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Thursday, 24 March 2016

चीन में बड़ी प्रसिद्ध कथा है। एक फकीर की बड़ी ख्याति हो गई। ख्याति हो गई कि वह निर्भय हो गया है। और निर्भयता अंतिम लक्षण है। एक दूसरा फकीर उसके दर्शन को आया। वह फकीर जो

चीन में बड़ी प्रसिद्ध कथा है। एक फकीर की बड़ी ख्याति हो गई। ख्याति हो गई कि वह निर्भय हो गया है। और निर्भयता अंतिम लक्षण है। एक दूसरा फकीर उसके दर्शन को आया। वह फकीर जो निर्भय हो गया था, समस्त भयों से मुक्त हो गया था, बैठा था एक चट्टान पर। सांझ का वक्त, और पास ही सिंह दहाड़ रहे थे।

मगर वह बैठा था शांत, जैसे कुछ भी नहीं हो रहा है। दूसरा फकीर आया, तो सिंहों की दहाड़ सुनकर कंपने लगा, दूसरा फकीर कंपने लगा। निर्भय हो गया फकीर बोला: तो अरे, तो तुम्हें अभी भी भय लगता है! तुम अभी भी भयभीत हो!

फिर क्या खाक साधना की, क्या ध्यान साधा, क्या समाधि पाई! कंप रहे हो सिंह की आवाज से, तोअभी अमृत का तुम्हें दर्शन नहीं हुआ, अभी मृत्यु तुम्हें पकड़े हुए है! उस कंपते फकीर ने कहा कि मुझे बड़ी जोर की प्यास लगीहै, पहले पानी, फिर बात हो सके।

मेरा कंठ सूख रहा है, मैं बोल न सकूंगा।निर्भय हो गया फकीर अपनी गुफा में गया पानी लेने। जब तक वह भीतर गया, उस दूसरे फकीर ने, जहां बैठा था निर्भय फकीर, उस पत्थर पर लिख दिया बड़े—बड़े अक्षरों में: नमो बुद्धाय—बुद्ध को नमस्कार।

आया फकीर पानी लेकर। जैसे ही उसने पैर रखा चट्टान पर, देखा नमो बुद्धाय पर पैर पड़ गया, मंत्र पर पैर पड़ गया; झिझक गया एक क्षण। आगंतुक फकीर हंसने लगा और उसने कहा: डर तो अभी तुम्हारे भीतर भी है।

सिंहसे न डरते हो, लेकिन पत्थर पर मैंने एक शब्द लिख दिया—नमो बुद्धाय, इस पर पैर रखने से तुम कंप गए! भय तो अभी तुम्हें भी है। भय ने सिर्फ रूप बदला है, बाहर से भीतर जा छिपा है, चेतन से अचेतन हो गया है। भय कहीं गया नहीं है।

निर्भय आदमी में भय नहीं जाता, सिर्फ भय नए रूप ले लेता है, निर्भयता का आवरण ओढ़ लेता है। जो व्यक्ति समाधिस्थ होता है, न तो भयभीत होता है, न निर्भय होता है। निर्भय होने के लिए भी भय का होना जरूरी है, नहीं तो निर्भय कैसे होओगे? विरक्त होने के लिए आसक्ति का होना जरूरी है, नहीं तो विरक्त कैसे होओगे?

कहै वाजिद पुकार,
प्रवचन-८,
ओशो

एक बार जरा क्षण भर को ऐसा सोचो कि चौबीस घंटे के लिए सारी कामना छोड़ दो -- सुख की कामना भी छोड़ दो। चौबीस घंटे में कुछ हर्जा नहीं हो जाएगा, कुछ खास नुकसान नहीं हो जाएगा।

एक बार जरा क्षण भर को ऐसा सोचो कि चौबीस घंटे के लिए सारी कामना छोड़ दो -- सुख की कामना भी छोड़ दो। चौबीस घंटे में कुछ हर्जा नहीं हो जाएगा, कुछ खास नुकसान नहीं हो जाएगा।

ऐसे भी इतने दिन वासना कर-कर के क्या मिल गया है? चौबीस घंटे मेरी मानो। चौबीस घंटे के लिए सारी वासनाछोड़ दो। कुछ पाने की आशा मत रखो। कुछ होने की आशा मत रखो।एक क्रांति घट जाएगी चौबीस घंटे में। तुमअचानक पाओगे, जो है, परम तृप्तिदायी है।

जो भी है। रूखी-सूखी रोटी भी बहुत सुस्वादु है, क्योंकि अब कोई कल्पना न रही। अब किसी कल्पना में इसकी तुलना न रही। जैसा भी है, परम तृप्तिदायी है!यह अस्तित्व आनंद ही आनंद से भरपूर है।

पर हम इसके आनंद भोगने के लिए कभी मौका हीनहीं पाते। हम दौड़े-दौड़े हैं, भागे-भागे हैं। हम ठहरते ही नहीं। हम कभीदो घड़ी विश्राम नहीं करते!इस विश्राम का नाम ही ध्यान है। वासना से विश्राम ध्यान है। तृष्णा से विश्राम ध्यान है।

अगर तुम एक घंटा रोज सारी तृष्णा छोड़कर बैठ जाओ, कुछ न करो, बस बैठे रहो -- मस्ती आजाएगी! आनंद छा जाएगा! रस बहने लगेगा!धीरे-धीरे तुम्हें यह बात दिखाई पड़ने लगेगी, जब घंटे भर में रस बहने लगता है, तो फिर इसी ढंग से चौबीस घंटे क्यों न जीएँ?

परम प्यारे ओशो
अरी मैं तो नाम के रंग छकी
प्रवचन 10

वसीम अकरम त्यागी भारत में डेढ करोड़ वैश्याऐं हैं यह संख्या कई देशों की की कुल जनसंख्या से भी अधिक है।

वसीम अकरम त्यागी भारत में डेढ करोड़ वैश्याऐं हैं यह संख्या कई देशों की की कुल जनसंख्या से भी अधिक है।

इस देश में गंगा (नदी) माता है, गाय (जानवर) माता है, धरती माता है। मगर औरत (इंसान) वैश्या है और वैश्या भी एक या दोहजार नहीं बल्कि डेढ करोड़ हैं।

14 फरवरी को देश पार्कों में जाकर डंडे लाठी से देश के प्रेमी युगल को ‘संस्कृती’ सिखाने वालोंको एक बार कोठे पर भी जाना चाहिये। ताकि अपने हाथो से तैयार की गई वैश्या संस्कृति का बदसूरत चेहरा देख सकें।

भारत माता है अथवा पिता है इस बहस के बीच यह सवालजोर से उठ जाना चाहिये कि भारत माता हो या पिता मगर उसकी डेढ करोड़ संतानवैश्या क्यों है ?

संविधान क्या कहता है ? गांधी जी क्या कहते थे ? बुद्ध क्या कहते थे ? अल्लाह के 99 नाम हैं ? प्लास्टिक सर्जरी भारत में हजारों साल से रही है गणेश जी की नाक प्लास्टिक सर्जरी से लगवाई गई थी।

मेरी मत राष्ट्रपति की सुनो ? इनसब बातों को सुनकर भक्त भले ही हर हर मोदी करके छाती पीटते हों मगर इस देश का एक बहुत बड़ा तबका है जो इतने भर से संतुष्ट नहीं है।

वह तबका जानना चाहता है कि जिन साहित्यकारों ने आवार्ड लौटाये हैं उनके बारे में मोदी क्या कहतेहै ? वह तबका सुनना चाहता है कि अखलाक के हत्यारों के बारे में मोदी क्या कहते है ? वह तबका सुनना चाहता है कि थोक में बांटे जा रहे देशभक्ती की सर्टिफिकेटके बारे में मोदी क्या कहते है ?

भारत माता की जय के नाम पर इंसानों की मां को दी जा रहीं गालियों के बारेमें मोदी क्या कहते है ? अपनी सरकार का सिर्फ एक ही मज्हब इंडिया फर्स्ट बताने वाले मोदी हिंदुत्व के नाम पर (गौ रक्षा) की जा रही हत्याओं के बारे में क्या कहते हैं ? सवालों की फेहरिस्त बहुत लंबी है और ये सवाल उस तबके हैं जो किसी भी सरकार अथवा व्यक्ति विशेष का भक्त नहीं है बावजूद इसके उस तबके को मोदी भक्त हिंदु विरोधी या देशविरोधी कहकर संबोधितकरते हैं।

मोदी उपदेश देने के लिये प्रधानमंत्री नहीं बने हैं बल्कि परिवर्तन लाने के लिये प्रधानमंत्री बने हैं। मगर जैसा परिवर्तन उनके पाले हुऐ गुंडे इस देश में करना चाहते हैं वैसापरिवर्तन इस देश को हरगिज नहीं चाहिये।

फूट रही बहुसंख्यकवाद की सड़ांधभारतीय लोकतंत्र में बहुसंख्यकवाद की सड़ांध फूट रही है। यह बहुसंख्यकवाद मुंबई ब्लास्ट के मास्टर माइंड याकूब मेमन को फांसी देता है, मगर रथ यात्रा के मास्टर माइंड आडवाणी जिसने तमाम देश को दंगों की आग में झोंक दिया था उसे उप प्रधानमंत्री बनाता है।

संविधान पर भरौसा करके आत्मसमर्पण करने वाले मेमन को सजा ऐ मौत दी जाती है और उसी संविधान को जूते की नोक पर रखकर समतल जमीन का आह्वान करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न सेनवाजा जाता है।

हम और हमारा राष्ट्र खौखलेपन से इतरा सकता हैकिहम विश्व कै सबसे बड़े लोकतंत्र हैं लेकिन इस बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र की लाश कभी हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी के हाॅस्टलमें रोहित वेमुला की शक्ल में झूलती पाई जातीहै तो कभी झारखंड में मजलूम अंसारी और इब्राहीम की शक्ल में पेड़ पर झूलती पाई जाती है।

जिन लोगों ने रोहित को मारा था वे सत्ता में हैं और जिन लोगों ने अखलाक से लेकर इब्रहीम, मजलूम की लाशें बिछाई हैं उन्हें सत्ता का संरक्षण प्राप्त है। मोदी ने दिल्ली में सूफिज्म पर लंबा भाषण दिया है मगर यजीदियत के खिलाफ एक लफ्ज भी न बोल पाये क्योकि भारतीय यजीद उनके ‘अपने’ लोग हैं।

नेशन वांट टू नो (देश जानना चाहता है) मगर तुम बताते नहीं कि उन दो मासूम मजदूरों जिनमें से एक बाल मजदूर था का क्या कसूर था जो उन्हें बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिया गया ?

गाय तुम्हारी माता है यह तो समझ आता है मगर भैंस से क्या नाता है यह तो बताओ? भैंस से नाता इसलिये मालूम किया जा रहा है क्योंकि अखलाक को गाय मांस के आरोप में मारा था मगर ये मासूम तो पशु व्यापारी थे और गाय नहींबल्कि भैंस लेकर जा रहे थे फिर भी मार दिया गया। वे मीडिया माध्यम खुद कोमुख्यधारा का मीडिया बताते हैं

वेक्यों ‘झारखंड’ पर शान्त हैं ?क्या इसलिये कि मरने वाले मुसलमान थे और मारने वाले तथाकथित देशभक्त हैं ? या अल्पसंख्यकों की मौत महज ‘एंटरटेनमेंट’ है सियासी जमातों के लिये भी और मीडिया के लिये भी? अब प्राईम टाईम में क्यों नहीं कहते कि देश जानना चाहता है कि जानवरकी रक्षा के नाम पर इंसानों को जानवर समझना कहां तक जायज है ?

जानवरों की कथित रक्षा के नाम पर इंसानों को लाशों में तब्दील करने का अधिकार कौनसे संविधान ने दिया है ? मीडिया खामोश है ‘मन की बात’ करने वाला ‘चौकीदार भी खामोश है। क्या मीडिया इसीलिये खामोश है क्योंकि यह घटना ‘राम राज्य’ में हुई है ?

मीडिया की खामोशी यह बताने के लिये काफी है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ पर राम राज्य वालों का कुत्ता मूत गयाहै।

(वसीम अकरम त्यागी – लेखक जाने माने पत्रकार और समाजसेवी है)

एक छोटा सा बच्चा समुद्र की रेत पर अपने हस्ताक्षर कर रहा था। वह बड़ी बारीकी से, बड़ी कुशलता से अपने हस्ताक्षर बना रहा था। एक का उससे कहनेलगा,

एक छोटा सा बच्चा समुद्र की रेत पर अपने हस्ताक्षर कर रहा था। वह बड़ी बारीकी से, बड़ी कुशलता से अपने हस्ताक्षर बना रहा था। एक का उससे कहनेलगा, पागल, तू हस्ताक्षर कर भी न पाएगा, हवाएं आएंगी और रेत बिखर जाएगी। व्यर्थ मेहनत कर रहा है, समय खो रहा है, दुख को आमंत्रित कर रहा है।


क्योंकि जिसे तू बनाएगा और पाएगा कि बिखर गया, तो दुख आएगा। बनाने में दुख होगा, फिर मिटने में दुख होगा। लेकिन तू रेत पर बना रहा है, मिटना सुनिश्चित है। दुख तूबो रहा है। अगर हस्ताक्षर ही करने हैं तो किसी सख्त, कठोर चट्टान पर कर, जिसे मिटाया न जा सके।

मैंने सुना है कि वह बच्चा हंसने लगा और उसने कहा, जिसे आप रेत समझ रहे हैं, कभी वह चट्टान थी; और जिसे आप चट्टान कहते हैं, कभी वह रेत हो जाएगी।बच्चे रेत पर हस्ताक्षर करते हैं, बूढ़े चट्टानों पर हस्ताक्षर करते हैं, मंदिरों के पत्थरों पर। लेकिन दोनों रेत पर बना रहे हैं।


रेत पर जो बनाया जा रहा है वह झूठ है, वह असत्य है। हम सारा जीवन ही रेत पर बनाते हैं। हम सारी नावें ही कागज की बनाते हैं। और बड़े समुद्र में छोड़ते हैं, सोचते हैं कहीं पहुंच जाएंगे। नावें ड़बती हैं, साथ हम ड़बते हैं।

रेत के भवन गिरते हैं, साथ हम गिरते हैं। असत्य रोज—रोज हमें रोज—रोज पीड़ा देता और हम रोज—रोज असत्य की पीड़ा से बचने को और बड़े असत्य खोज लेते हैं। तब जीवन सरल कैसे हो सकता है?

असत्य को पहचानें कि मेरे जीवन का ढांचा कहीं असत्य तो नहीं है? और हम इतने होशियार हैं कि हमने छोटी—मोटी चीजों में असत्य पर खड़ा किया हो अपने को, ऐसा ही नहीं है, हमने अपने धर्म तक को असत्य पर खड़ा कर रखा है।

जीवन रहस्य ( प्रवचन 12)