम दोनोंके पार हो गए। हंसना एक भाव-दशा रह गई, रोना भी एक भाव-दशा रह गई, तुम साक्षी हो गए। तुम जाग गए।तो ज्ञानी जागता है।

उस जागने में सभी अवस्थाएं सम्मिलित हो जाती हैं एक साथ। तुम खंड-खंड हो, ज्ञानी अखंड है। इसलिए ज्ञानी के सुख में भी तुम दुख की छाया पाओगे। और ज्ञानी के दुख में भी तुम सुख का रंग देखोगे।

      ��ओशो��
कहे कबीर दीवाना–प्रवचन–16

तुम अपने प्रेम को शुद्ध करो। तुम उसे प्रार्थना बनाओ। तुम दो ,और मांगने की इच्छा मत करो। और तुम जिसे दो, उस पर कब्जा न करो। और तुम जिसे दो, उस से अपेक्षा धन्यवाद की भी मत करो।

तुम अपने प्रेम को शुद्ध करो। तुम उसे प्रार्थना बनाओ। तुम दो ,और मांगने की इच्छा मत करो। और तुम जिसे दो, उस पर कब्जा न करो। और तुम जिसे दो, उस से अपेक्षा धन्यवाद की भी मत करो।

उतनी अपेक्षा भी सौदा है। और तुम दो, क्योंकितुम्हारे पास है। और मैं तुम से कहता हूं कि तुम अगर दोगे, तो हजार गुना तुम्हारे पास आएगाःमगर मांगो मत। भिखमंगों के पास नहीं आता है, सम्राटों के पास आता है।

जो मांगते हैं उनके पास नहीं आता। तुम मांगो ही मत। एक बार यह भी तो प्रयोग करके देखो कि तुम चाहो और दो, मगर मांगो मत।नेकी कर और कुएं में डाल। पीछे लौटकर ही मत देखो, धन्यवाद की भी प्रतीक्षा मतकरो।

और तुम पाओगे, कितने लोग तुम्हारे निकट आते हैं! कितने लोग तुम्हारे प्रेम के लिए आतुर हैं! कितने लोग तुम्हारे पास बैठना चाहते है! कितने लोग तुम्हारी मौजूदगी से अनुगृहीत हैं!

दुनिया में प्रेम बहुत शक्तिशाली संजीवनी है; प्रेम से अधिक कुछ भी गहरा नहीं जाता। यह सिर्फ शरीर का ही उपचार नहीं करता, सिर्फ मन का ही नहीं, बल्कि आत्मा का भी उपचार करता है।

यदि कोई प्रेम कर सके तो उसके सभी घाव विदा हो जाएंगे।तब तुम पूर्ण हो जाते हो--और पूर्ण होना पवित्र होना है। अब जब तक कि तुम पूर्ण नहीं हो, तुम पवित्र नहीं हो।

शारीरिक स्वास्थ्य सतही घटना है। यह दवाई के द्वारा भी हो सकता है, यह विज्ञान के द्वारा भी हो सकता है।लेकिन किसी का आत्यंतिक मर्म प्रेम से ही स्वस्थ हो सकता है।

वे जो प्रेम का रहस्य जानते हैं वे जीवन का महानतम रहस्य जानते हैं। उनके लिए कोई दुख नहीं बचता, कोई बुढ़ापा नहीं, कोई मृत्यु नहीं।

निश्चित ही शरीर बूढ़ा होगा और शरीर मरेगा, लेकिन प्रेम यह सत्य तुम पर प्रगट करता है कि तुम शरीर नहीं हो।तुम शुद्ध चेतना हो, तुम्हारा कोई जन्म नहीं है, कोई मृत्यु नहीं है। और उस शुद्ध चेतना में जीना जीवन की संगति में जीना है.........

        �ओशो

मंत्र का अर्थ है: किसी चीज को बार—बारदोहराना। यह सूत्र कह रहा है: चित्त ही मंत्र है—चित्त मंत्र:। यह कहता है, औरकिसी मंत्र की जरूरत नहीं;

मंत्र का अर्थ है: किसी चीज को बार—बारदोहराना। यह सूत्र कह रहा है: चित्त ही मंत्र है—चित्त मंत्र:। यह कहता है, औरकिसी मंत्र की जरूरत नहीं;

अगर तुम चित्त को समझ लो तो चित्त की प्रक्रियाही पुनरुक्ति है। तुम्हारा मन कर क्या रहा है जन्मों—जन्मों से—सिर्फ दोहरा रहा है।

सुबह से सांझ तक तुम करते क्या हो—रोज वही दोहराते हो, जो तुमने कल किया था, जो परसों किया था,

वहीतुम आज कर रहे हो; वही तुम कल भी करोगे, अगर न बदले। और तुम जितना वही करते जाओगे उतनी ही पुनरुक्ति प्रगाढ होती जायेगी और तुम झंझट में इस तरह फंस जाओगे कि बाहर आना मुश्किल हो जायेगा।

लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि सिगरेट नहीं छूटती। सिगरेट मंत्र बन गयी है। उन्होंने इतनी बार दोहराया है—दिन में दो पैकेट पी रहे है। इसका मतलब हुआ कि चौबीस बार दोहरा रहे है; बीस बार दोहरा रहे हैं, बार—बार दोहराया है और सालों से दोहरा रहे है;

आज अचानक छोड़ देना चाहते हैं। लेकिन जोचीज मंत्र बन गयी, उसको अचानक नहीं छोड़ाजा सकता। तुम छोड़ दोगे इससे क्या फर्क पड़ता है;

पूरा मन मांग करेगा। पूरा शरीर उसको दोहरायेगा। वह कहेगा—चाहिए। उसी को तुम तलफ कहते हो। तलफ का मतलब हुआ कि जिस चीज को तुमने मंत्र बना लिया,

उसे अचानक छोड़ना चाहते हो—यह नहीं हो सकता। तलफ का मतलब है किजो चीज मंत्र बन गयी है, उसके विपरीत मंत्र से तोड़ना होगा।

रूस में पावलव ने इस पर बहुत काम किया। और पावलव अकेला आदमी है, जिसने तलफ वालेमरीजों को ठीक करने में सफलता पायी।

अगर आप सिगरेट पीने के रोगी हो गये हैं छोड़ना चाहते हैं और नहीं छूटती तो पावलव मंत्र का प्रयोग करता था। उसके मंत्र जरा तेज थे।

वह आपको सिगरेट देगाऔर जैसे ही आप सिगरेट हाथ में लेंगे, आपको बिजली का शाक लगेगा; झनझना जायेगीपूरी तबीयत, सिगरेट हाथ से छूट जायेगी।

ऐसा सात दिन आपको पावलव भरती रखेगा अपने अस्पताल में और जब भी आप सिगरेट पियेंगे, तब बिजली का शाक लगेगा।

सात दिन में मंत्र सिगरेट से ज्यादा गहरा हो जायेगा। सिगरेट का नाम ही सुनकर आपको कंपकंपी आने लगेगी। पीने का रस तोदूर, एक वैराग्य का उदय हो जायेगा।

पावलव ने हजारों मरीज विपरीत मंत्र से ठीक किये। और पावलव कहता है कि जो लोग भी आदतों से ग्रस्त हो गये हैं,

जब तक उनको विपरीत आदतें न दी जायें, जो पहली आदत से ज्यादा मजबूत हों तब तक कोई छुटकारा नहीं।

शिव–सूत्र–प्रवचन–4चित्त के अतिक्रमण के उपाय—(प्रवचन—चौथा)

OSHO कभी-कभी नहीं, सदा ही ज्ञानी साथ-साथ रोता और हंसता है। हंसता है अपने को देखकर, रोता है तुम्हें देखकर। हंसता है यह देखकर, कि जीवन की संपदा कितनी

कभी-कभी नहीं, सदा ही ज्ञानी साथ-साथ रोता और हंसता है। हंसता है अपने को देखकर, रोता है

तुम्हें देखकर। हंसता है यह देखकर, कि जीवन की संपदा कितनी सरलता से उपलब्ध है। रोता है यह देखकर, कि करोड़ों-करोड़ों लोग व्यर्थ ही निर्धन बने हैं।

हंसता है यह देखकर कि सम्राट होना बिलकुल सुगम था और रोता हैयह देखकर कि फिर क्यों अरबों लोग भिखारी बने हैं?जिसे तुम पाकर ही पैदा हुए हो, जिसे तुमने कभी खोया नहीं,

जिसे तुम चाहो तो भी खो न सकोगे, जिसे खोने का उपाय ही नहीं है, उसे तुमने खो दिया है यह देखकर रोता है।यह देखकर हंसता है, कि जो मुझे मिल गया है, उससे मिलाने के लिए कुछ भी करने की कभी कोई जरूरत न थी।

कहीं जाने की, किसी यात्रा की कोई जरूरत न थी। यह देखकर हंसता है कि सभी मेरे भीतर था और मैं कैसे चूकता रहा!और अचानक एक क्षण में आती है आंधी और सब कूड़ा-करकट उड़ जाता है। और भीतर परमात्मा विराजमान है।

तुम उसके मंदिरहो।तो जब भी भीतर देखता है, मुस्कुराता है; जब भी बाहर देखता है, उसकी आंखें आंसुओंसे भर जाती हैं।और ऐसा एक ज्ञानी के साथ नहीं होता, सभी ज्ञानियों के साथ होता है–और होगा ही।

इससे अन्यथा होने का उपाय नहीं है।इतना सरल है और इतना कठिन हो गया है!कबीर कहते हैं, कि मुझे हंसी आती है कि मछली पानी में क्यों प्यासी है?

चारों तरफ पानी ही पानी है, बाहर भीतर पानी ही पानी है; मछली पानी में ही पैदा होती है,पानी में ही जीती है, पानी में ही लीन होजाती है; फिर भी प्यासी!
    
    तो कबीर कहते हैं,

“मुझे आवै हांसी”; मुझे बड़ी हंसी आती है।आदमी परमात्मा में ही पैदा होता है, जैसे परमात्मा सागर हो तुम्हारे चारोंतरफ–और चारों तरफ ही नहीं, भीतर भी। वही हो भीतर, वही हो बाहर और फिर भी तुम अतृप्त रह जाओ।

अहर्निश उसका नाद बज रहा हो और तुम्हें धुन भी न सुनाई पड़े, एक कण भी तुम्हारे कानों में न आए। चारों ओर उसी के फूल खिलते हों

और तुम्हें कोई सुगंध न मिले। सब तरफ उसी की रोशनी हो और तुम अंधे ही बने रहो और अपने अंधेरे में ही जी लो।इस उलझन को देखकर ज्ञानी हंसता भी है, रोता भी है।

तुम पर उसे दया भी आती है और तुम्हारी अत्यंत हास्यास्पद स्थिति देखकर वह हैरान भी होता है।और इसलिए अक्सर ज्ञानी पागल मालूम होगा। क्योंकि तुम उस आदमी को भी समझ सकते हो, जो रोता हो–दुखी होगा।

तुम उस आदमी को भी समझ सकते हो, जो हंसताहै–सुखी होगा। वह आदमी तुम्हारी समझ के बाहर हो जाता है, जो हंसता भी है, रोता भी है साथ-साथ!अलग-अलग तुम समझ लेते हो। तुम भी हंसे हो, तुम भी रोए हो। हंसे हो, जब प्रसन्न थे;

एक मनोदशा थी। रोए हो, जब दुखी थे; एकदूसरी मनोदशा थी। कभी दिन था, कभी रात थी; कभी सुख था, की दुख था; कभी खिले थे, कभी मुरझा गए थे। उन दोनों स्थितियों को तुम जानते हो; लेकिन दोनों साथ-साथ तो तुमने या तो पागल में देखी हैं,

या ज्ञानी में देखी हैं।पागलखाने में जाओ तो तुम्हें पागल कभी-कभी, हंसते-रोते, साथ-साथ मिल जाएंगे। और ज्ञानी में फिर यही घटना घटती है।तो ज्ञानी पागल जैसा लगता है।

इसलिए बहुत बार ज्ञानियों से हम वंचित ही रह गए हैं। क्योंकि बेबूझ मालूम पड़ती है, वह जो कहता है, पहेलियां मालूम होती हैं। वह जो कहता है, उससे कुछ सुलझता नहीं, और उलझता मालूम पड़ता है।

उसे देखकर ऐसा नहीं लगता है, कि कोई समाधान मिल जाएगा। ऐसा लगता है, कि तुम वैसे ही उलझे थे, इसे देखकर और उलझ जाओगे।हंसता और रोता है साथ-साथ, इसका गहरा अर्थ है। इसका अर्थ है, कि जिनको तुमने अब तक विपरीत की तरह जाना है,

ज्ञानी उन्हें एक की तरह जानता है। उपनिषद कहते हैं, “एकं सत विप्रा बहुधा वदंति”। एक ही सत्य है; जानने वालों ने उसे बहुत ढंग से कहा। एक ही अवस्था है जीवन की, अभिव्यक्ति बहुत तरह से हो सकती है।वही रोता है, वही हंसता है; वह एक ही है–एकं सत। वह सत्य एक ही है, जो हंसता है और रोता है।

जो दुखी होता है, जो सुखीहोता है, वह एक ही है।लेकिन तुम कभी उसे देख नहीं पाए। या तो तुमने उसे दुखी देखा, जब दुखी देखा, तब तुम सुख को भूल गए। और जब तुमने उसे सुखी देखा, तब तुम दुख को भूल गए। इसलिए तुम्हारे जीवन में अधूरापन है।

तुम उसे अखंड न देख पाए, कि वही हंसता है, वही रोता है। और अगर तुम यह देख पाओ कि वही हंसता है, वही रोता है, तो तुम दोनोंके पार हो गए। हंसना एक भाव-दशा रह गई, रोना भी एक भाव-दशा रह गई, तुम साक्षी हो गए। तुम जाग गए।तो ज्ञानी जागता है।

उस जागने में सभी अवस्थाएं सम्मिलित हो जाती हैं एक साथ। तुम खंड-खंड हो, ज्ञानी अखंड है। इसलिए ज्ञानी के सुख में भी तुम दुख की छाया पाओगे। और ज्ञानी के दुख में भी तुम सुख का रंग देखोगे।

      ��ओशो��
कहे कबीर दीवाना–प्रवचन–16

OSHO धार्मिक लोगों ने कैसी-कैसी तरकीबें निकाली हैं। पाप करते हैं गंगा में स्नान कर आते हैं।

धार्मिक लोगों ने कैसी-कैसी तरकीबें निकाली हैं।
पाप करते हैं गंगा में स्नान कर आते हैं।

अब गंगा में स्नान करने का और पाप के मिटने से क्या संबंध हो सकता है!
दूर का भी कोई संबंध नहीं हो सकता। गंगा का कसूर क्या है,

पाप तुमने किया! और ऐसे अगर गंगा धो-धोकर सबके पाप लेती रही, तो गंगा के लिए तो नर्क में भी जगह न मिलेगी।
इतने पाप इकट्ठे हो गए होंगे!

और अगर इतना ही आसान हो-पाप तुम करो, गंगा में डुबकी लगा आओ और पाप हल हो जाएं-तब तो पाप करने में बुराई ही कहा रही?

सिर्फ गंगा तक आने-जाने का श्रम है। तो जो गंगा के किनारे ही रह रहे हैं, उनका तो फिर कहना ही क्या!तुमने तीर्थ बना लिए।

तुमने छोटे-छोटेपुण्य की तरकीबें बना लीं, ताकि बड़े-बड़े पापों को तुम झुठला दो, भुला दो। छोटा-मोटा अच्छा काम कर लेते हो,

अस्पताल को दान दे देते हो-दान उसी चोरी में से देते हो जिसका प्रायश्चित्त कर रहे हो-लाख की चोरी करते हो, दस रुपया दान देते हो। लेकिन लाख की चोरी को दस रुपए के दान में ढांक लेना चाहते हो!

तुम किसे धोखा दे रहे हो?या, इतना भी नहीं करता कोई। रोज सुबह बैठकर पांच-दस मिनट माला जप लेता है। माला के गुरिए सरका लेता है, सोचता है हल हो गया।

या राम-राम जप लेता है। या रामनाम छपी चदरिया ओढ़ लेता है। सोचता है मामला हल हो गया। जैसे राम पर कुछ एहसान हो गया।

अब राम समझें! चदरिया ओढ़ी थी। कहने को अपने पास बात हो गई। मंदिर गए थे, हिसाब रख लिया है।

जीवन अंधेरे से भरा रहे और प्रकाश की ज्योति भी नहीं जलती! सिर्फ अंधेरी दीवालों पर तुम प्रकाश शब्द लिख देते हो, या दीए के चित्र टल देते हो।

प्यास लगी हो तो पानी शब्द से नहीं बुझती। अंधेरा हो तो दीए शब्द से नहीं मिटता।मंजरे-तस्वीर दर्दे-दिल मिटा सकता नहीं,आईना पानी तो रखता है पिला सकता नहीं..

ओशो, एस धम्मो सनंतनो, भाग -2

ताओ उपनिषाद ( भाग-३) लाओत्से भी ठीक कृष्ण से सहमत है। लाओत्से कहता है, “वह युद्ध करता है, लेकिन हिंसा से प्रेम नहीं करता।’और फिर एक बात कहता है, जो बड़े मतलब की है,


“चीजें अपना शिखर छूकर फिर गिरावट को उपलब्ध हो जाती हैं।’लाओत्से कहता है, विजय अगर तुमने पा ली, तोजल्दी ही तुम हारोगे।

इसलिए विजय पाना मत, विजय को शिखर तक मत ले जाना। किसी चीज को इतना मत खींचना कि ऊपर जाने का फिर उपाय ही न रह जाए।

फिर नीचे ही गिरना रह जाता है। लाओत्से कहता है, सदा बीच में रुक जाना।अतिवादी कभी बीच में नहीं रुकता, खींचता जाता है। और एक जगह आती है, जहां से फिर नीचे उतरने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रह जाता।

आखिर हर शिखर से उतराव होगा ही। लेकिन लाओत्से की बात किसी ने भी नहीं सुनी है कभी। सभी सभ्यताएं अति कर जाती हैं; एक शिखर पा लेती हैं, और गिर जाती हैं।

कितनी सभ्यताएं शिखर छूकर गिर चुकी हैं! फिर भी वह दौड़ नहीं रुकती। बेबीलोन, असीरिया, मिस्र अब कहां हैं? एक बड़ा शिखर छुआ, फिर नीचे गिर गए

अभी भी वैज्ञानिक कहते हैं कि इजिप्त के जो पिरामिड्स हैं, उतने बड़े पत्थर किस भांति चढ़ाए गए, यह अभी भी नहीं समझा जा सकता।

कुछ पत्थर गिजेह के पिरामिड में इतने बड़े हैं कि हमारे पास जो बड़ी से बड़ी क्रेन है, वह भी उन्हें उठा कर ऊपर नहीं चढ़ा सकती।

बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है! तो फिर इजिप्त उनको आज से कोई छह हजार साल पहले, सात हजार साल पहले, कैसे चढ़ा सका? अब तक यही समझा जाता था कि आदमियों के सहारे। लेकिन उस पत्थर को चढ़ाने के लिए तेईस हजार आदमियों की एक साथ जरूरत पड़ेगी।

तो उनके हाथ ही नहीं पहुंच सकते पत्थर तक। तेईस हजार आदमी एक पत्थर को उठाएंगे कैसे? क्या राज रहा होगा?

वे पत्थर कैसे चढ़ाए गए?इजिप्त की पुरानी किताबें कहती हैं कि इजिप्त ने ध्वनि की कीमिया खोज ली थी। और एक विशेष ध्वनि करते ही पत्थर ग्रेविटेशन खो देते थे; उनका जो वजन है, वह खो जाता था।

आज कहना मुश्किल है कि यह कहां तक सही है। लेकिन और कोई उपाय भी नहीं है सिवाय यह मानने के कि उन्होंने कुछ मंत्र का, कुछ ध्वनि का उपाय खोज लियाथा।

चारों तरफ एक विशेष ध्वनि करने से एंटी-ग्रेविटेशन, जो गुरुत्वाकर्षण है, उसकी विपरीत स्थिति पैदा हो जाती थी, और पत्थर उठाया जा सकता था।

यहां पूना के पास, कोई पचास मील दूर, सिरपुर में एक पत्थर है। एक मस्जिद के पास पड़ा हुआ है।

जिस दरवेश की, जिस फकीर की वह मजार है, नौ आदमी, ग्यारह आदमी अपनी छिगलियां उस पत्थर में लगा दें और फकीर का नाम लें जोर से, तो अंगुलियों के सहारेवह बड़ा पत्थर उठ आता है सिर के ऊपर तक। बिना नाम लिए ग्यारह आदमी कितनी ही कोशिशकरें, वह पत्थर हिलता भी नहीं।

पर एक क्षणको वह पत्थर ग्रेविटेशन खो देता है। वैज्ञानिक उसका अध्ययन करते रहे, लेकिन अब तक उसकी कोई बात साफ नहीं हो सकी कि मामला क्या है।

उस फकीर के नाम में कोई ध्वनि, आस-पास पत्थर के, निर्मित हो जाती है और पत्थर उठ जाता है।पर जिन्होंने ध्वनि के सहारे इतने बड़े पत्थर पिरामिड पर चढ़ाए होंगे, वे आज कहां हैं? वे खो गए। एक शिखर छुआ।

आज पिरामिड खड़े रह गए हैं, लेकिन उनको बनाने वालों काकुछ भी पता नहीं रहा। असीरिया, बेबीलोन, सब खो गए, जहां सभ्यता जनमी।प्लेटो ने अपने संस्मरणों में लिखा है किइजिप्त से यात्रा करके लौटे हुए एक व्यक्ति ने बताया कि इजिप्त के मंदिर के बड़े पुजारी ने, सोलन ने, उसे बताया है कि कभी एक महाद्वीप परम सभ्यता को उपलब्ध होगया था।

अटलांटिस उस महाद्वीप का नाम था; फिर वह पूरी सभ्यता के साथ समुद्र में खो गया। क्यों खो गया, इसका कोई कारण आज तक नहीं खोजा जा सका। लेकिन जो भी मनुष्य जान सकता है,

वह अटलांटिस की सभ्यता ने जान लिया था। खो जाने का क्या कारण होगा, इस पर लोग चिंतन करते हैं। हजारों किताबें लिखी गई हैं

अटलांटिस पर। और अधिक लोगों का यही निष्कर्ष है कि अटलांटिस ने इतनी विज्ञान की क्षमता पा ली कि अपने ही विज्ञान के शिखर से गिरने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह गया।

वह अपनी ही जानकारी के भार से डूब गया। या तो कोई विस्फोट उसने कर लिया अपनी ही जानकारी से, जैसा आज हम कर सकते हैं।

आज कोई पचास हजार उदजन बम अमरीका और रूस के तहखानों में इकट्ठे हैं।

अगर जरा सी भी भूल हो जाए और इनका विस्फोट हो जाए, तो अटलांटिस नहीं, पूरी पृथ्वी बिखर जाएगी।

इसलिए आज जहां-जहां एटम बम इकट्ठे हैं, उनकी तीनत्तीन चाबियां–क्योंकिएक आदमीका दिमाग जरा खराब हो जाए, गुस्सा आ जाए,

किसी का पत्नी से झगड़ा हो जाए और वह सोचे कि खतम करो इस दुनिया को–तो तीनत्तीन चाबियां रखी हुई हैं कि जब तक तीन आदमी राजी न हों, तब तक कुछ भी नहीं किया जा सकता।

लेकिन तीन आदमी भी राजी हो सकते हैं। तीन आदमी राजी हो सकते हैं, सारी पृथ्वी मिटाई जा सकती है।अटलांटिस पूरा डूब गया शिखर को पाकर। खयाल यह है कि उसका ज्ञान ही उसकी मृत्यु का कारण बना।

अभी इस तरह के पत्थर मिलने शुरू हुए हैं सारी दुनिया में। अब तक उन पत्थरों पर खुदी हुई तस्वीरों का कुछ अंदाज नहीं लगता था।

लेकिन अब लगता है। अभी आपके जो चांद से यात्री आकर लौटे हैं, वे जिस तरह का नकाब पहनते हैं और जिस तरह के वस्त्र पहनते हैं,

उस तरह के वस्त्र और नकाब पहनेहुए दुनिया के कोने-कोने में पत्थरों पर मूर्तियां हैं और चित्र हैं।

अब तक हम जानते भी नहीं थे कि ये क्या हैं। लेकिन अब बड़ी कठिनाई है।

जिन लोगों ने ये चित्र खोदे हैं पत्थरों पर, उन्होंने अगर अंतरिक्ष यात्री न देखे हों, तो ये चित्र खोदे नहीं जा सकते।

और अगर ये दस-दस हजार साल पुराने चित्र पत्थरों पर जो खुदे हैं, अगर इन्होंने भी अंतरिक्ष यात्री देखे हैं, तो सभ्यताएं हमसे भी पहले काफी यात्राएं कर चुकी हैं,

शिखर छू चुकी हैं।मैक्सिको में कोई बीस मील के बड़े पहाड़ पर चित्र खुदे हुए हैं। वे चित्र ऐसे हैं कि नीचे से तो देखे ही नहीं जा सकते;

क्योंकिउनका विस्तार बहुत बड़ा है। बीस मील की सीमा में वे चित्र खुदे हुए हैं, और एक-एक चित्र मीलों तक फैला है।

तो नीचे से तो उनको देखने का ही उपाय नहीं है; उनको देखने के लिए सिवाय हवाई जहाज के कोई उपाय नहीं है।

और वे चित्र कोई पंद्रह हजार वर्ष पुराने हैं।तो अब बड़ी कठिनाई है यह कि या तो जिन्होंने चित्र खोदे थे,

उन्होंने हवाई जहाज के यात्रियों को देखने के लिए खोदे थे। और अगर हवाई जहाज नहीं था पंद्रह हजार साल पहले, तो इन चित्रों को खोदना भीमुश्किल है।

इनके खोदने का कोई प्रयोजन भी नहीं है। क्योंकि इनको कोई देख ही नहीं सकेगा जमीन पर। इतनी दूरी से ही वे चित्र दिखाई पड़ सकते हैं!

तो वैज्ञानिक कठिनाई में हैं कि अगर हम यह मानें कि पंद्रह हजार साल पहले हवाई जहाज था, तो हमें यह भ्रांति छोड़ देनी पड़ेगी कि हमने ही पहली दफा हवाई जहाज निर्मित कर लिया है।

अगर पंद्रह हजार साल पहले हवाई जहाज था, तो सभ्यताएं हमसे पहले भी शिखर पा चुकी हैं।वे सभ्यताएं कहां हैं आज? आज उनका कोई नामलेवा भी नहीं है।

आज उनका कुछ निशान भी नहीं छूट गया है। ये भी अनुमान हैं हमारे। इनके बाबत भी कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता।

लाओत्से कहता है, सभी चीजें शिखर पर जाकर नीचे गिर जाती हैं। सभी चीजें! विजय भी शिखर पर जाकर गिर जाती है। सफलता भी शिखर पर जाकर गिर जाती है।

यश भी शिखर पर जाकर गिर जाता है।लाओत्से कहता है, इसलिए बुद्धिमान आदमी कभी किसी चीज को शिखर तक नहीं खींचता। वह गिरने का उपाय है।

वह अपने हाथ नीचे उतर आने की व्यवस्था है।

     -ओशो