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Thursday, 17 March 2016

ओशो-दर्शन कुछ वर्ष पहले पहलगांव (कश्मीर) में एक घटना घटी, जो मुझे भूले नहीं भूलती। एक वृक्ष के नीचे बैठा था। ऊंचाई पर वृक्षमें छोटा—सा एक घोंसला था,

ओशो-दर्शन
कुछ वर्ष पहले पहलगांव (कश्मीर) में एक घटना घटी, जो मुझे भूले नहीं भूलती। एक वृक्ष के नीचे बैठा था। ऊंचाई पर वृक्षमें छोटा—सा एक घोंसला था,

और जो घटना उस घोंसले में घट रही थी उसे मैं देर तक देखता रहा, क्योंकि वही घटना शिष्य और गुरु के बीच घटती है। कुछ ही दिन पहले अंडा तोड़कर किसी पक्षी का एक बच्चा बाहर आया होगा, अभी भी वह बहुत छोटा है।

उसके माता—पिता दोनों कोशिश कर रहे हैं कि वह घोंसले पर पकड़ छोड़ दे और आकाश में उड़े। वे सब उपाय करते हैं। वे दोनों उड़ते हैं आसपास घोंसले के, ताकि वह देख ले कि देखो हम उड़ सकते हैं, तुम भी उड़ सकते हो।

लेकिन अगर बच्चे को सोच—विचार रहा हो तो बच्चा सोच रहा होगा, तुम उड़ सकते हो, उससे क्या प्रमाण कि हम भी उड़ सकेंगे; तुम तुम हो, हम हम हैं; तुम्हारे पास पंखहैं—माना, लेकिन मेरे पास पंख कहां हैं?क्योंकि पंखों का पता तो खुले आकाश मेंउड़ो तभी चलता है;

उसके पहले पंखों का पता ही नहीं चल सकता है। कैसे जानोगे कि तुम्हारे पास भी पंख हैं, अगर तुम चले ही नहीं, उड़े ही नहीं?तो बच्चा बैठा है किनारे घोंसले के, पकड़े है घोंसले के किनारे को जोर से; देखता है, लेकिन भरोसा नहीं जुटा पाता। मां—बाप लौट आते हैं, फुसलाते हैं, प्यार करते हैं; लेकिन बच्चा भयभीत है।

बच्चा घोंसले को पकड़ रखना चाहता है, वह ज्ञात है। वह जाना—माना है। और छोटी जान और इतना बड़ा आकाश! घोंसला ठीक है, गरम है, सब तरफ से सुरक्षित है; तूफान भीआ जाए तो भी कोई खतरा नहीं है, भीतर दुबकरहेंगे।

सब तरह की कोशिश असफल हो जाती है। बच्चा उड़ने को राजी नहीं है।यह अश्रद्धालु चित्त की अवस्था है। कोई पुकारता है तुम्हें, आओ खुले आकाश में, तुम अपने घर को नहीं छोड़ पाते।

तुम अपने घोंसले को पकड़े हो। खुला आकाश बहुत बड़ा है, तुम बहुत छोटे हो। कौन तुम्हें भरोसा दिलाए कि तुम आकाश से बड़े हो? किस तर्क से तुम्हें कोई समझाए कि दो छोटे पंखों के आगे आकाश छोटा है?

कौन—सा गणित तुम्हें समझा सकेगा? क्योंकि नापजोख की बात हो तो पंख छोटे हैं, आकाश बहुत बड़ा है। पर बात नाप—जोखकी नहीं है। दो पंखों की सामर्थ्य उड़नेकी सामर्थ्य है: बड़े से बड़े आकाश में उड़ा जा सकता है।

और पंख पर भरोसा आ जाए तो आकाश शत्रु जैसा न दिखाई पड़ेगा, स्वतंत्रता जैसा दिखाई पड़ेगा; आकाश मित्र हो जाएगा।परमात्मा में छलांग लेने से पहले भी वैसा ही भय पकड़ लेता है।

गुरु समझाता है, फुसलाता है, डांटता है, डपटता है, सब उपाय करता है—किसी तरह एक बार…।

-ओशो -
सुन भई साधो–(प्रवचन–17)

मेरे पास आये हो तो मैं तुम्हें परमात्मानहीं देना चाहता, मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूँ। और जिसके पास भी जीवन हो, उसे परमात्मा मिल जाता है।

मेरे पास आये हो तो मैं तुम्हें परमात्मानहीं देना चाहता, मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूँ। और जिसके पास भी जीवन हो, उसे परमात्मा मिल जाता है।

जीवन परमात्मा का पहला अनुभव हैं। और चूँकि मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूँ, इसलिए तुम्हैं सिकोड़ना नहीं चाहता, तुम्हें फैलाना चाहता हूँ।

तुम्हें मर्यादाओं में बाँध नहीं देना चाहता; तुम्हें अनुशासन के नामपर गुलाम नहीं बनाना चाहता हूँ. तुम्हें सब तरह की स्वतंत्रता देना चाहता हूँ ताकि तुम फैलो, विस्तीर्ण होओ। तुम्हें बोध देना चाहता हूँ, आचरण नहीं। तुम्हें अंतश्चेतना देना चाहता दूँ, अंतःकरण नहीं।

तुम्हें एक समझ देना चाहता हूँ जीने की, जीने को हजार रंगों में जीने की; तुम्हें जिंदगी एक इंद्रधनुप कैसे वन जाए इसकी कला देना चाहता हूँ; तुम कैसे नाच सको और तुम्हारे ओंठों पर बाँसुरी कैसे आ जाए, इसके इशारे देना चाहता दूँ।

और मेरी समझ और मेरा जानना ऐसा है, जो आदमी गीत गाना जान ले, उसके मुँह से गालियां निकलनी बंद हो जाती हैं।

मैं तुम्हें गालियां छोड़ने पर जोर देना ही नहीं चाहता, गीत गाना सिखाना चाहता हूँ। यह विधायकता है।मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूँ। और जीवन नृत्य करता हुआ, गीत गाता हुआ, जीवन उत्सवपूर्ण।

एक बार तुम्हारे जीवन में उत्सव आ जाए, एक बार तुम्हें पंख पसारने की कला आ जाए, एक बार धीरे—धीरे तुम्हें फिर पंख फैलाने का अभ्यास आ जाए, फिर आस्था आ जाए, फिर तुम थोडे प्रयोग करके पंख उड़ाना सीख लो, फिर तुम्हें कौन रोक सकेगा? फिर यह सारा आकाश तुम्हारा है।

परमात्मा तो तुम्हें मिल जाएगा, बस तुम जीवित हो जाओ। या इसे और दूसरी भाषा में कहें तो यूँ—परमात्मा तो तुम्हें मिल जाएगा, तुम आत्मवान हो जाओ। असली बात आत्मा है।

जो भी आत्मबान है, परमात्मा उनकी संपदा है। आत्मबान को पुरस्कार मिलता है परमात्मा का।

OshoZorba The Buddha

महावीर और बुद्ध के कारण भारत के वे भूमिखंड जहां वे जीए, "विहार' कहलाने लगा। लेकिन विहार शब्द को समझना। विहार का मतलब है

महावीर और बुद्ध के कारण भारत के वे भूमिखंड जहां वे जीए, "विहार' कहलाने लगा। लेकिन विहार शब्द को समझना। विहार का मतलब है-

विहार बड़े सुख की, महासुख की दशा है--जब चित्त बिलकुल स्थिर हो जाता है, जब कोई चीज डांवांडोलनहीं करती, कोई विकल्प मन में नहीं रह जाते और चित्त निर्विकल्प होता है; जब तुम्हारी दिशा सत्य की तरफ सीधी और साफहो जाती है, जब तुम रोज-रोज रास्ते नहींबदलते, जब तुम्हारा प्रवाह संयत हो जाता है, तब तुम्हारे जीवन में एक महासुख का आविर्भाव होता है

वैसे महासुखी का जहां-जहां विचरण होता है, वह भूमिखंड भी सुख से भर जाता है; वह भूमिखंड भी, हवा के कण भी, वृक्ष-पहाड़-पर्वत भी, नदी-नाले भी उसकी आंतरिक-आभा को झलकाने लगते हैं।कथाएं हैं बड़ी प्यारी कि महावीर जहां से निकल जाते, कुम्हलाये वृक्ष हरे हो जाते। महावीर जहां से निकल जाते, असमय में वृक्षों में फूल लग जाते। ऐसा हुआ होगा, ऐसा मैं नहीं कहता हूं। ऐसा होना चाहिए, ऐसा जरूर कहता हूं।

जिन्होंने ये कहानियां गढ़ी हैं, उन्होंने बड़े गहरे काव्य को अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने जीवन के सत्य को बड़ी गहरी भाषा दी है। मानता नहीं कि वृक्षों ने ऐसा किया होगा--आदमी नहीं करते, वृक्षों की तो बात क्या; आदमी नहीं खिलते, तो वृक्षों की तो बात क्या है--लेकिन ऐसा होना चाहिए। लेकिन अगर वृक्षों में फूल न खिले हों तो जिन्होंने कहानी लिखी उनका कोई दोष नहीं,

वृक्षों की भूल रही होगी। वे चूक गये। इसमें कवि क्या करे! कवि ने तो बातठीक-ठीक कह दी, ऐसा होना चाहिए था। नहींहुआ, वृक्ष नासमझ रहे होंगे। अगर असमय फूल न खिले, तो चूक फूलों की है; उसमें महावीर क्या करें? महावीर ने स्थिति तो पैदा कर दी थ

वृक्षों में थोड़ी भी समझ होती तो फूल खिलने चाहिए थे। वातावरण मौजूद था--और मौसम क्या चाहिए,महावीर मौजूद थे! अब किसकी और प्रतीक्षा थी? और किस वसंत की अब अभीप्सा है? वसंत मौजूद था। इससे बड़ा वसंत कभी पृथ्वी पर आया है? खिले हों तोठीक, न खिले हों, फूलों की गलती; महावीर का कोई कसूर नहीं है।

तुममें से भी बहुत महावीर के पास से गुजरे होंगे, क्योंकि नया तो यहां कोई भी नहीं है। सभी बड़े पुराने यात्री हैं। जराजीर्ण! सदियों-सदियों चले हैं। तुममें से भी कुछ जरूर महावीर के पास गुजरे होंगे। नहीं महावीर, तो मुहम्मद के पास गुजरे होंगे। नहीं मुहम्मद, तो कृष्ण के पास गुजरे होंगे।

ऐसा तो असंभव है इस विराऽऽऽट और अनंत की यात्रा में तुम्हें कभी कोई महावीर-जैसा पुरुष न मिला हो। अगर तुम्हारे फूल न खिले, तो कसूर तुम्हारा है। मौसम तो आया था, द्वार पर खड़ा था, वसंत ने तो दस्तक दी थी, तुम सोये पड़े रहे। तालमेल बैठ जाए, फूल खिल जाते हैं।

जिन-सूत्र,
भाग-२,
ओशो

मुल्ला नसरुद्दीन इंग्लैंड घूमने गया। लंदन हवाई अड्डे से होटल की दूरी लगभग दस मील थी। नसरुद्दीन को बोर होताहुआ देख टैक्सी ड्राइवर बोला :

मुल्ला नसरुद्दीन इंग्लैंड घूमने गया। लंदन हवाई अड्डे से होटल की दूरी लगभग दस मील थी। नसरुद्दीन को बोर होताहुआ देख टैक्सी ड्राइवर बोला :

“आपको होटल तक पहुंचने में करीब आधा घंटा लगेगा, तब तक आप कहीं ऊब न जाएं, इसलिए आपसे एक सवाल पूछता हूं; सवाल बड़ा कठिन नहीं है!”

मुल्ला ने कहा : “पूछो—पूछो! मेरे लिए कुछ कठिन नहीं है?”टैक्सी ड्राइवर बोला :”मेरे मां—बाप की एक ही संतान है, जो न मेरा भाई और न मेरी बहन है; बताइए वह कौन है?”

नसरुद्दीन बड़ी उलझन में फंस गया। उसने बहुत सिर मारा, लेकिन समझ ही न आए कि ऐसाहो ही कैसे सकता है! मां—बाप की संतान या तो भाई होगा या बहन होगी। अंततः सोचते—सोचते समय बीत गया, होटल आ गया।ड्राइवर ने व्यंग्य से पूछा :

“कहिए, महाशय जी! मैंने पहले ही कहा था न, सवाल बड़ा कठिन है; अच्छे—अच्छों को जवाब नहीं सूझता!”बेचारे मुल्ला ने हार मान ली। ड्राइवर ने बताया, “अरे, सीधी—सी बात है, मैं खुद अपने मां—बाप की संतान हूं,

एकमात्र, मगर न मैं खुद का भाई हूं, न खुद की बहन हूं।”जब नसरुद्दीन भारत वापस आया तो उसके मित्रों ने वापस लौटने की खुशी में एक पार्टी दी। मौका मिलते ही मुल्ला ने दोस्तों से वही सवाल पूछा। वह तो मौके की तलाश में ही था। बोला : “यारो, एक प्रश्न पूछता हूं। मेरे मां—बाप की एकऔलाद है, जो न रिश्ते में मेरा भाई लगता है और न बहन लगती है, तो बताओ वह कौन है?”

इस प्रश्न को सुनकर ढब्बूजी ने दांतों तले अंगुली दबा ली, चंदूलाल अपनी चांद पर हाथ फेरने लगे और मटकानाथ ब्‌राह्मचारी अपनी भारी—भरकम तोंद पर। भोंदूमल से तो फिर कोई आशा ही न थी। सबने पराजित होकर कहा :

मुल्ला, तुम्हीं जवाब दो, हमारी तो अक्ल काम नहीं करती, कि जो तुम्हारे मां—बाप की ही संतान है, किंतु न तुम्हारा भाई है, नबहन है, तो आखिर वह कौन हो सकता है फिर?”

गर्व से छाती फुलाकर नसरुद्दीन बोला : “अरे, वही लंदन का टैक्सी ड्राइवर!”उधार ज्ञान बस ऐसा ही हो सकता है। वह तुम्हारी प्रतिभा नहीं। वह तुम्हारी प्रज्ञा नहीं। वह तुम्हारा बोध नहीं। तुम दोहरा सकते हो, लेकिन दोहराने से तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति घटित नहीं हो सकती है। और मैं चाहता हूं तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित हो। मैं चाहता हूं तुम्हारे भीतर पड़ा हुआ बीज वृक्ष बने। फूल बने।

|| ओशो |•

महावीर बारह वर्ष तक मौन खड़े रहे, जंगलों में, पर्वतों में, पहाड़ों में। जब अतिशय रस का अतिरेक हुआ, भागे आए। भाग गये थे जिस ब

महावीर बारह वर्ष तक मौन खड़े रहे, जंगलों में, पर्वतों में, पहाड़ों में। जब अतिशय रस का अतिरेक हुआ, भागे आए। भाग गये थे जिस बस्ती से, उसी में वापिस लौट आए; ढूंढ़ने लगे लोगों को, पुकारने लगे, बांटने लगे। अब घटा था अब इसे रखना कैसे संभव है! जैसे एक घड़ी आती है, नौ महीने के बाद, मां का गर्भ परिपक्व हो जाता है। फिर तो बच्चा पैदा होगा। फिर तो उसे नहीं गर्भ में रखा जा सकता।

अब तक संभाला, अब तो नहीं संभाला जा सकता। उसे बांटना होगा।शास्त्रों ने बहुत कुछ बात बहुत तरह सेमहावीर, बुद्ध और ऐसे पुरुषों का संसार का त्याग करके पहाड़ों और वनों में चले जाना, इसकी कथा कही है। लेकिन वह कथा अधूरी है। दूसरा हिस्सा, जो ज्यादा महत्वपूर्ण है, उन्होंने छोड़ ही दिया।

दूसरा हिस्सा जो ज्यादा महत्वपूर्ण है, वह है उनका वापिस लौट आना लोक-मानस के बीच। एक दिन जरूर वे जंगल चले गये थे। तब उनके पास कुछ भी न था। जब गये थे तब खाली थे। खाली थे, इसीलिए गये थे, ताकि भर सकें। इस भीड़-भाड़ में, इस उपद्रव में, इस विषाद में, इस कलह में शायद परमात्मा से मिलना न हो सके।

तो गये थे एकांत में, गये थे मौन में, शांतिमें, ताकि चित्त थिर हो जाए, पात्रता निर्मित हो जाए। लेकिन भरते ही भागे वापिस।वह दूसरा हिस्सा ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि दूसरे हिस्से में ही वह असली में महावीर हुए हैं।

पहले हिस्से में वर्धमान की तरह गये थे। जब लौटे तो महावीर की तरह लौटे। जब बुद्ध गये थे तो गौतम सिद्धार्थ की तरह गये थे। जब आए तो बुद्ध की तरह आए। यह कोई और ही आया। यह कुछ नया ही आया।

जिन-सूत्र,
ओशो

★★★★ सजगता है एक मात्र उपाय ★★★★ छींकने जैसे बहुत सरल कृत्य भी उपाय कीतरह काम में लाए जा सकते हैं। क्योंकि वे कितने ही सरल दिखे, दरअसल वे बहुत जटिल हैं। और जो आंतरिक व्यवस्था है वहबहुत नाजुक चीज है।जब भी तुम्हें लगे कि छींक आ रही है, सजगहो जाओ।

★★★★ सजगता है एक मात्र उपाय ★★★★

छींकने जैसे बहुत सरल कृत्य भी उपाय कीतरह काम में लाए जा सकते हैं। क्योंकि वे कितने ही सरल दिखे, दरअसल वे बहुत जटिल हैं। और जो आंतरिक व्यवस्था है वहबहुत नाजुक चीज है।जब भी तुम्हें लगे कि छींक आ रही है, सजगहो जाओ।

संभव है कि सजग होने पर छींक न आए, चली जाए। कारण यह है कि छींक गैर - स्वैच्छिक चीज है -- अचेतन। तुम स्वेच्छा से, चाह कर नहीं छींक सकते हो, तुम जबरदस्ती नहीं छींक सकते हो।जब तुम छींक के आने के पूर्व सजग हो जाते हो - तुम उसे ला नहीं सकते,

लेकिन वह जब अपने आप ही आ रही हो और तुम सजग हो जाते हो - तो संभव है कि वह न आए। क्योंकि तुम उसकी प्रक्रिया में कुछ नयी चीज जोड़ रहे हो, सजगता जोड़ रहे हो।और जब सजगता आती है तो संभव है कि छींक नआए।

अगर तुम सचमुच सजग होगे, तो वह नहीं आएगी। शायद छींक एकदम खो जाए। तब तीसरीबात घटित होती है। जो ऊर्जा छींक की राह से निकलने वाली थी वह अब कहां जाएगी?वह ऊर्जा तुम्हारी सजगता में जुड़ जाती है। अचानक बिजली सी कौंधती है।

जो ऊर्जा छींक बनकर बाहर निकलने जा रही थीवही ऊर्जा तुम्हारी सजगता में जुड़ जाती है और तुम अचानक अधिक सावचेत हो जाते हो। बिजली की उस कौंध में बुद्धत्व भी संभव है।

~ ओशो ~
(तंत्र सूत्र, भाग #3, प्रवचन #41)

एक मुसलमान फकीर हुआ—हाजी मोहम्मद। साधु पुरुष था। एक रात उसने सपना देखा कि वह मर गया है और एक चौराहे पर खड़ा है, जहां से एक रास्ता स्वर्ग को जाता है,

एक मुसलमान फकीर हुआ—हाजी मोहम्मद। साधु पुरुष था। एक रात उसने सपना देखा कि वह मर गया है और एक चौराहे पर खड़ा है, जहां से एक रास्ता स्वर्ग को जाता है, एक नरक को; एक रास्ता पृथ्वी को जाता है,एक मोक्ष को। चौराहे पर एक देवदूत खड़ा है—एक फरिश्ता, और वह हर आदमी को उसके कर्मों के अनुसार रास्ते पर भेज रहा है।


हाजी मोहम्मद तो जरा भी घबडाया नहीं; जीवनभर साधु था। हर दिन की नमाज पांच बार पूरी पढ़ी थी। साठ बार हज की, इसलिए हाजी मोहम्मद उसका नाम हो गया।

अकड़कर जाकर द्वार पर खड़ा हो गया देवदूत के सामने। देवदूत ने कहा, ‘हाजी मोहम्मद! ‘ देवदूत ने इशारा किया, ‘नरक की तरफ यह रास्ता है।’ हाजी मोहम्मद ने कहा, ‘ आप समझे नहीं शायद। कुछ भूल—चूक हो रही है। साठ बार हज किये हैं।

’देवदूत ने कहा, ‘वह व्यर्थ गयी; क्योंकिजब भी कोई तुमसे पूछता तो तुम कहते, हाजी मोहम्मद! तुमने उसका काफी फायदा जमीन पर ले लिया। तुम बड़े अकड़ गये उसके कारण। कुछ और किया है?

’हाजी मोहम्मद के पैर थोडे डगमगा गये। जब साठ बार की हज व्यर्थ हो गयी, तो अब आशा टूटने लगी। उसने कहा, ‘हाँ, रोज पांचबार की नमाज पूरी—पूरी पढ़ता था।’ उस देवदूत ने कहा, ‘वह भी व्यर्थ गयी; क्योंकि जब कोई देखने वाला होता था तो तुम जरा थोड़ी देर तक नमाज पढ़ते थे।

जब कोई भी न होता तो तुम जल्दी खत्म कर देते थे। तुम्हारी नजर परमात्मा पर नहीं थी; देखने वालों पर थी। एक बार तुम्हारे घर कुछ लोग बाहर से आये हुए थे, तो तुम बड़ी देर तक नमाज पढ़ते रहे। वहनमाज झूठी थी।

ध्यान में परमात्मा न था,वे लोग थे। लोग देख रहे है तो जरा ज्यादा नमाज, ताकि पता चल जाये कि मैं धार्मिक आदमी हूं—हाजी मोहम्मद; वह बेकार गयी; कुछ और किया है?’

अब तो हाजी मोहम्मद घबड़ा गया और घबड़ाहट में उसकी नींद टूट गयी। सपने के साथ जिंदगी बदल गयी। उस दिन से उसने अपने नाम के साथ हाजी बोलना बंद कर दिया। नमाज छिपकर पढ़ने लगा; किसी को पता भी न हो।

गांव में खबर भी पहुंच गयी कि हाजी मोहम्मद अब धार्मिक नहीं रहा। कहते हैं कि नमाजतक बंद कर दी है! बुढ़ापे में सठिया गया है। लेकिन उसने इसका कोई खंडन न किया। वह चोरी छिपे नमाज पढ़ता। वह नमाज सार्थक होने लगी। कहते है, मरकर हाजी मोहम्मद स्वर्ग गया।

तुम्हारा मन प्रार्थना भी करेगा, तो भी प्रार्थना न होने देगा। तुम्हारा मन प्रार्थना से भी अहंकार को भरने लगेगा। अपने ध्यान की चर्चा मत करना, उसे छिपाना। उसे संभालना, जैसे कोई बहुमूल्य हीरा मिल गया हो और उसे तुम छिपाते हो, उछालते नहीं फिरते हो।

संपदा को तुम गड़ा देते हो—ऐसे ही तुम ध्यान को गडा देना। उसकी तुम चर्चा मत करना। उससे तुम अहंकार मत भरने लगना। अन्यथा मन की बेल वहां भी पहुंच गयी और वह चूस लेगी। और जहां मन पहुंच जाता है, वहां धर्म नहीं है। और जहां मन नहीं पहुंचता, वहां धर्म है। मन बहिर्मुखता है। उसका ध्यान दूसरे पर होता है, अपने पर नहीं होता। ध्यान अंतर्मुखता है।

शिव सूत्र
( प्रवचन 7)

"शराब और ध्यान"शराब में हम 'वहीं' होते हैं, 'जहां' ध्यान में होते हैं।शराब में जो स्थिति 'थोड़े समय' के लिये निर्मित होती है, ध्यान में वह स्तिथि 'हमेशा' के लिये बनी रहती है। यही कारण है कि बुद्धों के सत्संग को मधुशाला यामयखाना कहा गया और सूफियों ने शराब को ध्यान के प्रतिक रूप में चुना।शराब में कैसे निर्मित होती है ध्यान वाली स्थिति?


जब हम अपने शरीर में शराब डालते हैं, तो थोड़ी देर के बाद ही शराब हमारे शरीर की कोशिकाओं को शिथिल करना शुरू कर देती है। यानि हमारा शरीर धीरे-धीरे नशे में अर्थात नींद या बेहोशी में जाने लगता है।शराब पीने के बाद हमारा शरीर ठीक उसी स्थिति में आ जाता है, जिस स्थिति में वह नींद में होता है।

यानि 'जागते' हुए 'नींद' में जाना। और जैसे ही हमारा शरीर नशे में या नींद में जाता है, हमारी श्वास गहरी होने लगती है, जैसी नींद मेंहोती है। धीरे-धीरे हमारा शरीर उस तल पर आ जाता है, जिस तल पर वह नींद में होता है। लेकिन हम 'जागे' हुए होते हैं।शराब में यदि हम बैठे हुए, या कि खडे़ हुए होते हैं तो हम 'जागते' हुए नींद मेंहोते हैं। और यदि हम लेट जाते हैं, तो हमवास्तविक नींद में चले जाते हैं, अर्थात सो जाते हैं।

इसलिए ज्यादातर लोग, जिन्हें नींद नहीं आती, वे नींद में जाने के लिए शराब का उपयोग करते हैं। शरीर नशे में हो, तो आसानी से नींद में प्रवेश कर जाता है।शराब के साथ हम बैठे हुए या खडे़ हुए वास्तविक नींद में नहीं जा पाते, क्योंकि शरीर पूरी तरह से विश्राम में नहीं होता, तना हुआ होता है। और गहरी श्वास से शरीर को ज्यादा आक्सीजन मिलती है, जो हमें जगाये रखने में मदद करती है।

रात बिस्तर पर जब हम नींद में सोये हुए होते हैं, तब हमारा अचेतन जो कार्य करताहै, वह यह है कि हमारी इच्छाओं, आकांक्षाओं को स्वप्न के रूप में प्रकट कर उन्हें पूरी करता है।और शराब में वह वास्तविकता में प्रकट करना शुरू कर देता है। क्योंकि शराब में हम 'जागे' हुए 'नींद' में होते हैं।कहते हैं कि शराब में आदमी झूंठ नहीं बोलता। उसका कारण यह है कि शराब में हमारा शरीर नींद की भावदशा में होता है।

हमारा चेतन मन तो सोने लगता है और अचेतन जागने लगता है।दिन में जब हम जागे हुए होते हैं तो चेतन मन संस्कार, संकोच, परिवार-समाज का भय व दबाववश कुछ कह नहीं पाता। जिस मित्र या रिश्तेदार को वह पसंद नहीं करता, उसके आने पर ऊपर से तो वह मुस्कुराकर स्वागत करता है और भीतर कहता है "

यह हरामज़ादा कहाँ से आ गया! अब घंटे भर तक भेजा खाए बगैर नहीं जायेगा!" और यदि मालिक या बाॅस परेशान करता है, तो ऊपर से तो दुम हिलाकर "जी सर... यस सर...।" कहता है, और भीतर गालियाँबक रहा होता है।चेतन मन ने भीतर जो भी बातें कही थी, वे बातें सच थी और बाहर व्यवहार में जो दर्शा रहा था, वह झूंठ है।

अचेतन को बाहर के व्यवहार का पता नहीं होता, लेकिन चेतन मन ने भीतर जो कहा था, उसे वहसुन लेता है या वे सारी बातें अचेतन में चली जाती है। बाहर के व्यवहार और बातों से वह मुक्त होता है। उसे पता ही नहीं होता कि सामने वाला मित्र है, रिश्तेदार है, मालिक या बाॅस है। वह सीधे - सीधे वे सारी बातें कह देता है, जो चेतन मन संकोचवश बाहर नहीं कह पाया था और भीतर कही थी।शराब में चेतन मन के हटते ही, अचेतन वे सारी बातें नि:संकोच कह देता है।

अक्सरतो लोग जो बातें सामने नहीं कह पाते, उन्हें कहने के लिए शराब का उपयोग करतेहैं। अचेतन परिणाम की चिंता नहीं करता, क्योंकि उसके पास कहने को वे ही बातें थी जो चेतन ने भीतर कही थी या कि दबायी थी।शराब में हम 'जागे' हुए होते हैं तो अचेतन सामने कह देता है।और यदि हम सोयेहुए हों तो वह स्वप्न में कहता है। तभी तो नशा उतरने पर जब चेतन मन लौटता है तो क्षमा मांग कर कहता है कि "मैं होश में नहीं था।" या कि "मैं नशे में था।

"शराब में जैसे-जैसे हमारा शरीर नशे (बेहोशी या नींद) में जाने लगता है, वैसे-वैसे ही हमारा मन भी शिथिल होकर बेहोशी में जाने लगता है।हमारा शरीर और मन दोनों संयुक्त है, क्योंकि दोनों की गतिविधियां एक-दूसरे का अनुगमन करने की रही है। जिस तरह मन में कामवासना के विचार मात्र से हमारा शरीर सक्रिय हो उठता है,ठीक उसी तरह शरीर के नशे में झूमने या शिथिल और शांत होने पर मन भी शिथिल और शांत होने लगता है।... और जैसे ही मन शांत होने लगता है, विचार भी शांत होकर बिखरने लगते हैं।... और जैसे ही मन से विचारों की तरंगें शांत होकर बिखरने लगती है, वैसे ही दो विचारों के बीच जो अंतराल (गैप) है, वह बढने लगता है।... और अंतराल के बढ़ने के साथ ही अचेतन की प्रतीति होनी शुरू हो जाती है।

यानि शराब में हमारा अचेतन में प्रवेश होता है, जिसे चौथा मानस शरीर कहा गया है और जिसका चक्र है अनाहत। अर्थात हमारा निर्विचार चेतना में प्रवेश होता है, जिसे 'ध्यान' कहा गया है।शराब में जो आनंद है, वह शराब का नहीं, निर्विचार चेतना के प्रकट होने का है। शराब तो बस वह स्थिति निर्मित करती है, जिसमें हमारा शरीर और मन दोनों शांत होविश्राम में चले जायें। और उनके विश्राम में जाते ही निर्विचार चेतना प्रकट हो जाती है।ध्यान की सारी विधियां, सारे प्रयोग यही काम करते हैं। शरीर और मन दोनों को विश्राम में ले जाते हैं ताकि निर्विचार चेतना प्रकट हो सके। फर्क सिर्फ इतना है कि शराब तुरंत शरीर को उस स्थिति में, यानि विश्राम में ले जाती है और ध्यान विधियां समय मांगती है।

शराब 'थोड़े समय' के लिए शरीर को उस स्थिति में ले जाती है और ध्यान प्रयोग'हमेशा' के लिए।शराब में हमारा निर्विचार चेतना में प्रवेश 'होता' है। और ध्यान में हम निर्विचार चेतना में प्रवेश 'करते' हैं। शराब में हम असजग होते हैं, बेहोश होते हैं, और हमारा साक्षी होना भी खो जाता है। ध्यान में हम सजग होते हैं, होश में होते हैं, साक्षी होते हैं। शराब में सिर्फ हानि ही होती है, शरीर की भी और चेतना की भी। और ध्यान में सिर्फ लाभ होता है, गहरी श्वास से प्राणवायु मिलती है, जो शरीर को स्वस्थ रखती है। और होश या साक्षी से हमारी चेतना के निखरने के साथ ही आध्यात्मिक विकास जारी रहता है।शराब के साथ यदि साक्षी को जोड़ दिया जाये, तो शराब 'छोड़नी' नहीं पड़ती, 'छूटती' है। और यदि ध्यान के साथ साक्षी जोड़ दिया जाये। हम अपने शरीर, अपनी श्वास के साक्षी हो जायें, तो श्वास लयबद्धता में चलने लगेगी, यानि नाभि को छूएगी, तो शरीर विश्राम में जाने लगेगा।

शरीर विश्राम में, तो मन विश्राम में... मन विश्राम में, तो विचार विश्राम में... और विचारों के विश्राम में जाते ही महाविश्राम... यानि निर्विचार चेतना... अर्थात ऐसा नशा, जो कभी नहीं उतरता... ध्यान का नशा।

-स्वामी ध्यान उत्सव