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Sunday, 27 March 2016

जहां-जहां अहंकार चेष्टा करता हैवहीं-वहीं बलात्कार हो जाता है।यह बलात्कार अनेक रूपों में है।लेकिन फिर भी हम जो देखेंगे,हम सदा ऐसा ही देखेंगे कि अगर एक व्यक्ति किसी स्त्री के साथ रास्ते पर बलात्कार कर रहा हो, तो सदा बलात्कार करनेवाला हीजिम्मेवार मालूम पड़ेगा।

जहां-जहां अहंकार चेष्टा करता हैवहीं-वहीं बलात्कार हो जाता है।यह बलात्कार अनेक रूपों में है।लेकिन फिर भी हम जो देखेंगे,हम सदा ऐसा ही देखेंगे कि अगर एक व्यक्ति किसी स्त्री के साथ रास्ते पर बलात्कार कर रहा हो, तो सदा बलात्कार करनेवाला हीजिम्मेवार मालूम पड़ेगा।

लेकिन हमें खयाल नहीं है कि स्त्री बलात्कार करवाने के लिए कितनी चेष्टाएं कर सकती है। क्योंकि अगर पुरुष को इसमें रस आता है कि वह स्त्री को जीत ले तो स्त्री को भी इसमें रस आता है कि वह किसी को इस हालत में ला दे।

कीर्कगार्ड ने अपनी एक अदभुत किताब लिखी है— डायरी आफ ए सिडयूसर, एक व्यभिचारी की डायरी। उसमें कीर्कगार्ड ने लिखा है कि वह जो व्यभिचारी है, जो डायरी लिख रहा है, एक काल्पनिक कथा है।

वह व्यभिचारी जीवन के अंत में यह लिखताहै कि मैं बड़ी भूल में रहा, मैं समझता था,मैं स्त्रियों को व्यभिचारके लिए राजी कर रहा हूं। आखिर में मुझे पता चला कि वे मुझसे ज्यादा होशियार हैं कि उन्होंने ही मेरे साथ व्यभिचार करवा लिया था । दे सिडयूस्ड मी। दैट टेकनीक वाज निगेटिव।इसलिए मुझे भ्रम बना रहा।

कोई स्त्री कभी प्रस्ताव नहीं करती किसी पुरुष से विवाह करने का। प्रस्ताव करवा लेती है पुरुष से ही। इंतजाम सब करती है कि वह प्रस्ताव करे। प्रस्ताव करती नहीं है।यह स्त्री और पुरुष के मन का भेद है।स्त्री के मन का ढंग बहुत सूक्ष्म है।

आप देखते हैं कि अगर एक आदमी जा रहा है एक स्त्री को धक्का मारने, तो फौरन हमेंलगता है कि गलती इसने किया।और वह स्त्री घर से पूरा इंतजाम करके चली है कि अगर कोई धक्का न मारे तो उदास लौटेगी। धक्का मारे तो भी चिल्ला सकती है। लेकिन चिल्लाने का कारण जरूरी नहीं है कि धक्का मारने पर नाराजगी है।

चिल्लाने का सौ में निन्यानबे कारण यह है कि बिना चिल्लाये किसी को पता नहीं चलेगा कि धक्का मारा गया।पर यह बहुत गहरे में उसको भी पता न हो, इसकी पूरी संभावना है। क्योंकि स्त्रीजितनी बन-ठनकर, जिस व्यवस्था से निकल रही है, वह धक्का मारने के लिए पूरा का पूरा निमंत्रण है।

उस निमंत्रण में हाथ उनका है। हमारे सोचने के जो ढंग हैं वे एकदम हमेशा पक्षपाती हैं। हम हमेशा सोचते हैं,कुछ हो रहा है तो एक आदमी जिम्मेवार है। हमें खयाल ही नहीं आता कि इस जगत में जिम्मेवारी इतनी आसान नहीं, ज्यादा उलझी हुई है।दूसरा भी जिम्मेवार हो सकता है। और दूसरे की जिम्मेवारी गहरी भी हो सकती है। कुशल भी हो सकती है। चालाक भी हो सकती है। सूक्ष्म भी हो सकती है।

महावीर वाणी,
    भाग-१,
  प्रवचन#६,
   ओशो

★★ सारी दुनिया में स्त्रियों का शारीरिक दमन ★★हम शारीरिक गति का दमन करते हैं। विशेषकरहम स्त्रियों को दुनियाभर में शारीरिक हलन - चलन करने से रोकते हैं। वे संभोग में लाश

★★ सारी दुनिया में स्त्रियों का शारीरिक दमन ★★हम शारीरिक गति का दमन करते हैं।

विशेषकरहम स्त्रियों को दुनियाभर में शारीरिक हलन - चलन करने से रोकते हैं। वे संभोग में लाश की तरह पड़ी रहती हैं। तुम उनके साथ जरूर कुछ कर रहे हो, लेकिन वे तुम्हारे साथ कुछ भी नहीं करतीं, वे निष्क्रिय सहभागी बनी रहती हैं।

ऐसा क्यों होता है? क्यों सारी दुनिया में पुरुष स्त्रियों को इस तरह दबाते हैं?कारण भय है। क्योंकि एक बार अगर स्त्री का शरीर पूरी तरह कामाविष्ट हो जाए तो पुरुष के लिए उसे संतुष्ट करना बहुत कठिनहो जाएगा।

क्योंकि स्त्री एक श्रृंखला में, एक के बाद एक अनेक बार ऑर्गैज्म के शिखर को उपलब्ध हो सकती है, पुरुष वैसा नहीं हो सकता।पुरुष एक बार ही ऑर्गैज्म के शिखर - अनुभव को छू सकता है, स्त्री अनेक बार छू सकती है। स्त्रियों के ऐसे अनुभव के अनेकविवरण मिले हैं।

कोई भी स्त्री एक श्रृंखला में तीन - तीन बार शिखर - अनुभव को प्राप्त हो सकती है, लेकिन पुरुष एक बार ही हो सकता है। सच तो यह है कि पुरुष के शिखर - अनुभव से स्त्री और - और शिखर - अनुभव के लिए उत्तेजित होती है, तैयार होती है। तब बात कठिन हो जाती है। फिर क्या किया जाए?स्त्री को तुरंत दूसरे पुरुष की जरूरत पड़जाती है। और सामूहिक कामाचार निषिद्ध है।

सारी दुनिया में हमने एक विवाह वाले समाज बना रखे हैं। हमें लगता है कि स्त्री का दमन करना बेहतर है। फलत: अस्सी से नब्बे प्रतिशत स्त्रियां शिखर - अनुभव से वंचित रह जाती हैं। वे बच्चों को जन्म दे सकती हैं, यह और बात है। वे पुरुषों को तृप्त कर सकती हैं, यह भी और बात है।

लेकिन वे स्वयं कभी तृप्त नहीं हो पातीं। अगर सारी दुनिया की स्त्रियां इतनी कड़वाहट से भरी हैं, दुखी हैं, चिड़चिड़ी हैं, हताश अनुभव करती हैं तो यह स्वाभाविक है। उनकी बुनियादी जरूरत पूरीनहीं होती।
~ ओशो ~
(तंत्र सूत्र, भाग #3, प्रवचन #33)

मेरा साथी मेरी ईर्ष्या करता है और मुझेबहुत महत्वपूर्ण बनाता है जितनी कि मैंनहीं हूं।स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिनगलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है--आत्मार्थ।अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराईनहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहताहूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है।

मेरा साथी मेरी ईर्ष्या करता है और मुझेबहुत महत्वपूर्ण बनाता है जितनी कि मैंनहीं हूं।स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिनगलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है--आत्मार्थ।अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराईनहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहताहूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है।

क्योंकि धर्म काअर्थ स्वभाव है।और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससेपरार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससेपरार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी औरका कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख देसकेगा! इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहताहूं, अपने को प्रेम करो।

इसके पहले कि तुम दूसरों केजीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कमसे कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसकेपहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाशकी किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तोप्रकाश को निमंत्रित करो। इसको स्वार्थ कहते हो! चलो स्वार्थही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है!

लेकिन यह स्वार्थ बिलकुल जरूरी है। यह दुनियाज्यादा सुखी हो जाए, अगर लोग ठीकअर्थों में स्वार्थी हो जाएं।और जिस आदमी ने अपना सुख नहींजाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लगजाता है तो बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहींकि सुख क्या है?

वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपनेलगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभवनहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जोउसके जीवन में हुआ है।समझो कि तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें एक तरह की शिक्षादी--तुम मुसलमान-घर में पैदा हुए, कि हिंदू-घर में पैदाहुए, कि जैन-घर में, तुम्हारे मां-बाप ने जल्दी से तुम्हेंजैन, हिंदू या मुसलमान बना दिया। उन्होंने यह सोचा हीनहीं कि उनके जैन होने से, हिंदू होने से उन्हें सुखमिला है? नहीं,

वे एकदम तुम्हें सुख देने में लग गए।तुम्हें हिंदू बना दिया, मुसलमान बना दिया। तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हेंधन की दौड़ में लगा दिया। उन्होंने यह सोचाभी नहीं एक भी बार कि हमधन की दौड़ में जीवनभर दौड़े, हमें धनमिला है? धन से सुख मिला है? उन्होंने जो किया था,वही तुम्हें सिखा दिया। उनकीभी मजबूरी है, और कुछ सिखाएंगेभी क्या? जो हम सीखे होते हैंउसी की शिक्षा दे सकते हैं।

उन्होंनेअपनी सारी बीमारियां तुम्हें सौंपदीं। तुम्हारी धरोहर बस इतनीही है। उनके मां-बाप उन्हें सौंप गए थेबीमारियां, वे तुम्हें सौंप गए, तुम अपने बच्चों को सौंपजाओगे।कुछ स्वार्थ कर लो, कुछ सुख पा लो, ताकि उतना तुम अपने बच्चोंको दे सको, उतना तुम अपने पड़ोसियों को दे सको। यहां हरआदमी दूसरे को सुखी करने में लगा है,और यहां कोई सुखी है नहीं। जो स्वादतुम्हें नहीं मिला, उस स्वाद को तुम दूसरे को कैसे देसकोगे? असंभव है।मैं तो बिलकुल स्वार्थ के पक्ष में हूं।

मैं तो कहता हूं, मजहबमतलब की बात है। इससे बड़ा कोई मतलबनहीं है। धर्म यानी स्वार्थ। लेकिनबड़ी अपूर्व घटना घटती है, स्वार्थकी ही बुनियाद पर परार्थ का मंदिर खड़ाहोता है।तुम जब धीरे-धीरे अपनेजीवन में शांति, सुख, आनंद की झलकें पानेलगते हो, तो अनायास ही तुम्हारा जीवनदूसरों के लिए उपदेश हो जाता है।

तुम्हारे जीवन सेदूसरों को इंगित और इशारे मिलने लगते हैं। तुम अपने बच्चों कोवही सिखाओगे जिससे तुमने शांति जानी।तुम फिर प्रतिस्पर्धा न सिखाओगे, प्रतियोगिता न सिखाओगे, संघर्ष-वैमनस्य न सिखाओगे। तुम उनके मन में जहर न डालोगे।इस दुनिया में अगर लोग थोड़े स्वार्थी हो जाएं तो बड़ापरार्थ हो जाए।

अब तुम कहते हो कि 'क्या ऐसी स्थिति में ध्यान आदिकरना निपट स्वार्थ नहीं है?'निपट स्वार्थ है। लेकिन स्वार्थ में कहींभी कुछ बुरा नहीं है। अभीतक तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ भीनहीं है। तुम कहते हो, धन कमाएंगे, इसमें स्वार्थहै; पद पा लेंगे, इसमें स्वार्थ है; बड़ा भवन बनाएंगे, इसमें स्वार्थहै। मैं तुमसे कहता हूं, इसमें स्वार्थ कुछ भीनहीं है। मकान बन जाएगा, पद भी मिलजाएगा, धन भी कमा लिया जाएगा--

अगर पागल हुए तोसब हो जाएगा जो तुम करना चाहते हो--मगर स्वार्थ हलनहीं होगा। क्योंकि सुख न मिलेगा। और स्वयं का मिलनभी नहीं होगा। और न जीवनमें कोई अर्थवत्ता आएगी। तुम्हारा जीवनव्यर्थ ही रहेगा, कोरा, जिसमें कभी कोईवर्षा नहीं हुई। जहां कभी कोई अंकुरनहीं फूटे, कभी कोई हरियालीनहीं और कभी कोई फूलनहीं आए। तुम्हारी वीणाऐसी ही पड़ी रहजाएगी, जिसमें कभी किसी नेतार नहीं छेड़े। कहां का अर्थ और कहां का स्व!तुमने जिसको स्वार्थ समझा है, उसमें स्वार्थ नहीं है,सिर्फ मूढ़ता है। और जिसको तुम स्वार्थ कहकर कहते हो किकैसे मैं करूं?

मैं तुमसे कहता हूं, उसमें स्वार्थ है और परमसमझदारी का कदम भी है। तुम यहस्वार्थ करो।इस बात को तुम जीवन के गणित का बहुत आधारभूतनियम मान लो कि अगर तुम चाहते हो दुनिया भली हो, तोअपने से शुरू कर दो--तुम भले हो जाओ।फिर तुम कहते हो, 'परमात्मा मुझे यदि मिले भी, तोउससे अपनी शांति मांगने के बजाय मैं उनलोगों के लिएदंड ही मांगना पसंद करूंगा जिनके कारण संसार में शोषणहै, दुख है और अन्याय है।

'क्या तुम सोचते हो तुम उन लोगों में सम्मिलित नहीं हो?क्या तुम सोचते हो वे लोग कोई और लोग हैं? तुम उन लोगों सेभी तो पूछो कभी! वे भीयही कहते हुए पाए जाएंगे कि दूसरों के कारण। कौनहै दूसरा यहां? किसकी बात कर रहे हो? किसको दंडदिलवाओगे? तुमने शोषण नहीं किया है? तुमने दूसरे कोनहीं सताया है? तुम दूसरे कीछाती पर नहीं बैठ गए हो, मालिकनहीं बन गए हो? तुमने दूसरों को नहींदबाया है? तुमने वही सब किया है, मात्रामें भले भेदहों। हो सकता है तुम्हारे शोषण की प्रक्रिया बहुतछोटे दायरे में चलती हो, लेकिन चलती है।तुम जी न सकोगे। तुम अपने से नीचे केआदमी को उसी तरह सता रहे हो जिसतरह तुम्हारे ऊपर का आदमी तुम्हें सता रहा है।

यह सारा जाल जीवन का शोषण का जाल है, इसमें तुमएकदम बाहर नहीं हो, दंड किसके लिए मांगोगे?और जरा खयाल करना, दंड भी तो दुख हीदेगा दूसरों को! तो तुम दूसरों को दुखी हीदेखना चाहते हो! परमात्मा भी मिल जाएगातोभी तुम मांगोगे दंड ही! दूसरों को दुख देनेका उपाय ही! तुम अपनी शांति तक छोड़नेको तैयार हो!

ओशो:
एस धम्मो सनंतनो, प्रवचन 93

कल आपने कहा कि कवि और शायर भी कभी-कभी ज्ञान की बातें करते हैं। लेकिन यदि वे शराब न पीते, बेहोशी में न पड़े होते तो सिद्ध हो जाते। तो क्या शराब पीते हुए भी व्यक्ति सिद्ध नहीं हो सकता??? ओशो >

कल आपने कहा कि कवि और शायर भी कभी-कभी ज्ञान की बातें करते हैं। लेकिन यदि वे शराब न पीते, बेहोशी में न पड़े होते तो सिद्ध हो जाते। तो क्या शराब पीते हुए भी व्यक्ति सिद्ध नहीं हो सकता???

  ओशो >
शराब पीते ही सभी व्यक्ति सिद्ध होते है। ऐसे ही सिद्ध होते हैं। सिद्ध होकरशराब छूट जाती है।तुम जिसको शराब कहते हो, उसको ही शराब नहीं कह रहा हूं मैं तो पूरे संसार को शराब कह रहा हूं। वह सब नशा है।

जरा धन की दौड़ में पड़े आदमी को देखो, उसकी आंखें में तुम एक मस्ती पाओगे। रुपए कीखनकार सुनकर उसे ऐसा नशा छा जाता है, जो कि बोतलें भी पी जाओ, खाली कर जाओ तो नहीं छाता।

धन की दौड़ में पड़े आदमी को जरा गौर से देखो, कैसा मोहाविष्ट! कैसा मस्त! जैसे मंजिल बस आने के करीब है। परमात्मा से मिलन होने जा रहा है।पदाकांक्षी को देखो, पदलोलुप को देखो, राजनेता को देखो, कैसा मस्त! जमीन पर पैर नहीं पड़ते।

शराबी भी थोड़ा सम्हलकर चलते हैं। अहंकार की शराब जो पी रहे हैं, उनके पैर तो आसमान पर पड़ते हैं। सारा संसार, वासना मात्र बेहोशी है। तो अगर कोई कहता हो, यह सारी वासना छोड़ोगे तब तुम सिद्ध बनोगे, तब तुम छोडोगे कैसे? यह तो बात ऐसे हुई कि तुम चिकित्सक के पास गए, और उसने कहा, सारी बीमारियां छोड़ोगे तभी मेरी औषधि मैं तुम्हें दूंगा।

पर तब औषधि की जरूरत क्या रह जाएगी?नहीं, तुम बीमार हो यह माना, इससे कोई कठिनाई नहीं। तुम स्वस्थ होना चाहते हो, बस इतनी शर्त पूरी हो जाए। तुम स्वस्थ होना चाहते हो। तुम्हारे भीतर कोई बीमारी के पार उठने की चेष्टा में संलग्न हो गया है।

तुम्हारे भीतर कोई सीढ़ियां चढ़ने की तैयारी कर रहा है-पार जाना चाहता है इस अस्वास्थ्य से, इस वासना से, तृष्णा से, इस बेहोशी से। माना कि तुम गिर-गिर जाते हो, कीचड़ में फिर-फिर पड़ जाते हो, सब ठीक! इसमें कोई हर्जा नहीं है।

लेकिन फिर तुम उठने की कोशिश करते हो।कभी छोटे बच्चे को चलने की कला सीखते देखा? कितनी बार गिरता है? कितनी बार घुटने टूट जाते हैं, लहूलुहान हो जाता है। चमड़ी छिल जाती है। फिर-फिर उठकर खड़ा हो जाता है। एक दिन खड़ा हो जाता है। एक दिन चलना सीख जाता है।

अगर हम यह शर्त रखें कि जब तुम सब गिरना छोड़ दोगे, डांवाडोल होना छोड़ दोगे, तभी कुछ हो पाएगा, तब तो हम बच्चे की सारी आशा छीन लें। नहीं, गिरने में भी चलने का ही उपक्रम है। गिर-गिरकर उठने में भी चेष्टा चल रही है, साधना चल रही है।

हम बच्चे को कहेंगे, बेफिक्र रहो। गिरने पर ज्यादा ध्यान मत दो। वह भी चलने के मार्ग पर एक पड़ाव है।भटकने पर बहुत ज्यादा परेशान मत हो जाओ। भटकना भी पहुंचने का हिस्सा है। संसार भी परमात्मा के मार्ग पर पड़ता है। गिरो! पड़े ही मत रहो, उठने की चेष्टाजारी रहे। तो एक दिन उठना हो जाएगा।

जिसके भीतर उठने की चेष्टा शुरू हो गई, पहला कदम उठ गया। और एक छोटे से कदम से हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।लाओत्सु ने कहा है, एक कदम तुम उठाओ। दो कदम एक साथ कोई उठाता भी तो नहीं। एक-एककदम उठा-उठाकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।

तुम बेहोश हो माना, लेकिन इतने बेहोश भीनहीं कि तुम्हें पता न हो कि तुम बेहोश हो। बस, वहीं सारी संभावना है। वहीं असली सूत्र छिपा है। फिर से मुझे दोहराने दो। तुम बेहोश हो माना, लेकिन इतने बेहोश भी नहीं कि तुम्हें पता न हो कि तुम बेहोश हो। बस, उसी पता में, उसी छोटे से बीज में सब छिपा है। ठीक भूमि मिलेगी, बीज अंकुरित हो जाएगा।

ओशो,
एस धम्मो सनंतनो,
भाग -3

एक मित्र मेरे पास आते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपके पास आते डरता हूं। मन तो बहुत होता है आने का। ध्यान भी करना चाहता हूं। लेकिन एक अड़चन मन में बनी रहती है। और वह यह कि आज

एक मित्र मेरे पास आते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपके पास आते डरता हूं। मन तो बहुत होता है आने का। ध्यान भी करना चाहता हूं। लेकिन एक अड़चन मन में बनी रहती है। और वह यह कि आज नहीं कलआपको पता चल जाएगा कि मैं शराब पीता हूं।

और तब आप जरूर कहोगे कि शराब पीना छोड़ो। यह मुझसे न हो सकेगा। यह मैं कर चुका बहुत बार। हार चुका बहुत बार। अब तो मैंने आशा ही छोड़ दी। अब तो यह जीवनभर की संगी-साथिनी है। यह मुझसे न हो सकेगा। और आज नहीं कल आपको पता चल जाएगा। और फिर आप कहोगे कि ध्यान करना है तो पहले इसे छोड़ दो।

मैंने कहा कि तब तुम मुझे समझे ही नहीं। मैं तो तुमसे इतना ही कहता हूं कि तुमने चूंकि ध्यान नहीं किया, इसीलिए पी रहे हो। ध्यान महा-शक्तिशाली है। अगर ध्यान करने के लिए शराब छोड़नी पड़े तो शराब ज्यादा शक्तिशाली है। नहीं, मैं तो तुमसे कहता हूं? तुम ध्यान करो। जिस दिन ध्यान होगा, उस दिन सोच लेंगे।उन्होंने कहा, तो यह कोई शर्त नहीं है? यह कोई प्राथमिक जरूरत नहीं है? आप क्या कहते हैं? सभी शास्त्र यही कहते हैं, पहले आचरण ठीक हो, फिर ध्यान।मैंने कहा, मेरा शास्त्र यही कहता है, ध्यान ठीक हो जाए तो आचरण अपने से ठीक हो जाता है।

प्रार्थना जम जाए तो प्रेमअपने से जम जाता है। थोड़ी सी सुगंध अपनी आने लगे, तो कौन उसे भुलाना चाहता है? मैंने कहा, तुम फिक्र न करो, तुम पीएजाओ। उन्होंने कहा, तो बनेगी यह दोस्ती।पर उन्होंने बड़ी संलग्नता से, बड़ी तल्लीनता से ध्यान किया। वे आदमी साहसी थे। उन्होंने बड़ी मेहनत. अपना सारा सब कुछ लगाकर ध्यान किया। जैसे उन्होंने शराब पर सब गंवा दिया था, ऐसे ध्यान पर भी गंवा दिया।

जुआरियों से मेरी बनती है, दुकानदारों से नहीं। व्यवसायी से मेरा तालमेल नहीं बैठता। हिसाबी-किताबी से बड़ी अड़चन हो जाती है। क्योंकि ये बातें ही हिसाब-किताब की नहीं हैं। और जब मैंने उनसे कह दिया कि तुम निर्भय रहो। मैं अपने मुंह से तुमसे कभी न कहूंगा कि शराब छोड़ो।

तुम पीयो। मेरा जोर ध्यान करने पर है। शराब से मुझे क्या लेना-देना?मैंने अपना वचन निभाया तो उन्होंने भी अपना वचन निभाया। उन्होंने ध्यान बड़ी ताकत से किया। लेकिन सालभर बाद वह मुझसे आकर कहने लगे कि धोखा दिया। शराबतो गई! पीना मुश्किल होता जा रहा है। रोज-रोज मुश्किल होता जा रहा है।

मैंने कहा, मुझसे बात ही नहीं करना शराबकी। वह हमने पहले ही तय कर लिया था कि हमबात न करेंगे। वह तुम जानो। अब तुम्हारी मर्जी। अगर ध्यान चुनना हो तो ध्यान चुन लो, शराब चुननी हो शराब चुन लो। चुनाव की अब सुविधा है। अब दोनों सामने खड़े हैं। अब दोनों रसों कास्वाद मिला। अब चुन लो। अब तुम जानो। अब मुझसे मत बात करो। मेरा काम ध्यान का था, वह पूरा हो गया।

उन्होंने कहा, अबतो असंभव है लौटना पीछे। और अब तो सोच भी नहीं सकता कि ध्यान को छोडूंगा। अब तो अगर शराब जाएगी तो जाएगी।और शराब गई! शराब को जाना ही पड़ेगा। जब बड़ी शराब आ गई, कौन टुच्ची बातों से उलझता है? जब विराट मिलने लगे तो कौन ठीकरे पकड़ता है? तुम धन को पकड़ते हो, क्योंकि तुम्हें असली धन की अभी कोई खबर नहीं। मैं तुमसे धन छोड़ने को नहीं कहता, असली धन खोजने को कहता हूं। तुम पकड़े रहो धन को, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है।

यह इतना बेकार है, इससे कुछ बनता नहीं, बिगड़ेगा कैसे? तुम पीते रहो शराब, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। इससे बनता ही नहीं तो बिगड़ेगा कैसे?

ओशो,
एस धम्मो सनंतनो,
भाग -3

धर्म क्या है? मैं धर्म क्या कहूं? जो कहा जा सकता है, वहधर्म नहीं होगा। जो विचार के परे है, वह वाणी के अंतर्गत नहीं हो सकता है। शास्त्रों में जो है, वह धर्म नहीं है। शब्द ही व

धर्म क्या है?
मैं धर्म क्या कहूं? जो कहा जा सकता है, वहधर्म नहीं होगा। जो विचार के परे है, वह वाणी के अंतर्गत नहीं हो सकता है। शास्त्रों में जो है, वह धर्म नहीं है। शब्द ही वहां है। शब्द सत्य की और जाने केभले ही संकेत हों,पर वे सत्य नहीं है।

शब्दों से संप्रदाय बनते है, और धर्म दूर ही रह जाता है। इन शब्दों ने ही मनुष्य कोतोड़ दिया है। मनुष्यों के बीच पत्थरों की नहीं, शब्दों की ही दीवारें है।मनुष्य और मनुष्य के बीच शब्द की दीवारेंहै। मनुष्य और सत्य के बीच भी शब्द की ही दीवार है।

असल में जो सत्य से दूर किए हुएहै, वहीं उसे सबसे दूर किए हुए है। शब्दोंका एक मंत्र घेरा है और हम सब उसमें सम्मोहित है। शब्द हमारी निद्रा है, और शब्द के सम्मोहक अनुसरण में हम अपने आपसेबहुत दूर निकल गए है।स्वयं से जो दूर और स्वयं से जो अपरिचित है वह सत्य से निकट और सत्य से परिचित नहीं हो सकता है।

यह इसलिए कि स्वयं का सत्य ही सबसे निकट का सत्य है, शेष सब दूर है। बस स्वयं ही दूर नहीं है।शब्द स्वयं को नहीं जानने देते है। उनकी तरंगों में वह सागर छिप ही जाता है। शब्दों का कोलाहल उस संगीत को अपने तक नहीं पहुंचने देता जो कि मैं हूं।

शब्द का धुआं सत्य की अग्नि प्रकट नहीं होने देता है। और हम अपने वस्त्रों को ही जानते-जानते मिट जाते है और उसे नहीं मिलपाते जिसके वस्त्र थे, और जो वस्त्रों में था, लेकिन केवल वस्त्र ही नहीं थ।मैं भीतर देखता हूं। वहां शब्द ही शब्द दिखाई देते है।

विचार, स्मृतियाँ, कल्पनाएं और स्वप्न ये सब शब्द ही है, और मैं शब्द के पर्त-पर्त घेरों में बंधा हूं। क्या मैं इन विचारों पर ही समाप्त हूं, या कि इनसे भिन्न और अतीत भी मुझमें कुछ है। इस प्रश्न के उतर पर ही सब कुछ निर्भर है। उतर विचार से आया तो मनुष्य धर्म तक नहीं पहुंच पाता,क्योंकि विचार से अतीत को नहीं जान सकता। विचार की सीमा विचार है।

उसके पार की गंध भी उसे नहीं मिल सकती है।साधारणत: लोग विचार से ही वापिस लौट आते है। वह अदृष्य दीवार उन्हें वापिस कर देती है। जैसे कोई कुंआ खोदने जाए और कंकड़-पत्थर को पाकर निराश हो रूक जाए। वैसा ही स्वयं की खुदाई में भी हो जाता है। शब्दों के कंकड़ पत्थर ही पहले मिलतेहै और वह स्वाभाविक ही है। वे ही हमारी बाहरी पर्त है। जीवन यात्रा में उनकी ही धूल हमारा आवरण बन गई है।आत्मा को पाने को सब आवरण चीर देने जरूरी है।

वस्त्रों के पास जो नग्न सत्य है, उस पर ही रूकना है। शब्द को उस समय तक खोदे चलना है, जब तक कि निशब्द का जल स्त्रोत उपलब्ध नहीं हो जाए। विचार की धूल को हटाना है, जब तक कि मौन का दर्पण हाथ न आ जाए। यह खुदाई कठिन है। यह वस्त्रों को उतारना ही नहीं है, अपनी चमड़ी को उतारना है। यही तप है।

प्याज को छीलते हुए देखा है, ऐसा ही अपने को छीलना है। प्याज में तो अंत में कुछ भीनहीं बचता है, अपने में सब कुछ बच रहता है। सब छीलनें पर जो बच रहता है, वही वास्तविक है। वहीं मेरी प्रामाणिक सत्ताहै। वह मेरी आत्मा है।एक-एक विचार को उठाकर दूर रखते जाना है, और जानना है कि यह मैं नहीं हूं। और इस भांति गहरे प्रवेश करना है। शुभ या अशुभ को नहीं चुनना है।

वैसा चुनाव वैचारिक हीहै, और विचार के पार नहीं ले जा सकता है। यहीं नीति और धर्म अलग रास्तों के लिए हो जाते है। निति अशुभ विचारों के विरोध मेंशुभ विचारों का चुनाव है। धर्म चुनाव नहीं है। वह तो उसे जानना है, जो सब चुनाव करता है। और सब चुनावों के पीछे है। यह जानना भी हो सकता है। जब चुनाव का सब चुनाव शून्य हो और केवल वहीं शेष रह जाए तो हमार चुनाव नहीं है वरन हम स्वयं है।

विचार के तटस्थ, चुनाव शून्य निरीक्षण सेविचार शून्यता आती है। विचार तो नहीं रह जाते, केवल विवेक रह जाता है। विषय-वस्तुतो नहीं होती, केवल चैतन्य मात्र रह जाता हे। इसी क्षण में प्रसुप्त प्रज्ञा का विस्फोट होता है। और धर्म के द्वार खुल जाते है।इसी उद्घाटन के लिए मैं सबको आमंत्रित करता हूं।

शस्त्र जो तुम्हें नहीं दे सकते, वह स्वयं तुम्हीं में है। और तुम्हें जो कोई भी नहीं दे सकता, उसे तुम अभी और इसी क्षण पा सकते हो। केवल शब्द को छोड़ते ही सत्य अपलब्ध होता है।

–ओशो‘’
मैं कौन हूं?