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Monday, 21 March 2016

हर कोई है मस्ती का हकदार सखा होली में मौसम करता रंगो की बौछार सखा होली में

हर कोई है मस्ती का हकदार सखा होली में
मौसम करता रंगो की बौछार सखा होली में

मस्तानी लगती है हर नार सखा होली में
बूढ़े भी होते है दमदार सखा होली में

घोंटें हम मिलजुल भंग जब यार सखा होली में
मिट जाती तब सारी तकरार सखा होली में

सास नन्द देवर कब रहते रिश्तेदार सखा होली में
बन जाते सब ही तो हैं बस यार सखा होली में

बस इक बात यही लगे हमको बेकार सखा होली में
क्यों लेकर आती बजट मुई सरकार सखा होली

-डॉ. श्याम सखा श्याम

ક્યારેક શેરી મ્હોલ્લામાં "ઉજવાતી" હતી, આજે પાર્ટી-પ્લોટમાં"રમાતી" થઈ ગઈ.

ક્યારેક શેરી મ્હોલ્લામાં "ઉજવાતી" હતી,

આજે પાર્ટી-પ્લોટમાં"રમાતી" થઈ ગઈ...

આ હોળી "બિચારી" થઈ ગઈ...

ક્યારેક દિયર-ભાભીની વચ્ચે ખૂબ પ્રેમથી"ઉજવાતી" હતી,

આજે બોયફ્રેન્ડ-ગર્લફ્રેન્ડમાં"રમાતી" થઈ ગઈ..

આ હોળી "બિચારી" થઈ ગઈ..

.ક્યારેક 'ફાગ'રૂપે "ગવાતી" હતી,આજે ડી.જે.માં "ખોવાઇ" ગઈ..

આ હોળી "બિચારી" થઈ ગઈ...

ક્યારેક ખજુર-ધાણી-ચણા "સેવ-મમરા" સાથે"ખવાતી" હતી ,

આજે "save environment" અને "save water" સાથે "ચવાઈ" ગઈ...

આ હોળી "બિચારી" થઈ ગઈ...

ક્યારેક અબીલ-ગુલાલ- કેશુડે "રંગાતી" હતી

આજે "કેમિકલના રંગોમાં "ડઘાઈ" (ડાઘવાળી) ગઈ...

આ હોળી "બિચારી" થઈ ગઈ...ક્યારેક આગમાં "પ્રગટતી" હતી ,આજે શબ્દોમાં ગંઠાતી થઈ ગઈ....

આ હોળી "બિચારી" થઈ ગઈ...

ક્યારેક કલમ-ખડિયા વડે ગ્રંથોમાં"વર્ણવાતી"આજે facebook પર લખાતી થઈ ગઈ....

આ હોળી "બિચારી" થઈ ગઈ...

अकबर एक राह से गुजरता था। एक शराबी ने बड़ी गालियां दीं मकान पर चढ़कर। नाराज हुआअकबर। पकड़वा बुलाया शराबी को। रातभर कैद में रखा। सुबह दरबार में बुलाया। वह शराबी

अकबर एक राह से गुजरता था। एक शराबी ने बड़ी गालियां दीं मकान पर चढ़कर। नाराज हुआअकबर। पकड़वा बुलाया शराबी को। रातभर कैद में रखा। सुबह दरबार में बुलाया। वह शराबी झुक-झुककर चरण छूने लगा।

उसने कहा,क्षमा करें। वे गालियां मैंने न दी थीं।अकबर ने कहा, मैं खुद मौजूद था। मैं खुद राह से गुजरता था। गालियां मैंने खुद सुनी हैं। किसी और गवाह की जरूरत नहीं।

उस शराबी ने कहा, उससे मैं इंकार नहीं करता कि आपने सुनी हैं। आपने जरूर सुनी होंगी, लेकिन मैंने नहीं दीं। मैं शराब पीए था। मैं होश में न था। अब बेहोशी के लिए मुझे तो कसूरवार न ठहराओगे! शराब से निकली होंगी, मुझसे नहीं निकलीं। जब से होश आया है, तब से पछता रहा हूं।तुमने जो कुछ किया है, बेहोशी में किया है।

जब होश आएगा, पछताओगे। तुमने जो बसाया है, बेहोशी में बसाया है। जब होश आएगा तब तुम पाओगे, रेत पर बनाए महल। इंद्रधनुषों के साथ जीने की आशा रखी।

कामनाओं के सेतु फैलाए, कि शायद उन से सत्य तक पहुंचने का कोई उपाय हो जाए। तुम्हारी तंद्रा में ही तुम्हारे सारे संसार का विस्तार है।

ओशो, एस धम्मो सनंतनो,
भाग -3,
प्रवचन -21

मैंने सुना है, अमरीका का एक बहुत बड़ा विचारक, अपनी वृद्धावस्था में दुबारा पेरिस देखने आया अपनी पत्नी के साथ। तीस साल पहले भी वे आए थे अपनी सुहागरात मनाने

मैंने सुना है, अमरीका का एक बहुत बड़ा विचारक, अपनी वृद्धावस्था में दुबारा पेरिस देखने आया अपनी पत्नी के साथ। तीस साल पहले भी वे आए थे अपनी सुहागरात मनाने।

फिर तीस साल बाद जब अवकाशप्राप्त हो गया वह, नौकरी से छुटकारा हुआ, तो फिर मन में लगी रह गई थी, फिर पेरिस देखने आया।पेरिस देखा, लेकिन कुछ बात जंची नहीं।

वह जो तीस साल पहले पेरिस देखा था, वह जो आभा पेरिस को घेरे थी तीस साल पहले, वह कहीं खो गई मालूम पड़ती थी। धूल जम गई थी। वह स्वच्छता न थी, वह सौंदर्य न था, वह पुलक न थी। पेरिस बड़ा उदास लगा। पेरिस थोड़ा रोताहुआ लगा। आंखें आंसुओ से भरी थीं पेरिस की। वह थोड़ा हैरान हुआ।

उसने अपनी पत्नी से कहा, क्या हुआ पेरिस को? यह वह बात न रही, जो हमने तीस साल पहले देखी थी। वे रंगीनियां कहां! वह सौंदर्य कहां! वह चहल-पहल नहीं है। लोग थके-हारे दिखाई पड़ते हैं। सब कुछ एक अर्थ में वैसा ही है, लेकिन धूल जम गई मालूम पड़ती है।

पत्नी ने कहा, क्षमा करें, हम बूढ़े हो गए हैं। पेरिस तो वही है। तब हम जवान थे, हममें पुलक थी, हम नाचते हुए आए थे, सुहागरात मनाने आए थे। तो सारे पेरिस मेंहमारी सुहागरात फैल गई थी। अब हम थके-मांदे जिंदगी से ऊबे हुए मरने के लिएतैयार-तो हमारी मौत पेरिस पर फैल गई है।

पेरिस तो वही है।उन जोड़ों को देखें, जो सुहागरात मनाने आए हैं। उनके पैरों में अपनी स्मृतियों की पगध्वनियां सुनाई पड़ सकेंगी।

उनकी आंखोंसे झांकें, जो सुहागरात मनाने आए हैं; उन्हें पेरिस अभी रंगा-रंग है। अभी पेरिस किसी अनूठी रोशनी और आभा से भरा है। अपनी आंखें से मत देखें, तीस साल पहलेलौटें। तीस साल पहले की स्मृति को फिर से जगाएं।ठीक कहा उस पत्नी ने। पेरिस तो सदा वही है, आदमी बदल जाते हैं।

संसार तो वही है। तुम्हारी बदलाहट-और संसार बदल जाता है। संसार तुम पर निर्भर है। संसार तुम्हारा दृष्टिकोण है।

बुद्ध यह सूत्र क्यों कहते हैं? क्या प्रयोजन है? प्रयोजन है यह बताने का कि तुम यह मत सोचना कि संसार ने तुम्हें बांधा। तुम यह मत सोचना कि संसार ने तुम्हें दुखी किया। तुम यह मत सोचना कि संसार बहुत बड़ा है, कैसे पार पा सकूंगा? लोग कहते हैं, भवसागर है, कैसे पार पाएंगे?

ओशो,
एस धम्मो सनंतनो, भाग -2,
प्रवचन -21

બહુ જ કીમતી એ ઘળી નીકળી ગઈ હતી પળ બે પળ જિંદળી નીકળી ગઈ

બહુ જ કીમતી એ ઘળી નીકળી ગઈ

હતી પળ બે પળ જિંદળી નીકળી ગઈ

દિવસ થાય ને રાત આવે અહીં તો

કે મહિના વરસની લળી નીકળી ગઈ

ગયો ગર્વ ફૂલોનો પણ આજ જ્યારે

ખરી ને બધી જ પાંદળી નીકળી ગઈ

હતી ગોદ પર્વત તણી પળ બે પળની

વિવશ થૈ નદી બાપળી નીકળી ગઈ

કરી મેં સિતારા ને તારી ઘણી વાત

નયન આંસુંળે રાતળી નીકળી ગઈ

ન મળ્યો મને એક આ શબદ ‘પ્રેમ’

મગજથી લ્યો બારાખળી નીકળી ગઈ

મહેંકી ગયાં શ્વાસ મારા અંતઃ ના

હવા એમને બસ અડી નીકળી ગઈ

નહીં આ જ સપનાં કદી જોઉં તારા

કરી જીદ બસ બુંદ આંખળી નીકળી ગઈ
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परीक्षण प्रयोशालाओं की तस्वीरें आई हैं। अब वे फिल्म बनाने लगे हैं–सोते हुए आदमियों की। यदि आप अपनी फिल्म देखसकें कि आप सोते में कितनी गति कर रहे हैं, तो आप देखेंगे कि सारी रात आप

परीक्षण प्रयोशालाओं की तस्वीरें आई हैं। अब वे फिल्म बनाने लगे हैं–सोते हुए आदमियों की। यदि आप अपनी फिल्म देखसकें कि आप सोते में कितनी गति कर रहे हैं, तो आप देखेंगे कि सारी रात आप कितने परेशान है।

और आपके शरीर की गतियों से यह देखा जा सकता है कि भीतर काफी कुछ हो रहा है! चेहरे की बहुत सी आकृतियां बनती है, हाथों के, उंगलियों के व शरीर के अनगिनत हाथ-भाव होत हैं। अवश्य एक पागल आदमी आपके भीतर होना चाहिए, अन्यथा ये हाथ-भाव असंभव हैं।

परन्तु आपको कभी पता ही नहीं चलता कि आपको क्या हो रहा है। कोई सजग नहीं है। प्रत्येक सोया है, कोई भी जागा हुआ नहींहै। आपको पता ही नहीं है कि आप नींद में अपने शरीर केसाथ क्या कर रहे हैं। परन्तु वह करना मन के कारण है। एक अशांत चित्त ही शरीर के द्वारा प्रतिबिंबित हो रहा है।

एक बुद्ध मूर्तिवत बैठते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने शरीर को जबरन वैसेबिठलाया है। मन स्थिर हो गया है, और शरीर उसकी स्थिरता प्रतिबिंबित करता है, क्योंकि अन्य कुछ भी प्रतिबिंबित करने को नहीं है।

एक बार बुद्ध एक बड़ी राजधानी में अपने दस हजार भिक्षुओं के साथ ठहरे थे। वहां का राजा भी दिलचस्पीलेने लगा। किसी ने उससे कहा–आपको इस आदमी से मिलने के लिए अवश्य जाना चाहिए। उस राजा का नाम था अजातशत्रु, जिसका मतलब होता है कि उसका कोई शत्रु ही नहीं है।

इस जगत में, जिसका कोई शत्रु पैदा ही नहीं हुआ, और हो भी नहीं सकता। परन्तु यह अजातशत्रु अपने दुश्मनों से बहुत डरा हुआ रहता था।इसको दिलचस्पी पैदा हुई क्योंकि कई आदमी उसके पास आए और उन्होंने कहा–आपको अवश्य ही आना चाहिए और देखना चाहिए।

यह आदमी बड़ा विचित्र है। आएं औरदेखें।इसलिए वह आता है। वह उस कुंज में, उस बागमें पहुंचता है। शाम हो चुकी है। वह अपने मंत्रियों से पूछता है–तुम क्या सोचते हो? यहां पर दस हजार भिक्षु उपस्थित हैं, परन्तु कोई शोर सुनाई नहीं पड़ता! क्या तुम मुझे धोखा दे रहे हो? वह अपनी तलवार निकाल लेता है। वह सोचता है कि उसके साथ कोई धोखा करके उसको इस जंगल में लाया गया है और अब ये लोग उसे मारने जा रहे हैं।

दस हजार भिक्षु इन पेड़ों के पीछे हैं और कोई आवाज नहीं! जंगल बिलकुल शांत है और अजातशत्रु कहता है–मैं इस जंगल में कितनी बार आया हूं। यह पहले तो कभी भी इतना शांत नहीं था। जब यहां कोई भी नहीं था, तब भी यह इतना शांत नहीं था। अबचिड़ियां भी चुप हैं। क्या मतलब है तुम्हारा? क्या तुम मुझे धोखा देना चाहते हो?उन्होंने कहा, डरें नहीं। बुद्ध यहां ठहरे हैं। इसी कारण जंगल इतना शांत हो गया है और यहां तक कि चिड़ियां भी चुप हैं।

आप आ जाएं।वह आता है, परन्तु उसने अपनी तलवार अपनेहाथ में ले रखी है। वह डरा हुआ है और कांप रहा है और वे उसे जंगल में ले जा रहा हैं, जहां कि बुद्ध और दस हजार भिक्षु पेड़ों के नीचे बैठे हैं। प्रत्येक पत्थर की मूर्ति की तरह स्थिर है। वह बुद्ध से पूछता है–इन सब लोगों को क्या हो गया है? क्या ये मर गए हैं? मैं तो डर गया हूं। ये सब भूत जैसे लगते हैं। कोई हिलता तक नहीं इनकी आंखें तक भी नहीं हिलती।

क्या हो गया है इनको? बुद्ध कहते हैं–बहुत कुछ हो गया इनको। ये अब पागल नहीं रहे।जब तक कि कोई इतना शांत व स्थिर न हो जाएवह नहीं जान सकता कि अस्तित्व क्या है, जीवन का क्या अर्थ है, उसका क्या आनंद है, उसकी क्या अनुकंपा है।

ओशो,
आत्म पूजा उपनिषाद, भाग -1

तुमने कभी अपने साथ लुका-छिपी खेली? कभी तुमने ताशों का खेल खेला अकेले ही? कभी-कभी ट्रेन में मैं यात्रा करता था, तो कुछ लोग

तुमने कभी अपने साथ लुका-छिपी खेली? कभी तुमने ताशों का खेल खेला अकेले ही? कभी-कभी ट्रेन में मैं यात्रा करता था, तो कुछ लोग मिल जाते अकेले, मेरे डिब्बेमें होते। वे कहते,’’ आप साथ देंगे’’? ‘’मैं जरा और दूसरे खेल में लगा हूं, आप बाधा न दें’’। तो फिर वे अकेले ही ताश बिछा लेते।

अकेले ही दोनों तरफ से चालें चल रहे हैं।परमात्मा दोनों तरफ से चालें चल रहा है। राम में भी वही है और रावण में भी वही। और अगर रामायण पढ़कर तुम को यह न दिखाई पड़ा कि रावण में भी वही है तो तुम चूक गए, रामायण समझ न पाए।

अगर यही दिखाई पड़ा कि राम में ही केवल है तो बस भूल गए, भटके। रावण में भी वही है।अंधेरा भी उसी का है, रोशनी भी उसी की है। बोलता भी वही मुझसे है, सुनता भी वही तुममें है। तुम जिसे खोज रहे हो वह तुम में ही छिपा है। खोजता भी वही है, खोजा जा रहा भी वही है।

जिस दिन जानोगे, जागोगे, उस दिन हसोगे।झेन फकीर बोकोजू परम ज्ञान को उपलब्ध हुआ तो लोगों ने उससे पूछा कि’’ परम ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद तुमने पहली बात क्या की’’ उसने कहा,’’ और क्या करते? ’’ एक प्याली चाय की मांगी’’। लोगों ने कहा,’’ प्याली चाय की! परम ज्ञान और प्याली चाय की’’ ! उसने कहा,’’ और क्या करते?

जब सारा खेल समझ में आया कि अरे, वही खोज रहा है, वही खोजा जा रहा है। तो और क्या करते? सोचा कि चलो बहुत हो गया, बड़ी लंबी खोज को गये, एक प्याली चाय की पी लें। हंसे खूब’’!

भक्ति-सूत्र(नारद),
प्रवचन-१६,
ओशो

अंत में तुम हंसोगे—कि विधियां ध्यान नहीं है।किसी सद्गुरु के साथ, वैज्ञानिक विधियों से तुम बहुत सा समय, अवसर और उर्जा बचा ले सकते हो। और कई बार तो कुछ ही क्षणों में तुम्हारा इतना विकास हो

अंत में तुम हंसोगे—कि विधियां ध्यान नहीं है।किसी सद्गुरु के साथ, वैज्ञानिक विधियों से तुम बहुत सा समय, अवसर और उर्जा बचा ले सकते हो। और कई बार तो कुछ ही क्षणों में तुम्हारा इतना विकास हो जाता है कि जन्मों - जन्मों तक भी इतना विकास संभव नहीं हो पाता।

यदि सम्यक विधि का प्रयोग किया जाए तो विकास का विस्फोट हो जाता है —फिर इन विधियों का उपयोग हजारों वर्षों के प्रयोगों में हुआ है। किसी एक व्यक्ति ने इनकी रचना नहीं की थी, कई- कई साधकों ने इन्हें रचा था, और यहां केवल सार ही दिया जा रहा है।

लक्ष्य तक तुम पहुंच जाओगे, क्योंकि तुम्हारे भीतर की जीवन उर्जा तब तक आगेबढती रहेगी जब तक वह ऐसे बिंदु तक न पहुंच जाए जहां से और आगे बढ़ना संभव नहीं होगा, वह उच्चतम शिखर की ओर बढती चली जाएगी। यही कारण है कि व्यक्ति बार-बार जन्म लेता रहता है।

तुम पर छोड़ दिया जाए तो तुम पहुंच तो जाओगे लेकिन तुम्हें बहुत लंबी यात्रा करनी पड़ेगी, और यात्रा बहुत दुस्साध्य और उबाने वाली होगी।सभी विधियां सहयोगी हो सकती हैं लेकिन वे वास्तव में ध्यान नहीं हैं, वे तो अंधकार में टटोलने के समान हैं।

किसी दिन अचानक, कुछ करते हुए, तुम साक्षी हो जाओगे। सक्रिय, या कुंडलिनी, या दरवेश जैसा कोई ध्यान करते हुए एक दिन अचानक ध्यान तो चलता रहेगा लेकिन तुम उससे जुड़े नहीं रह पाओगे। तुम पीछे मौन बैठरहोगे, उसके द्रष्टा होकर —उस दिन ध्यान घटा, उस दिन विधि न बाधा रही, न सहायक रही।

तुम चाहो, तो एक व्यायाम की भांति उसका आनंद ले सकते हो, उससे तुम्हें एक शक्ति मिलती है, लेकिन अब उसकी कोई आवश्यकता न रही —वास्तविक ध्यान तो घट गया।ध्यान है साक्षित्व। ध्यान करने का अर्थ है साक्षी हो जाना। ध्यान बिलकुल भी कोई विधि नहीं है! यह तुम्हे बड़ा विरोधाभासी लगेगा क्योंकि मैं तो तुम्हें विधियां दिये ही चला जाता हूँ।

परम अर्थों में ध्यान कोई विधि नहीं है, ध्यान एक समझ है, एक होश है। लेकिन तुम्हें विधियों की जरूरत है क्योंकि वह जो परम समझ है तुमसे बहुत दूर है। तुम्हारे भीतर ही गहरे में है, लेकिन फिर भी तुमसे बहुत दूर है। इसी क्षण तुम उसे उपलब्ध हो सकते हो, लेकिन होओगे नहीं, क्योंकि तुम्हारा मन चलता चला जाता है। इसी क्षण यह संभव होते हुए भी यह असंभव है।

विधियां इस अंतरालको भर देंगी, वे अंतराल को भरने के लिए ही हैं।तो प्रारंभ में विधियां ही ध्यान होती है, अंत में तुम हंसोगे —कि विधियां ध्यान नहीं हैं। ध्यान तो अंतस सत्ता की एक अलग ही गुणवत्ता है, उसका किसी चीज से कुछ लेना - देना नहीं है। लेकिन यह अंत में ही होगा, ऐसा मत सोचना कि प्रारंभ में ही यह हो गया, वरना अंतराल कभी भी भर नहीं पाएगा।

-ओशोध्यान योग

कुछ भी ध्यान बन सकता है... अ - यंत्रवत होना -यही राज है : अ - यंत्रवत होना। यदि हम अपने कृत्यों को अ- यंत्रवत कर

कुछ भी ध्यान बन सकता है...
अ - यंत्रवत होना -यही राज है :
अ - यंत्रवत होना। यदि हम अपने कृत्यों को अ- यंत्रवत कर सकें, तोपूरा जीवन एक ध्यान बन जाता है।

फिर कोई भी छोटा - मोटा काम नहाना, भोजन करना, मित्र से बात करना —ध्यान बन जाता है।

ध्यान एक गुण है, उसे किसी भी चीज में लाया जा सकता है। वह कोई विशेष कृत्य नहीं है। लोग इसी प्रकार सोचते हैं, वे सोचते हैं ध्यान कोई विशेष कृत्य है —कि जब तुम पूर्व की ओर मुंह करके बैठो, कुछ मंत्र दोहराओ, थोड़ी धूपबत्ती जलाओ, कि किसी निश्चित समय पर,निश्चित तरह से, निश्चित मुद्रा में करो।

ध्यान का उस सब से कोई लेना-देना नहीं है। वे सब तुम्हें यंत्रवत करने के उपाय हैं और ध्यान यंत्रवत होने के विपरीत है।तो यदि तुम सजग रह सको, तो कोई भी कृत्य ध्यान है, कोई भी कृत्य तुम्हें अपूर्व रूप से सहयोगी होगा।

-ओशोध्यान का विज्ञान

दुनिया मैं वैसा कहीं भी नहींहै।इसे देश ने कुछ दान दिया है मनुष्य की चेतना को,अपूर्व।यह देश अकेला है जब दो व्यक्ति नमस्कारकरते है,तो दो काम करते है।एक तो दोनों

दुनिया मैं वैसा कहीं भी नहींहै।इसे देश ने कुछ दान दिया है मनुष्य की चेतना को,अपूर्व।यह देश अकेला है जब दो व्यक्ति नमस्कारकरते है,तो दो काम करते है।एक तो दोनों हाथ जोड़ते है।दो हाथ जोड़ने का मतलब होता है: दो नहींएक।दो हाथ दुई के प्रतीक है, द्वैत केप्रतीक है।

उन दोनों को हाथ जोड़ने का मतलब होता है, दो नहींएक है।उस एक का ही स्मरण दिलाने के लिए।दोनों हाथों को जोड़ कर नमस्कार करते है।और, दोनों को जोड़ कर जो शब्द उपयोग करते है।वह परमात्मा का स्मरण होता है।

कहते है: राम-राम, जय राम, या कुछ भी,लेकिन वह परमात्मा का नाम होता है।दो को जोड़ा कि परमात्मा का नाम उठा।दुई गई कि परमात्मा आया।दो हाथ जुड़े और एक हुए कि फिर बचा क्या: हे राम।

–ओशो