कुछ भी ध्यान बन सकता है"धूम्रपान ध्यान "एक व्यक्ति मेरे पास आया। तीस वर्ष से वह सतत धूम्रपान की लत से पीड़ित था। वह बीमार था, और डाॅक्टर उसे कहते " जब तक तुमधूम्रपान करना छोड़ोगे नहीं, कभी स्वस्थ नहीं हो पाओगे।
" लेकिन वह तो बहुत समय से धूम्रपान से पूर्णतः ग्रसित था, वह उसकी बाबत कुछ कर नहीं सकता था। उसने प्रयास भी किया था —
ऐसा नहीं है कि उसने प्रयास नहीं किया था —उसने कठोर प्रयास किया था,और इस प्रयास करने में उसने बहुत कुछ झेला भी था, लेकिन एक या दो दिन ही बीतते कि फिर से ऐसी जोर की तलब उठती, कि उसे बहका ले जाती।
वह फिर से उसी ढर्रे में लौट जाता।इस धूम्रपान की वजह से ही उसका सारा आत्मविश्वास जाता रहा था : उसे पता था कि वह एक छोटा सा काम भी नहीं कर सकता था, सिगरेट पीना नहीं छोड़ सकता था। वह अपनी ही दृष्टि में बिलकुल अयोग्य हो गया था, वह स्वयं को संसार का सबसे बेकार व्यक्तिमानने लगा था।
उसे अपने लिए कोई सम्मान नहीं रह गया था। वह मेरे पास आया।उसने पूछा "मैं क्या कर सकता हूं? मैं धूम्रपान कैसे छोड़ सकता हूं?" मैंने कहा"धूम्रपान कोई भी नहीं छोड़ सकता। यह तुम्हे समझ लेना है। धूम्रपान करना अब कोई तुम्हारे निर्णय का ही प्रश्न नहीं है। वह तुम्हारे व्यसनों के जगत में प्रवेश कर गया है, उसने जड़ें जमा ली है। तीस वर्ष एक लंबा समय है। उसने तुम्हारे शरीर में, तुम्हारे रसायन में जड़ें पकड़ली है, वह सारे शरीर में फैल गया है।
यह तुम्हारे मस्तिष्क के निर्णय लेने का ही प्रश्न नहीं रह गया है, तुम्हारा मस्तिष्क कुछ भी नहीं कर सकता। मस्तिष्क नपुंसक है, वह चीजों को शुरू कर सकता है, लेकिन इतनी सरलता से उन्हें रोक नहीं सकता। एक बार तुम शुरू हो गए और एक बार तुमने इतना लंबा अभ्यास कर लिया, तुम तो बड़े योगी हो गए —तीस वर्ष से धूम्रपान का अभ्यास चलता है! अब तो यह स्वचलित ही हो गया है, तुम्हें उसे अ-यंत्रवत करना होगा।" वह बोला, "अ - यंत्रवत करने से आपकाक्या तात्पर्य है?"और यही तो ध्यान का सारा उद्देश्य है —अ-यंत्रवत होना।
मैंने कहा "तुम एक काम करो : छोड़ने की बात भूल जाओ। उसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। तीस वर्ष तक तुमने धूम्रपान किया और तुम उसे जी लिए, निश्चित ही तुम्हें उसमें कष्ट तो हुआ परंतु तुम उसके भी आदी हो गए हो। और इससे क्या फर्क पड़ता है यदि तुम उससे कुछ घंटे पहले मर जाओ जब तुम धूम्रपान न करने पर मरते? यहां तुम करोगे क्या? तुमने क्या कर लिया है? तो सार ही क्या है —
तुम सोमवार को मारो या मंगल को मरो या रविवार को, इस वर्ष मरो कि उस वर्ष —इससे फर्क हीक्या पड़ता है?"उसने कहा "हां, यह सच है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।" तो मैंने कहा "भूल जाओ इस बारे में। हम छोड़ने वाले नहीं हैं, बल्कि हम तो इसे समझेंगे। तो अगली बार, तुम इसे एक ध्यान बना लो।"वह बोला "धूम्रपान का ध्यान?"मैंने कहा "हां। जब झेन साधक चाय पीने को ध्यान बना सकते हैं और उसका उत्सव मना सकते हैं, तो क्यों नहीं धूम्रपान भी उतना ही सुंदर ध्यान हो सकता है।"वह तो रोमांचित नजर आने लगा। वह बोला "आप क्या कह रहे हैं?"वह तो जैसे जी उठा। बोला "ध्यान?
मुझे बताएं —मैं प्रतिक्षा नहीं कर सकता!"मैंने उसे ध्यान बताया। मैंने कहा "एक काम करो। जब तुम सिगरेट का पैकेट अपनी जेब से निकालो, तो धीरे-धीरे निकालो। उसका आनंद लो, कोई जल्दी नहीं है। सचेत, सजग, जागरूक रहो। उसे पूरे होश के साथ धीरे-धीरे निकालो। फिर पैकेट में से सिगरेट निकालो तो पूरे होश के साथ धीरे-धीरे —पहले की तरह जल्दबाजी से, बेहोशी में, यंत्रवत होकर नहीं। फिर सिगरेट को पैकेट पर ठोंको —लेकिन बड़े होश के साथ। उसकी आवाज़ को सुनो, जैसे झेनसाधक सुनते हैं जब समोवार गीत गाने लगता है और चाय उबलनेलगती है... और उसकी सुवास! फिर सिगरेट को सूंघो और उसके सौंदर्य को...। "वह बोला " आप क्या कह रहे हैं? सौंदर्य? ""
हां उसमें सौंदर्य है। तंबाकू भी उतनी ही दिव्य है जितनी कोई अन्य चीज। उसे सूंघो, वह परमात्मा की सुगंध है। "वह थोड़ा हैरान हुआ। वह बोला, " क्या! आप मजाक कर रहे हैं? "" नहीं, मैं मजाक नहीं कर रहा। जब मैं मजाकभी करता हूँ तो मजाक नहीं करता। मैं गंभीर हूँ।"फिर पुरे होश के साथ उसे अपने मुँह में रखो, पूरे होश के साथ उसे जलाओ। हर कृत्य का, हर छोटे - छोटे कृत्य का आनंद लो, और उसे जितने छोटे - छोटे खंडों में हो सके बांट लो, ताकि तुम और - और सजग हो सको।" फिर पहला कश लो : जैसे धुंए के रूप में परमात्मा हो।
हिंदू कहते हैं 'अन्नं ब्रम्ह' —'अन्न ब्रम्ह है'। तो फिर धुंआ क्यों नहीं? सभी कुछ परमात्मा है। अपने फेफड़ों को पूरी तरह से भर लो —यह एक प्राणायाम है। मैं तुम्हे नए युग के लिए नया योग दे रहा हूँ! फिर धुंए को छोड़ो, विश्राम करो, फिर दूसरा कश —और बहुत धीरे-धीरे पीओ।यदि तुम ऐसा कर पाओ तो तुम चकित होओगे, शीघ्र ही तुम्हें इसकी सारी मूढ़ता नजर आजाएगी —इसलिए नहीं कि दूसरों ने इसे मूढ़तापूर्ण कहा है, इसलिए नहीं कि दूसरों ने इसे बुरा कहा है। तुम्हें इसकादर्शन होगा। और यह दर्शन मात्र बौद्धिक ही नहीं होगा। यह तुम्हारे पूरे प्राणों से आएगा, यह तुम्हारी समग्रता का बोध होगा। और फिर किसी दिन धूम्रपान छूट जाए, तो छूट जाए, और चलता रहे, तो चलता रहे। तुम्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है।
"तीन महीने बाद वह आया और बोला " लेकिन मेरी सिगरेट तो छूट गई। "" अब" मैंने कहा "इसे दूसरी चीजों के साथ भी करके देखो।"यही राज है : अयंत्रवत हो जाना।चलते हुए, धीरे-धीरे होशपूर्वक चलो। देखते हुए, होशपूर्वक देखो, और तुम पाओगे कि वृक्ष इतने ज्यादा हरे हो गए, जितने हरे वे कभी न थे। और गुलाब इतने ज्यादा गुलाबी हो गए, जितने कि वे कभी न थे। सुनो!कोई बात कर रहा है, गप-शप कर रहा है : सुनो, सजग होकर सुनो। जब तुम बोल रहे हो, तो सजग होकर बोलो। जाग्रत अवस्था के अपने सभी कृत्यों को अयंत्रवत हो जाने दो।
-ओशोध्यान योग