NEWS UPDATE

Blogger Tips and TricksLatest Tips And TricksBlogger Tricks

Saturday, 26 March 2016

इस दुनिया में हम जो पढ़ रहे है, वह एक-दूसरे परसवारी करते के उपाय है ! यहां पढना तुम्हारे संघर्षका आयोजन है ! तुम ठीक से लड़ सकोगे अगरतुम्हारे पास डिग्रियां है !तुम दूसरोके कंधो पर सवार हो

इस दुनिया में हम जो पढ़ रहे है, वह एक-दूसरे परसवारी करते के उपाय है ! यहां पढना तुम्हारे संघर्षका आयोजन है ! तुम ठीक से लड़ सकोगे अगरतुम्हारे पास डिग्रियां है !तुम दूसरोके कंधो पर सवार हो सकोगेअगर तुम्हारे पास डिग्रियां है !

ये विधालय तुम्हारे हिंसा के फैलावहै ! इनके कारण तुम ज्यादा कुशलता से शोषण कर सकोगे ! दूसरोको व्यवस्था से सता सकोगे ! कानून से जुर्म कर सकोगे ! नियमसे, विधि से वह सब कर सकोगे जो कि नही करनाचाहिए ! सारी पढाई-लिखाई बेईमानी काप्रशिक्षण है ! तुम लोगो पर सवार हो सकोगे ! इससेकभी कोई ज्ञानी तो नहीहुआ ! इससे ही तो लोग अज्ञानी होतेचले जाते है ! हमारे विधालय अविधालय है! वहां ज्ञान तोकभी घटता नही !

नानक को उनके स्कूल का अध्यापक पंडित छोड़ गया घर, यहअपने बस के बाहर है !नानक का जनेउ हो रहा था , तो सारा समारंभहो गया था ! सब लोगआ गए थे ! बैंड-बाजे बज चुके थे, पंडित सूत्र पढ़ चुका था ! फिरवह गले में जनेउ डालने लगा तो जनेउ डालने लगा तो नानक ने कहा,रुको !

इस जनेउ के डालने से क्या होगा ? उस पंडित ने कहा किइस जनेउ के डालने से तुम द्विज हो जाओगे ! नानक ने पूछा किद्विज का क्या अर्थ है ? द्विज का अर्थ है कि दुबारा जन्म ! क्याइस सूत के धागे को डाल लेने से मेरा दुबारा जन्म हो जाएगा ? क्या मैंनया हो जाऊंगा ? क्या पुराना मर जाएगा और नए का जन्म होजाएगा ?

अगर यह होता हो तो मैं तैयार हूं !पंडित भी डरा ! क्योंकि माला गले में डाल लेने से जनेउकी क्या होने को है ? फिर नानक ने पूछा कि यह जनेउअगर टूट गया तो ? उसने कहा कि बाज़ार में और मिलते है ! इसकोफेंक देना , दूसरा ले लेना ! तो नानक ने कहा कि फिर यह रहनेही दो जो खुद टूट जाता है , जो बाज़ार में बिकता है, जोदो पैसे में मिल जाता है, उससे उस परमात्मा की क्याखोज होगी ?

जिसको आदमी बनाता है ,उससे परमात्मा की क्या खोज होगी !आदमी का कृत्य छोटा है !
-----

ओशो
(एक ओंकारसतनाम )

रजनीश से ‘ ओशो’ रजनीश बननेकी कहानी : उन्हीकीजुबानी मैंनेओशो का केवल नाम ही सुना था! ढेर सारे बाबाओंकीलिस्ट में से उन्हें भी एकही मानता था! कई बार उन्हेंपढ़ने का मौकाभी मिला, मग

रजनीश से ‘
ओशो’ रजनीश बननेकी कहानी : उन्हीकीजुबानी
 
मैंनेओशो का केवल नाम ही सुना था! ढेर सारे बाबाओंकीलिस्ट में से उन्हें भी एकही मानता था! कई बार उन्हेंपढ़ने का मौकाभी मिला, मगर मैंने उन्हें नहीं पढ़ा! कारणथा बाबाओं को लेकर मेरे मन क
पूर्वाग्रह! मगर जबएक बार उन्हेंसुना, तो यह धारणा टूट गयी! जिन्होंने ओशो को पढ़ा यासुना है, उनमें से कई लोगों के मन में सवाल आया होगा कि आखिरइस ईश्वर विरोधी शख्स ने बाबाओं जैसे इस भेष कोक्यों चुना?

क्यों खुद को भगवान घोषित कर लिया? इस सवाल काजवाब अगर आप उन्हीं के शब्दों में सुनेंगे तो ज्यादाबेहतर होगा! इसलिए प्रस्तुत है

ओशो रजनीश द्वारा12 जनवरी, 1985 को दिएगए भाषण के अंश!जवानी में यूनिवर्सिटी में मैं नास्तिक औरअधार्मिक व्यक्ति के रूपमें जाना जाताथा। प्रत्येक आचार व्यवस्थाके खिलाफ था और आज भी यह बरक़रार है। इससेएक इंच भी पीछे नहीं हटा।पर नास्तिक, अधार्मिक और प्रत्येक आचार व्यवस्थाविरोधी पहचान मेरे लिए एक समस्या बनगयी।

लोगों के साथ किसी तरह कासंचारमुश्किल था। लोगों के साथ किसी तरह का संपर्कस्थापित करना लगभग असंभव था। जब लोगों को पता चलता किमैंनास्तिक हूँ, अधार्मिक हूँ और आचार व्यवस्था काविरोधी हूँ तो वे सारे दरवाजे बंद कर लेते। मैं ईश्वर मेंविश्वास नहीं करता, किसी स्वर्ग-नरक मेंविश्वास नहीं करता। लोगोँ के लिए यह विचारही मुझसे दूर भागने के लिए काफी था।

मैंविश्वविद्यालय में प्रोफेसर था इसलिए सैकड़ों प्रोफेसर, शोध छात्रमुझसे कतराते थे क्योंकि वे जिस चीज में विश्वास रखतेथे उसे कहने का उनमें हौसला नहीं था। अपने विचारोंके लिए उनके पास कोई तर्क नहीं था।विश्वविद्यालयकी सड़कों के नुक्कड़ों पर, पान की दुकानोंपर, जहाँ भी कोई मिलता, वहीँ तर्क करतारहता था।

मैं धर्म पर सीधी चोट करता था,लोगों को इस बकवास से पूरी तरह छुटकारादिलानेकी पूरी कोशिश करता था। इसका परिणामयह निकला कि मैं एक द्वीप बनकर रह गया। कोईमुझसे बात करके राजी नहीं था। उन्हें डरथा कि यदि उन्होंने मुझे बुलाया तो पतानहीं मैं उनकोकहाँ ले जाऊँ।

आख़िरकार मुझे अपनीरणनीति बदलनी पड़ी।मैं सचेतहुआ कि जो लोग सत्य की खोज के इच्छुक हैं वेआश्चर्य की सीमा तक धर्म से जुड़े हैं।अधार्मिक समझा जानेके कारण मैं उनसे विचार विमर्शनहीं कर सकता था। यही लोग सत्यकी खोज के इच्छुक थे।

यही लोग थे जोमेरे साथ अनजानी राहों पर चल सकते थे। पर ये लोगपहले ही किसी धर्म सम्प्रदाय या दर्शनसे जुड़े थे। उनका मुझे अधार्मिक सोंचना ही बाधा बनगया। इन्हीं लोगों की मुझे जरुरतथी।वे लोग भी थे जो धर्म मेंलीन नहीं थे, पर उनमें सत्यकी खोज की जिज्ञासा नहींथी। यदि उन्हें प्रधानमन्त्री पद औरसत्य में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जाता तो वेप्रधानमंत्री पद को प्राथमिकता देते।

सत्य के बारे में वेकहते, “कोई जल्दी नहीं। यह तोकभी भी किया जा सकता है।प्रधानमंत्री पद फिर शायद कभी न मिले।सत्य तो हर किसी कास्वभाव है, इसे कभीभी प्राप्त किया जा सकता है। सबसे पहलेवह करनाचाहिए जो क्षणिक है, समयबद्ध है और जिसका समय हाथ सेनिकल रहा है। ऐसा सुहाना सपना शायद फिरन आये। सत्य तोकहीं भागा नहीं जाता।

”उनका रुझान सपने,कल्पना की ओर था। उनकी औरमेरी बातचीत असंभव थीक्योंकि मेरे और उनके हित अलग अलग थे। मैंने पूरीकोशिश की पर इन लोगों की धर्म में, सत्यमें और अन्य किसी महत्वपूर्ण बात में रूचिनहीं थी। जिनकी रूचिथी वे ईसाई थे, या हिन्दू, मुसलमान, जैन या बौद्ध थे।वे पहले ही किसी धर्म या विचारधारा सेजुड़े थे।

अब मुझे स्पष्ट हो गया था कि मुझे धार्मिक होने कानाटक करना पड़ेगा। कोई और रास्ता भीनहीं था। इसके बाद ही मुझेअसली खोजी मिल सकते थे।मैं धर्म शब्दसे ही नफ़रत करता था। मैंने सदा इससे नफरतकी है। पर मुझे धर्म पर बोलना पड़ा। धर्मकी आड़ में जो बातें कहीं असल में वो वहनहीं था जो लोग समझते थे। वह सिर्फरणनीति थी।

उनके शब्द ईश्वर, धर्मऔर मुक्ति का मैं प्रयोग कर रहा था पर उन्हें अपने अर्थ दे रहाथा। इस तरह मैंने लोगों को ढूँढना शुरूकिया, वे मेरे पास आने लगे।लोगों की नजरों में अपनी छवि सुधारने मेंकई वर्ष लगे। लोग शब्द तो सुनते थे पर उनके अर्थनहीं समझते थे। लोग वही समझते हैं जोतुम कहते हो। जो कुछ अनकहा रह जाता, वो उसेनहीं समझते थे। इसलिए मैंने उनके हथियार कोही उनके ख़िलाफ़ प्रयोग किया।

मैंने धर्मग्रंथों परटिप्पणी की मगरउन्हें अपने अर्थ दिए।वह चीजें मैं बिना टिप्पणी केभी कह सकता था, वह मेरे लिए आसानथी, क्योंकि तब मैं सीधा तुमसे बात कर रहाहोता। फिर कृष्ण, महावीर और ईसा कोबीच में घसीटने की कोईजरुरत नहीं थी, वह सब भीकहने की जरुरत नहीं थी, जोउन्होंने कभी नहीं कहा। यह मानवताकी मूर्खता है कि वहज बातें जो मैं पहले कहता रहताथा, जिन्हें सुनने को कोई तैयार नहीं था, अब क्योंकि मैंकृष्ण बोल रहा था इसलिए हजारों लोग मेरे आस पास इकट्ठे होनेलगे।

यही एकमात्र तरीका है। जब मैंनेईसा पर बोलना शुरू किया तो ईसाई कॉलेजों और ईसाई धार्मिक संस्थाओंनें मुझे बोलने के लिए बुलाना शुरू किया, मैं मन ही मनहमेशा हँसता रहता। क्योंकि मूर्ख समझते हैं कि यह ईसा ने कहाहै। हाँ, मैंने ईसा के शब्द प्रयोग कियेहैं। किसी केशब्दों के खेल को समझने की जरुरत है, फिरकिसी भी शब्द को कोई भीअर्थ दिया जा सकता है। वे सोंचते हैं कि यही ईसा कावास्तविक सन्देश है।

वे कहते हैं कि ईसाई मिशनरियों और पादरियोंने ईशा के लिए इतना नहीं किया जितना आपने किया है।मैंचुप रहता। मैं जानता था मुझे ईसा से कुछ नहीं लेना।जो कुछ मैं कह रहा था, ईसा तो उसे समझ भीनहीं सकता। वह बेचारा तो बिलकुल अनपढ़ व्यक्ति था।इसमें कोई शक नहीं कि उसका व्यक्तित्वचुम्बकीय है। उसके लिए अनपढ़ और स्वर्ग केलोभियों को इकठ्ठा करना मुश्किल काम नहीं था। यहआदमी वादे करता था और इसके बदले में माँगता कुछनहीं था। फिर उसमें विश्वास करने में क्या हर्ज है?कोई खतरा नहीं, कोई जोख़िम नहीं।

यही कोई ईश्वर नहीं, स्वर्गनहीं, तो तुमने कुछ नहीं खोया। यदि येकहीं हों तो मुफ़्त लाभ ही लाभ। बहुतआसान हिसाब किताब है। यह आदमी कुछनहीं जनता। उसके पास कोई तर्क नहींहै। वह उन्हीं चीजों को दोहराता है जोउसने दुनिया से सुनी हैं। परन्तु वह कट्टर किस्म काअड़ियलनौजवान था। जो कुछ मैं ईसा के नामपर कहता था, वहपहले भी कह रहा था। पर तब किसी ईसाई कॉलेज या धार्मिक संस्थाओं नें मुझे नहीं बुलाया।बुलाना तो दूर, अगर मैं जाने की कोशिश भीकरता तो दरवाजे बंद कर लेते।

यह स्थितिथी। मुझेमेरेअपने शहर के बीच स्थित मंदिर में जाने से रोका गया…पुलिस की सहायता से। पर अब उसी मंदिरवालों नें मुझे बुलाना शुरू किया।मैंने अपने ढ़ंग तरीकेनिकाले। मैं ईश्वर पर बात करता और कहताकि ईश्वर तो बहुतअच्छा शब्द है। मैं ईश्वरता पर बोलरहा था इसलिए पुजारियों से ठगेगए सत्य के पथिकों नें मुझमें रुचि लेनी शुरू करदी। मैंने सभी धर्मों का सार इकठ्ठा करलिया। मैंने रास्ता ढूँढ लिया। मैंने सिर्फ यह सोंचा, “उनके शब्दों काइस्तेमाल करो, उनकी धार्मिक पुस्तकें इस्तेमाल करो।यदि तुम किसी और की बन्दूक चला रहेहो तो इसका मतलब ये नहीं कि तुम अपनीगोलियाँ नहीं प्रयोग कर सकते। बन्दूककिसी की भी हो, गोलियाँमेरी ही हैं।

असली काम तोगोलियों को ही करना है, फिर क्या हर्ज है? यह बहुतआसान काम था। मैं हिन्दू शब्दों का इस्तेमाल करकेवही खेल खेल सकता था, मुसलमानी शब्दप्रयोग करके यही खेल खेल सकता था, ईसाईशब्दावली प्रयोग करके खेल खेल सकता था।”मेरे पाससिर्फ यही लोग नहीं आये बल्कि जैन,साधु, साध्वियाँ, हिन्दू और बौद्ध साधू,ईसाई मिशनरी औरपादरी हर किस्म के लोग मेरे पास आये। तुमयकीन नहीं करोगे, तुमनेमुझेकभी हँसता हुआ नहीं देखा होगा। अंदरही अंदर मैं इतना हँसा हूँ कि अब मुझे हंसनेकी जरुरत ही नहींपड़ती। मैं तुम्हें सारी उम्रलतीफ़े सुनाता रहा हूँ पर मैं नहीं हँसताक्योंकि मैं तो सारी उम्र मजाक ही करतारहा हूँ। इससे अधिक मजाक की बात क्या होसकती है कि मैं सारे पादरियों और महान विद्वानों कोइतनी आसानी से बुद्धू बनाने में कामयाबहुआ।

वे मेरे पास सवाल लेकर आने लगे। शुरू शुरू में मुझे उनकेशब्द सावधानी से बोलने पड़ते। मैंशब्दों और पंक्तियों मेंअपने विचार चला देता, जिनमें मेरी रूचिहोती।शुरू शुरू में लोगों को धक्का सा लगा। वे लोग, जोजानते थेकि मैं नास्तिक हूँ, असमंजस में पड़ गए। स्कूल का मेराएक मास्टर कहता है, “क्या हो गया? क्या तू बदल गया?” औरउसने मेरे पैर छुए। मैंने कहा, “पैरों को हाथ मत लगाओ। मैंनहींबदला और मरते डैम तक नहींबदलूँगा।” ऐसा कई बार हुआ। एकबार मैं जबलपुर मुस्लिम संस्थामें बोल रहा था। मेरा मुसलमान टीचर वहाँ प्रिंसिपल था।जब मेरे टीचर ने मुझे देखा तो कहने लगे, “मैंनेमुअजजे होते सुने हैं पर यह तो अचानक मुअजजा है। तूसूफ़ीवाद और इस्लाम की आधारभूतफिलॉसफी पर बोल रहा है?

” मैंने कहा, “मैं आपसे झूठनहीं बोलूँगा, आप मेरे पुराने टीचर हो। मैं तोअपने दर्शन पर हीबोलूँगा। हाँ कभी कभारइस्लामी शब्द चलाऊँगा, बस…।

”….अब मैंने अपने लोगोंका चुनाव किया। सारे भारत में मैंने अपने ग्रुप बनाने शुरू किये।अबमेरे लिए सिख मत, हिंदू या जैन मत पर बोलना अनावश्यक था। परलगातार दस वर्ष मैं इनपरबोलता रहा। धीरेधीरे जब मेरे अपने लोग हो गए तो मैंने बोलना बंद करदिया। बीस साल सफ़र में रहकर मैंने सफ़र करना बन्दकर दिया। क्योंकि अब जरुरत ही नहींथी। अब मेरे अपनेलोग थे। दुसरे आना चाहते तो मेरेपास आ सकते थे।

…कई साल सन्यास देने के बाद काम छोड़ दिया,तीन साल के लिए। एक अंतराल जिसमें कोई जाना चाहे तोजा सकता था। क्योंकि मैं किसी कीजिंदगी में दखल नहीं देना चाहता था।

(रजनीश बाइबिल, वोल्यूम 3, पृष्ट 438 से 452)

तुमने महाभारत की कथा तो सुनी है न,कि पांडव प्यासे हैं,जंगल में भटक गए हैं।और एक झील पर पानी भरने पांच भाइयों में से एक भाई गया है। और जै

तुमने महाभारत की कथा तो सुनी है न,कि पांडव प्यासे हैं,जंगल में भटक गए हैं।और एक झील पर पानी भरने पांच भाइयों में से एक भाई गया है। और जैसे ही झुका है पानी पीने को और पानी भरने को, एक यक्ष वृक्ष पर से आवाज दिया:

रुक,या तो मेरे पांच प्रश्नों का उत्तर दे, याअगर पानी छुआ तो मौत घट जाएगी। मेरे पांच प्रश्नों का पहले उत्तर चाहिए। अगर ठीक उत्तर दिया तो ठीक, नहीं तो मृत्यु परिणाम होगा।

पहला भाई इस तरह गिर गया, उत्तर नहीं दे पाया और पानी पीने की कोशिश की; प्यास ऐसीथी। दूसरा भाई और वही, तीसरा भाई और वही…।और अंत में युधिष्ठिर आए—चारों भाई कहांखो गए?

देखा, चारों की लाशें पड़ी हैं झील के तट पर। चारों ने जिद्द की, उत्तर नहीं दे पाए फिर भी पानी पीने की जिद्द की। युधिष्ठिर झुके, यक्ष फिर बोला…।

उसमें एक प्रश्न आज के काम का है; सारे प्रश्न अर्थपूर्ण थे, मगर एक प्रश्न यह था कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर ने कहा: सबसे बड़ा आश्चर्य यही है कि हम रोज लोगों को मरते देखते हैं, फिर भी यह भरोसा नहीं आता कि मैं मरूंगा!यह ठीक उत्तर था।

सबसे बड़ा आश्चर्य ताजमहल नहीं है, और सबसे बड़ा आश्चर्य इजिप्त के पिरामिड नहीं हैं, और न बेबीलोन का उलटा लटका हुआ गार्डन और न अलेग्जेन्ड्रियाका लाइट हाऊस।ये चमत्कार नहीं हैं,ये बड़े आश्चर्य नहीं हैं।

सबसे गहन आश्चर्य यह है कि रोज मरते देखकर भी, रोज लोगों को मरते देखकर, रोज मृत्यु के प्रमाण देखकर भी यह भरोसा आता ही नहीं कि मैं मरूंगा! भरोसे की बात—यह प्रश्न ही नहीं उठता कि मैं मरूंगा। मन कहे चला जाता है, जैसे सदा कोई और मरता है, दूसरा मरता है।

कहै वाजिद पुकार,
प्रवचन-७, ओशो

यह सदी पूरे होते-होते चोर आपके विचार चुरा सकेंगे। क्योंकि आपके मस्तिष्क को आपके बिना जाने पढ़ा जा सकेगा। और क्योंकि आपके मस्तिष्क से कुछ हिस्से भी निकाले जा सकते हैं, जिनका आपको पता ही नहीं चलेगा। और आपके मस्तिष्क के भीतर भी

यह सदी पूरे होते-होते चोर आपके विचार चुरा सकेंगे। क्योंकि आपके मस्तिष्क को आपके बिना जाने पढ़ा जा सकेगा। और क्योंकि आपके मस्तिष्क से कुछ हिस्से भी निकाले जा सकते हैं, जिनका आपको पता ही नहीं चलेगा। और आपके मस्तिष्क के भीतर भी इलेक्ट्रोड रखे जा सकते हैं, औरआपसे ऐसे विचार करवाये जा सकते हैं जो आप नहीं कर रहे, लेकिन आपको लगेगा कि मैं कर रहा हूं।

अभी अमरीका में डा. ग्रीन और दूसरे लोगों ने जानवरों की खोपड़ी में इलेक्ट्रोड रखकर जो प्रयोग किये हैं वे सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। एक घोड़े की या एक सांड की खोपड़ी में इलेक्ट्रोडरख दिया है। वह इलेक्ट्रोड रखने के बादवायरलेस से उसकी खोपड़ी के भीतर के स्नायुओं को संचालित किया जा सकता है, जैसा चाहें। और डा. ग्रीन के ऊपर हमला करता है वह सांड। वे लाल छतरी लेकर उसके सामने खड़े हैं और हाथ में उनके ट्रांजिस्टर है छोटा-सा, जिससे उसकी खोपड़ी को संचालित करेंगे।

वह दौड़ता है पागल की तरह। लगता है कि हत्या कर डालेगा। सैकड़ों लोग घेरा लगाकर खड़े हैं। वह बिलकुल आ जाता है– वह सामने आ जाता है। और वह बटन दबाता है अपने ट्रांजिस्टर की। वह ठंडा हो जाता है, वहवापस लौट जाता है।यह आदमी के साथ भी हो सकेगा। इसमें कोई बाधा नहीं रह गयी है। वैज्ञानिक काम पूरा हो गया है।

कुछ कहा नहीं जा सकता कि तानाशाही सरकारें हर बच्चे की खोपड़ी में बचपन से ही रख दें। फिर कभी उपद्रव नहीं। एक बटन दबायी जाए, पूरा मुल्क एकदम जय-जयकार करने लगे। मिलिट्री के दिमाग में तो यह रखा ही जाएगा। तब बटन दबा दी और लाखों लोग मर जाएंगे बिना भयभीत हुए, कूद जाएंगे आग में बिना चिंता किये। और उनको लगेगा किवे ही कर रहे हैं।

हालांकि यह पहले से भी किया जा रहा है, लेकिन करने के ढंग पुराने थे, मुश्किल के थे।एक आदमी को समझाना पड़ता है कि अगर तू देश के लिए मरेगा तो स्वर्ग जाएगा। इसको बहुत समझाना पड़ता है, तब उसकी खोपड़ी में घुसता है। हालांकि यह भी घुसाना ही है। इसमें कोई मतलब नहीं है।

इसको भी बचपन से गाथाएं सुना-सुनाकर राष्ट्रभक्ति की और जमानेभर के पागलपनकी, इसके दिमाग को तैयार किया जाता है। फिर एक दिन वर्दी पहनाकर इससे कवायद करवायी जाती है दो-चार साल तक। इसकी खोपड़ी में डालने का यह उपाय भी इलेक्ट्रोड ही है, लेकिन यह पुराना है, बैलगाड़ी के ढंग से चलता है।


फिर एक दिन यह आदमी जाता है और मर जाता है युद्ध के मैदान में छाती खोलकर और सोचता है कि यह “मैं’ मर रहा हूं, और सोचता है कि यह बलिदान “मैं’ दे रहा हूं, और सोचता है, ये विचार “मेरे’ हैं। यह देश मेरा और यह झंडा मेरा है। और ये सब बातें इसके दिमाग में किन्हीं और ने रखी हैं। जिन्होंने रखी हैं वे राजधानियों में बैठे हुए हैं। वे कभी किसी युद्ध पर नहीं जाते।

ठीक है, इतनी परेशानी करने की क्या जरूरत है, जब इलेक्ट्रोड रखने से आसानी से काम हो जाएगा। अड़चन कम होगी, भूल-चूक कम होगी। बहुत जल्दी विचार की संपदा पर भी चोर पहुंच जाएंगे। खतरे वहां हो जाएंगे, लेकिन अब तक कम से कम विचार की संपदा बहुत सूक्ष्म रही है।

महावीर वाणी,
भाग-१,
प्रवचन-५,
ओशो

कल मुझसे कोई पूछता था कि मोरारजी देसाई खादी में पोलिएस्टर मिलाकर पोलिएस्टर खादी बनाना चाहते हैं। आपका इस संबंध मेंक्या ख्याल है?वे खादी पहनने

कल मुझसे कोई पूछता था कि मोरारजी देसाई खादी में पोलिएस्टर मिलाकर पोलिएस्टर खादी बनाना चाहते हैं। आपका इस संबंध मेंक्या ख्याल है?वे खादी पहनने वाले व्यक्ति हैं। और उनकोइससे बड़ा दुख हो रहा है कि खादी अशुद्ध होजाएगी। मैंने कहा: भाड़ में जाए तुम्हारी खादी। पोलिएस्टर अशुद्ध हो जाएगा। मैं सौ प्रतिशत पोलिएस्टर पहनता हूं। पोलिएस्टर अशुद्ध तो न करो। खादी तो तुम्हारी जाए जहां जाना हो।

खादी से मुझेकुछ लेना—देना नहीं है। खादी की बकवास इस देश को गरीब रखेगी। मैं तो पोलिएस्टर के पक्ष में हूं; मगर सौ प्रतिशत पोलिएस्टर! उसमें और खादी मिलाकर क्यों खराब करते हो? हर चीज को अशुद्ध करने को क्यों मोरारजी भाई तुले हैं?अब मजा यह है, अस्सी प्रतिशत उसमें पोलिएस्टर होगा, वह जो खादी बनने वाली है। उसका पोलिएस्टर खादी नाम होगा।

अस्सी प्रतिशत पोलिएस्टर होगा, बीस प्रतिशत खादी होगी। क्यों धोखा देते हो दुनिया को? क्या प्रयोजन है? साफ—साफ क्यों नहीं कहते कि पोलिएस्टर की जरूरत है, खादी की जरूरत नहीं है। यह बेईमानी क्यों कर रहे हो? अस्सी प्रतिशत पोलिएस्टर है तो सौ ही प्रतिशत क्यों नहीं? कम से कम शुद्ध तो होगा।

यह बीस प्रतिशत खादी डालकर किसको धोखा दे रहे हो?मगर हमारी पुरानी धारणाएं, उनको हम छोड़नानहीं चाहते। इसको हम पोलिएस्टर खादी कहेंगे। मगर खादी बनी रहेगी, खादी नहीं जाएगी। अब चरखे बना लिए हैं उन्होंने जो बिजली से चलेंगे। मगर उसको कहेंगे चरखा! चरखा ही चलाना है बिजली से, तो मिलों का क्या कसूर है? मगर हम अपनी पुरानी लीकों को बड़ी मुश्किल से छोड़ते हैं।

हम उनको पकड़े ही रखते हैं। जो चीज हमारी जिंदगी को खराब किए है, उसको भी हम जोर से पकड़े रखते हैं। हम चिल्लाए चले जाते हैं कि यह तो हम छोड़ेंगे नहीं। और अगर कभी मजबूरी में छोड़ना भी पड़ता है, क्योंकि जीवन बदला जाता है, सारा जगत बदल जाता है, तो भी हम आवरण रखते हैं।

बीस प्रतिशत खादी मिला देंगे, खादी का बहाना तो रहेगा। कहने को तो रहेगा, हम खादी पहने हुए हैं।गए दिन खादी के। और खादी के साथ कोई देश अमीर नहीं हो सकता। और मैं कोई कारण नहीं देखता कि देश अमीर क्यों न हो! मैं कोई कारण नहीं देखता कि लोग समृद्ध क्यों न हों! मैं कोई कारण नहीं देखता कि समृद्धि सादगी के विपरीत है। समृद्धि की भी एक सादगी होती है; सादगी की भी एक समृद्धि होती है।

दरिद्रता को ही सादगी के साथ क्यों जोड़ रखा है? दीनता को सादगी के साथ क्यों जोड़ रखा है? सौंदर्य की भी एक सादगी होती है।

आभिजात्य में भी एक सादगीहोती है। अगर सादगी ही चुननी है, तो कुछ ऊंचाई की सादगी चुनो, जो ज्यादा रसपूर्ण होगी, ज्यादा रुचिकर होगी।

कहै वाजिद पुकार,
    प्रवचन-९,
     ओशो

मैंने सुना है, एक गरीब आदमी की झोपड़ी पर…रात जोर की वर्षा हो रही थी। फकीर था; छोटी—सी झोपड़ी थी। स्वयं और उसकी पत्नी, दोनों सोए थे। आधी रात किसी ने द्वार पर दस्तक दी। फकीर ने अपनी पत्नीसे कहा: उठ

मैंने सुना है, एक गरीब आदमी की झोपड़ी पर…रात जोर की वर्षा हो रही थी। फकीर था; छोटी—सी झोपड़ी थी। स्वयं और उसकी पत्नी, दोनों सोए थे। आधी रात किसी ने द्वार पर दस्तक दी। फकीर ने अपनी पत्नीसे कहा: उठ, द्वार खोल दे। पत्नी द्वार के करीब सो रही थी। पत्नी ने कहा: इस आधी रात में जगह कहां है?

कोई अगर शरण मांगेगा तो तुम मना न कर सकोगे। वर्षा जोर की हो रही है। कोई शरण मांगने के लिए ही द्वार आया होगा। जगह कहां है? उसफकीर ने कहा: जगह? दो के सोने के लायक काफी है, तीन के बैठने के लायक काफी होगी।

तू दरवाजा खोल! लेकिन द्वार आए आदमी को वापिस तो नहीं लौटाना है। दरवाजा खोला। कोई शरण ही मांग रहा था; भटक गया था और वर्षा मूसलाधार थी। तीनों बैठकर गपशप करने लगे। सोने लायक तो जगह न थी।थोड़ी देर बाद किसी और आदमी ने दस्तक दी। फिर फकीर ने अपनी पत्नी से कहा: खोल।

पत्नी ने कहा: अब करोगे क्या, जगह कहां है? अगर किसी ने शरण मांगी? उस फकीर ने कहा: अभी बैठने लायक जगह है, फिरखड़े रहेंगे; मगर दरवाजा खोल। फिर दरवाजा खोला। फिर कोई आ गया। अब वे खड़े होकर बातचीत करने लगे। इतना छोटा झोपड़ा!और तब अंततः एक गधे ने आकर जोर से आवाज की, दरवाजे को हिलाया। फकीर ने कहा: दरवाजा खोलो। पत्नी ने कहा: अब तुम पागल हुए हो, यह गधा है, आदमी भी नहीं!

फकीर ने कहा: हमने आदमियों के कारण दरवाजा नहीं खोला था, अपने हृदय के कारणखोला था। हमें गधे और आदमी में क्या फर्क? हमने मेहमानों के लिए दरवाजा खोला था। उसने भी आवाज दी है। उसने भी द्वार हिलाया है। उसने अपना काम पूरा कर दिया, अब हमें अपना काम पूरा करना है। दरवाजा खोलो! उसकी औरत ने कहा: अब तो खड़े होने की भी जगह नहीं है!

उसने कहा: अभी हम जरा आराम से खड़े हैं, फिर सटकर खड़े होंगे। और याद रख एक बात कि यह कोई अमीर का महल नहीं है कि जिसमें जगह की कमी हो! यह गरीब का झोपड़ा है, इसमें खूब जगह है!यह कहानी मैंने पढ़ी, तो मैं हैरान हुआ। उसने कहा: यह कोई अमीर का महल नहीं है जिसमें जगह न हो। यह गरीब का झोपड़ा है, इसमें खूब जगह है।

जगह महलों में और झोपड़ों में नहीं होती, जगह हृदयों में होती है। अक्सर तुम पाओगे, गरीब कंजूस नहीं होता। कंजूस होने योग्य उसके पास कुछ है ही नहीं। पकड़े तो पकड़े क्या? जैसे—जैसे आदमी अमीर होता है, वैसे कंजूस होने लगता है; क्योंकि जैसे—जैसे पकड़ने को होता है, वैसे—वैसे पकड़ने का मोह बढ़ता है, लोभ बढ़ता है। निन्यानबे का चक्कर पैदा हो जाता है। जिसके पास निन्यानबे रुपए हैं, उसका मन होता है कि किसी तरह सौ हो जाएं। तुम उससे एक रुपया मांगो, वह न दे सकेगा, क्योंकि एक गया तो अट्ठानबे हो जाएंगे।

अभी सौ की आशा बांध रहा था, अब हुए पूरे, अब हुए पूरे। नहीं दे पाएगा। लेकिन जिसके पास एक ही रुपया है, वह दे सकता है। क्योंकि सौ तो कभी होने नहीं हैं। यह चला ही जाएगा रुपया।

कहै वाजिद पुकार,
प्रवचन-९, ओशो