मेरा साथी मेरी ईर्ष्या करता है और मुझेबहुत महत्वपूर्ण बनाता है जितनी कि मैंनहीं हूं।स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिनगलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है--आत्मार्थ।अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराईनहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहताहूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है।
क्योंकि धर्म काअर्थ स्वभाव है।और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससेपरार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससेपरार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी औरका कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख देसकेगा! इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहताहूं, अपने को प्रेम करो।
इसके पहले कि तुम दूसरों केजीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कमसे कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसकेपहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाशकी किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तोप्रकाश को निमंत्रित करो। इसको स्वार्थ कहते हो! चलो स्वार्थही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है!
लेकिन यह स्वार्थ बिलकुल जरूरी है। यह दुनियाज्यादा सुखी हो जाए, अगर लोग ठीकअर्थों में स्वार्थी हो जाएं।और जिस आदमी ने अपना सुख नहींजाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लगजाता है तो बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहींकि सुख क्या है?
वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपनेलगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभवनहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जोउसके जीवन में हुआ है।समझो कि तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें एक तरह की शिक्षादी--तुम मुसलमान-घर में पैदा हुए, कि हिंदू-घर में पैदाहुए, कि जैन-घर में, तुम्हारे मां-बाप ने जल्दी से तुम्हेंजैन, हिंदू या मुसलमान बना दिया। उन्होंने यह सोचा हीनहीं कि उनके जैन होने से, हिंदू होने से उन्हें सुखमिला है? नहीं,
वे एकदम तुम्हें सुख देने में लग गए।तुम्हें हिंदू बना दिया, मुसलमान बना दिया। तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हेंधन की दौड़ में लगा दिया। उन्होंने यह सोचाभी नहीं एक भी बार कि हमधन की दौड़ में जीवनभर दौड़े, हमें धनमिला है? धन से सुख मिला है? उन्होंने जो किया था,वही तुम्हें सिखा दिया। उनकीभी मजबूरी है, और कुछ सिखाएंगेभी क्या? जो हम सीखे होते हैंउसी की शिक्षा दे सकते हैं।
उन्होंनेअपनी सारी बीमारियां तुम्हें सौंपदीं। तुम्हारी धरोहर बस इतनीही है। उनके मां-बाप उन्हें सौंप गए थेबीमारियां, वे तुम्हें सौंप गए, तुम अपने बच्चों को सौंपजाओगे।कुछ स्वार्थ कर लो, कुछ सुख पा लो, ताकि उतना तुम अपने बच्चोंको दे सको, उतना तुम अपने पड़ोसियों को दे सको। यहां हरआदमी दूसरे को सुखी करने में लगा है,और यहां कोई सुखी है नहीं। जो स्वादतुम्हें नहीं मिला, उस स्वाद को तुम दूसरे को कैसे देसकोगे? असंभव है।मैं तो बिलकुल स्वार्थ के पक्ष में हूं।
मैं तो कहता हूं, मजहबमतलब की बात है। इससे बड़ा कोई मतलबनहीं है। धर्म यानी स्वार्थ। लेकिनबड़ी अपूर्व घटना घटती है, स्वार्थकी ही बुनियाद पर परार्थ का मंदिर खड़ाहोता है।तुम जब धीरे-धीरे अपनेजीवन में शांति, सुख, आनंद की झलकें पानेलगते हो, तो अनायास ही तुम्हारा जीवनदूसरों के लिए उपदेश हो जाता है।
तुम्हारे जीवन सेदूसरों को इंगित और इशारे मिलने लगते हैं। तुम अपने बच्चों कोवही सिखाओगे जिससे तुमने शांति जानी।तुम फिर प्रतिस्पर्धा न सिखाओगे, प्रतियोगिता न सिखाओगे, संघर्ष-वैमनस्य न सिखाओगे। तुम उनके मन में जहर न डालोगे।इस दुनिया में अगर लोग थोड़े स्वार्थी हो जाएं तो बड़ापरार्थ हो जाए।
अब तुम कहते हो कि 'क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदिकरना निपट स्वार्थ नहीं है?'निपट स्वार्थ है। लेकिन स्वार्थ में कहींभी कुछ बुरा नहीं है। अभीतक तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ भीनहीं है। तुम कहते हो, धन कमाएंगे, इसमें स्वार्थहै; पद पा लेंगे, इसमें स्वार्थ है; बड़ा भवन बनाएंगे, इसमें स्वार्थहै। मैं तुमसे कहता हूं, इसमें स्वार्थ कुछ भीनहीं है। मकान बन जाएगा, पद भी मिलजाएगा, धन भी कमा लिया जाएगा--
अगर पागल हुए तोसब हो जाएगा जो तुम करना चाहते हो--मगर स्वार्थ हलनहीं होगा। क्योंकि सुख न मिलेगा। और स्वयं का मिलनभी नहीं होगा। और न जीवनमें कोई अर्थवत्ता आएगी। तुम्हारा जीवनव्यर्थ ही रहेगा, कोरा, जिसमें कभी कोईवर्षा नहीं हुई। जहां कभी कोई अंकुरनहीं फूटे, कभी कोई हरियालीनहीं और कभी कोई फूलनहीं आए। तुम्हारी वीणाऐसी ही पड़ी रहजाएगी, जिसमें कभी किसी नेतार नहीं छेड़े। कहां का अर्थ और कहां का स्व!तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ नहीं है,सिर्फ मूढ़ता है। और जिसको तुम स्वार्थ कहकर कहते हो किकैसे मैं करूं?
मैं तुमसे कहता हूं, उसमें स्वार्थ है और परमसमझदारी का कदम भी है। तुम यहस्वार्थ करो।इस बात को तुम जीवन के गणित का बहुत आधारभूतनियम मान लो कि अगर तुम चाहते हो दुनिया भली हो, तोअपने से शुरू कर दो--तुम भले हो जाओ।फिर तुम कहते हो, 'परमात्मा मुझे यदि मिले भी, तोउससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उनलोगों के लिएदंड ही मांगना पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषणहै, दुख है और अन्याय है।
'क्या तुम सोचते हो तुम उन लोगों में सम्मिलित नहीं हो?क्या तुम सोचते हो वे लोग कोई और लोग हैं? तुम उन लोगों सेभी तो पूछो कभी! वे भीयही कहते हुए पाए जाएंगे कि दूसरों के कारण। कौनहै दूसरा यहां? किसकी बात कर रहे हो? किसको दंडदिलवाओगे? तुमने शोषण नहीं किया है? तुमने दूसरे कोनहीं सताया है? तुम दूसरे कीछाती पर नहीं बैठ गए हो, मालिकनहीं बन गए हो? तुमने दूसरों को नहींदबाया है? तुमने वही सब किया है, मात्रामें भले भेदहों। हो सकता है तुम्हारे शोषण की प्रक्रिया बहुतछोटे दायरे में चलती हो, लेकिन चलती है।तुम जी न सकोगे। तुम अपने से नीचे केआदमी को उसी तरह सता रहे हो जिसतरह तुम्हारे ऊपर का आदमी तुम्हें सता रहा है।
यह सारा जाल जीवन का शोषण का जाल है, इसमें तुमएकदम बाहर नहीं हो, दंड किसके लिए मांगोगे?और जरा खयाल करना, दंड भी तो दुख हीदेगा दूसरों को! तो तुम दूसरों को दुखी हीदेखना चाहते हो! परमात्मा भी मिल जाएगातोभी तुम मांगोगे दंड ही! दूसरों को दुख देनेका उपाय ही! तुम अपनी शांति तक छोड़नेको तैयार हो!
ओशो:
एस धम्मो सनंतनो, प्रवचन 93