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Friday, 18 March 2016

जितना काम दमित होगा, उतने बलात्कार होंगेअखबारों में खबर थी कि गुंडे बंबई में एक स्त्री को उसके पतिऔर बच्चों से छीनकर लेगए और धमकी दे गए कि अगर पुलिस को खबरकी तो पत्नी का खात्मा कर देंगे। रात भर पति परेशान रहा, सो नहीं सका। कैसे सोएगा? प्रतीक्षा करता रहा!

जितना काम दमित होगा, उतने बलात्कार होंगेअखबारों में खबर थी कि गुंडे बंबई में एक स्त्री को उसके पतिऔर बच्चों से छीनकर लेगए और धमकी दे गए कि अगर पुलिस को खबरकी तो पत्नी का खात्मा कर देंगे। रात भर पति परेशान रहा, सो नहीं सका। कैसे सोएगा? प्रतीक्षा करता रहा!

सुबह-सुबह पत्नीआई।इसके पहले कि पति कुछ बोले, पत्नी ने कहा कि पहले मैं स्नान कर लूँ, फिर पूरी कहानीबताऊँ। वह बाथरूम में चली गई। वहाँ उसने कैरोसिन का तेल अपने ऊपर डाल कर आग लगा लीऔर खतम हो गई।अब सब तरफ निंदा हो रही है उन बलात्कारियों की। निंदाहोनी चाहिए।लेकिन ये लक्षण हैं। ये मूल बीमारियाँ नहीं हैं। बलात्कारियों की अगर तुम ठीक-ठाक खोज करोगे तो इनके पीछे महात्मागण मिलेंगे मूल कारण में। और उनकी कोई फिक्र नहीं करता।

वही महात्मागण निंदा कर रहे हैं कि पतन हो गया, कलियुगआ गया, धर्म भ्रष्ट हो गया। इन्हीं नासमझों ने यह उपद्रव खड़ाकरवा दिया है। जब तुम काम को इतना दमित करोगे तो बलात्कार होंगे। अगर काम को थोड़ी सी स्वतंत्रता दो, अगर काम को तुम जीवन की एकसहज सामान्य साधारण चीज समझो, तो बलात्कार अपने आप बंद हो जाए।

क्योंकि न होगा दमन, न होगा बलात्कार।अब ये जो गुंडे इस स्त्री को उठा ले गए, ये स्वभावतः ऐसे लोग नहीं हो सकते जिन्होंने जीवन में स्त्री का प्रेम जाना हो। ये ऐसे लोग हैं जिनको स्त्री का प्रेम नहीं मिला। और शायद इनको स्त्री काप्रेम मिलेगा भी नहीं। स्त्री का प्रेम ये जबरदस्ती छीन रहे हैं। जबरदस्ती छीनने को कोई तभी तैयार होताहै जब उसे सहज न मिले। और प्रेम का तो मजा तब है जब वह सहज मिले।

जबरदस्ती लिए गए प्रेम का कोई मजा ही नहीं होता, कोई अर्थ ही नहीं होता।तो सहज तो प्रेम के लिए सुविधा नहींजुटाने देते तुम। और अगर सहज प्रेम की सुविधा जुटाओ तो कहते हो- समाज भ्रष्ट होरहा है। ये समाज भ्रष्ट हो रहा है चिल्लाने वाले लोग ही बलात्कारियों को पैदा करते हैं। और फिर दूसरी तरफ भी गौर करो। किसी ने भी इस तरफ गौर नहीं किया। यहस्त्री घर आई, इसने आग लगा कर अपने को मार डाला, इसकी निंदा किसी ने भी नहीं की।

बलात्कारियों की निंदा की। जरूर की जानी चाहिए। लेकिन इस स्त्री ने भी मामले को बहुत भारी समझ लिया। क्योंकिइसको भी समझाया गया है, इसका सब सतीत्व नष्ट हो गयां।क्या खाक नष्ट हो गया! सतीत्व आत्माकी बात है, शरीर की बात नहीं। क्या नष्ट हो गया? जैसे आदमी धूल से भर जाता है तो स्नान कर लेता है, तो कोई शरीर नष्ट थोड़े ही हो गया, कि शरीरगंदा थोड़े ही हो गया।यहगलत हुआ। मैं इसके समर्थन में नहीं हूँ कि ऐसा होना चाहिए।

लेकिन मैं इसके भी विरोध में हूँ कि किसी स्त्री को हम इस हालत में खड़ा कर दें कि उसको आग लगा कर मरना पडे। इसकेलिए हम भी जिम्मेवार हैं। बलात्कारी जिम्मेवार हैं और हम भी जिम्मेवार हैं। क्योंकि अगर यह स्त्री जिंदा रह जाती तो इसकोजीवन भर लांछन सहनापड़ता।

जो इसको लांछन देते, वे सब इसके पापमें भागीदार हुए। अगर यह स्त्री जिंदा रहजाती तो इसका पति भी इसको नीची नजर से देखता, इसके बच्चे भी इसको नीची नजरसे देखते, इसके पड़ोसी भी कहते कि अरे यह क्याहै, दो कौड़ी कीऔरत! हाँ, अब वे सब कह रहे हैं कि सती हो गई! बड़ा गजब का कामकिया! बड़ामहान कार्य किया! अब सती का चौरा बना देंगे। चलो एक और ढांढन सती हो गई! अब इनकी झाँकी सजाएँगे। वही मूढ़ता।

तुम सब जिम्मेवार हो इस हत्या में। बलात्कार करवाने में जिम्मेवार हो। इस स्त्री की हत्या में जिम्मेवार हो। इस स्त्री की भीनिंदा होनी चाहिए। इसमें ऐसा क्या मामला हो गया? इसका कोई कसूर न था। यह कोई स्वेच्छा से उनके साथ गई नहीं थी। अगर कोई जबरदस्ती तुम्हारे बाल काट ले रास्ते में, तो क्या तुम आग लगा कर अपने को मार डालोगे? कि हमारा सब भ्रष्ट हो गया! हमारा मामला ही खतम हो गया!.

रहिमन धागा प्रेम का
ओशो

चीन में कहानी है कि एक आदमी वर्षों तक सोचता था कि पास में एक पहाड़ पर तीर्थस्थान था वहा जाना है। लेकिन-कोईतीन-चार घंटे की यात्रा थी, दस-पंद्रह मील का

चीन में कहानी है कि एक आदमी वर्षों तक सोचता था कि पास में एक पहाड़ पर तीर्थस्थान था वहा जाना है। लेकिन-कोईतीन-चार घंटे की यात्रा थी, दस-पंद्रह मील का फासला था-वर्षों तक सोचता रहा। पास ही था, नीचे घाटी में ही रहता था, हजारों यात्री वहां से गुजरते थे, लेकिन वह सोचता था पास ही तो हूं, कभी भीचला जाऊंगा।बूढ़ा हो गया। तब एक दिन एक यात्री ने उससे पूछा कि भाई, तुम भी कभी हो? उसने कहा कि मैं सोचता ही रहा, सोचा इतना पास हूं कभी भी चला जाऊंगा।

लेकिन अब देर हो गई, अब मुझे जाना ही चाहिए। उठा, उसनेदुकान बंद की। सांझ हो रही थी। पत्नी ने पूछा, कहां जाते हो? उसने कहा मैं, अबतो यह मरने का वक्त आ गया, और मैं यही सोचता रहा इतने पास है, कभी भी चला जाऊंगा, और मैं इन यात्रियों को ही जो तीर्थयात्रा पर जाते हैं सौदा-सामान बेचता रहा। जिंदगी मेरी यात्रियों के ही साथ बीती-आने-जाने वालों के साथ। वेखबरें लाते, मंदिर के शिखरों की चर्चा करते, शाति की चर्चा करते, पहाड़ के सौंदर्य की बात करते, ‘गैर मैं सोचता कि कभी भी चला जाऊंगा, पास ही तो है।

दूर-दूर के लोग यात्रा कर गए, मैं पास रहा रह गया। मैं जाता हूं।कभी यात्रा पर गया न था। सिर्फ यात्रा की बातें सुनी थीं। सामान बाधा, तैयारी की रातभर-पता था कि तीन बजे रात निकल जाना चाहिए, ताकि सुबह-सुबह ठंडे-ठंडे पहुंच जाए। लालटेन जलाई। क्योंकि देखाथा कि यात्री बोरिया-बिस्तर ‘भी रखते हैं, लालटेन भी लेकर जाते हैं।

लालटेन लेकर गांव के बाहर पहुंचा तब उसे एक बात खयाल आई कि लालटेन का प्रकाश तो चार कदम से ज्यादा पड़ता नहीं। पंद्रह मील का फासला है। चार कदम तक पड़ने वाली रोशनी साथ है। यह पंद्रह मील की यात्राकैसे पूरी होगी? घबड़ाकर बैठ गया। हिसाब लगाया। दुकानदार था, हिसाब-किताब जानता था। चार कदम पड़ती है रोशनी,पंद्रह मील का फासला है। इतनी सी रोशनीसे कहीं जाना हो सकता है? घबड़ा गया।


हिसाब बहुतों को घबड़ा देता है।अगर तुम परमात्मा का हिसाब लगाओगे, घबड़ा जाओगे। कितना फासला है। कहां तुम, कहा परमात्मा! कहां तुम, कहा मोक्ष! कहातुम्हारा कारागृह और कहा मुक्ति का आकाश! बहुत दूर है। तुम घबड़ा जाओगे, पैर कंप जाएंगे। बैठ जाओगे, आश्वासन खो जाएगा, भरोसा टूट जाएगा।

पहुंच सकते हो,यह बात ही मन में समाएगी न।उसके पैर डगमगा गए। वह बैठ गया। कभी गया न था, कभी चला न था, यात्रा न की थी। सिर्फ लोगों को देखा था आते-जाते। उनकी नकल कर रहा था, तो लालटेन भी ले आयाथा, सामान भी ले आया था। कहते हैं, पास से फिर एक यात्री गुजरा और उसने पूछा कि तुम यहां क्या कर रहे हो? उस आदमी ने कहा, मैं बड़ी मुसीबत में हूं।

इतनी सी रोशनी से इतने दूर का रास्ता! पंद्रह मील का अंधकार, चार कदम पड़ने वाली रोशनी! हिसाब तो करो! उस आदमी ने कहा, हिसाब-किताब की जरूरत नहीं। उठो और चलो। मैं कोई गणित नहीं जानता, लेकिन इसरास्ते पर बहुत बार आया-गया हूं। और तुम्हारी लालटेन तो मेरी लालटेन से बड़ी है।

तुम मेरी लालटेन देखो-वह बहुत छोटी सी लालटेन लिए हुए था, जिससे एक कदम मुश्किल से रोशनी पड़ती थी-इससे भी यात्रा हो जाती है। क्योंकि जब तुम एक कदम चल लेते हो, तो आगे एक कदम फिर रोशन हो जाता है। फिर एक कदम चल लेते हो, फिर एक कदम रोशन हो जाता है।जिनको चलना है, हिसाब उनके लिए नहीं है।जिनको नहीं चलना है, हिसाब उनकी तरकीब है।

जिनको चलना है, वे चल पड़ते हैं। छोटी सी रोशनी पहुंचा देती है। जिनको नहीं चलना है, वे बड़े अंधकार का हिसाब लगाते हैं। वह अंधकार घबड़ा देता है। पैर डगमगा जाते हैं।साधक बनो, ज्ञानी नहीं। साधक बिना बने जो ज्ञान आ जाता है, वह कूड़ा-करकट है।

साधक बनकर जो आता है, वह बात ही और है। महावीर ठीक कहते हैं, जो चल पड़ा वह पहुंच गया; वह ज्ञानी की बात है। उस ज्ञानी की जो चला है, पहुंचा है।

ओशो,
एस धम्मो सनंतनो,
भाग -2

1937 में, तिब्बत और चीन के बीच बोकान पर्वत की एक गुफा में सात सौ सोलह पत्थर के रिकार्ड मिले हैं—पत्थर के। और वे हैं महावीर से दस हजार साल पुराने यानी आज से कोई साढ़े बारह हजार साल

1937 में, तिब्बत और चीन के बीच बोकान पर्वत की एक गुफा में सात सौ सोलह पत्थर के रिकार्ड मिले हैं—पत्थर के। और वे हैं महावीर से दस हजार साल पुराने यानी आज से कोई साढ़े बारह हजार साल पुराने। बड़े आश्चर्य के हैं, क्योंकि वे रिकार्ड ठीक वैसे ही हैं जैसे ग्रामोफोन का रिकार्ड होता है।

ठीक उनके बीच में एक छेद है, और पत्थर परग्रूव्ज हैं — जैसे कि ग्रामोफोन के रिकार्ड पर होते हैं। अब तक राज नहीं खोला जा सका है कि वे किस यंत्र पर बजाये जा सकेंगे। लेकिन एक बात तय हो गयी है — रूस के एक बड़े वैज्ञानिक डॉ. सर्जिएव ने वर्षों तक मेहनत करके यह प्रमाणित किया है कि वे हैं तो रिकार्डही।

किस यंत्र पर और किस सुई के माध्यम से वे पुनरुज्जीवित हो सकेंगे, यह अभी तय नहीं हो सका। अगर एकाध पत्थर का टुकड़ा होता तो सांयोगिक भी हो सकता था।सात सौ सोलह हैं। सब एक जैसे, जिनमें बीच में छेद हैं।

सब पर ग्रूव्ज हैं और उनकी पूरी तरह सफाई, धूल—धवांस जब अलग कर दी गयी और जब विद्युत यंत्रों से उनकी परीक्षा की गई तब बड़ी हैरानी हुई, उनसे प्रतिपल विद्युत की किरणें विकीर्णित हो रही हैंलेकिन क्या आदमी के पास आज से बारह हजार साल पहले ऐसी कोई व्यवस्था थी कि वह पत्थरों में कुछ रिकार्ड कर सके? तब तो हमें सारा इतिहास और ढंग से लिखना पड़ेगा।

जापान के एक पर्वत शिखर पर पच्चीस हजारवर्ष पुरानी मूर्तियों का एक समूह है। वे मूर्तियां ‘डोबू' कहलाती हैं। उन मूर्तियों ने बहुत हैरानी खड़ी कर दी, क्योंकि अब तक उन मूर्तियों को समझना संभव नहीं था — लेकिन अब संभव हुआ।

जिसदिन हमारे यात्री अंतरिक्ष में गये उसी दिन डोबू मूर्तियों का रहस्थ खुल गया; क्योंकि डोबू मूर्तियां उसी तरह के वस्त्र पहने हुए हैं जैसे अंतरिक्ष का यात्री पहनता है। अंतरिक्ष में यात्रियों ने, रूसी या अमरीकी एस्ट्रोनाट्स ने जिन वस्तुओं का उपयोगकिया है, वे ही उन मूर्तियों के ऊपर हैं,पत्थर में खुदे हुए।

वे मूर्तियां पच्चीस हजार साल पुरानी हैं। और अब इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है मानने का कि पच्चीस हजार साल पहले आदमी ने अंतरिक्ष की यात्रा की है या अंतरिक्ष के किन्हीं और ग्रहों से आदमी जमीन पर आता रहा है।आदमी जो आज जानता है, वह पहली बार जान रहा है, ऐसी भूल में पड़ने का अब कोई कारणनहीं है।

आदमी बहुत बार जान लेता है और भूल जाता है। बहुत बार शिखर छू लिये गये हैं और खो गये हैं। सभ्यतायें उठतीहैं और आकाश को छूती हैं लहरों की तरह और विलीन हो जाती हैं। जब भी कोई लहर आकाश को छूती है तो सोचती है : उसके पहले किसी और लहर ने आकाश को नहीं छुआ होगा।

महावीर वाणी,
भाग-१,
प्रवचन#१,
ओशो

लाओत्से कहता है, किसी चीज को अति पर मत ले जाओ; समय रहते रुक जाओ। मध्य में ठहरजाओ। न इस तरफ, न उस तरफ।

लाओत्से कहता है, किसी चीज को अति पर मत ले जाओ; समय रहते रुक जाओ। मध्य में ठहरजाओ। न इस तरफ, न उस तरफ।

वहीं साक्षी-भाव का उदय होता है, मध्य में।अगर चौदह वर्ष के बच्चे को ठीक से शिक्षित किया जा सके तो हम उसे तरकीब बताएंगे कि वह जीवन में उतरे, लेकिन अतिपर न जाए; मध्य में रहे।

जीवन के अनुभव से गुजरे, लेकिन अति पर न जाए। क्योंकि एक अति दूसरे अति पर ले जाती है। अगर वह भोग में बहुत उतर गया तो त्यागी हो जाएगा कभी न कभी। और दोनों गलत हैं।

अगर दुर्जन हुआ तो कभी न कभी सज्जन हो जाएगा। अगर सज्जन हुआ तो कभी न कभी दुर्जन हो जाएगा। क्योंकि एक अति पर पहुंच कर चीजें बुढ़ा जाती हैं।

फिर वहां से लौटना पड़ता है दूसरी अति पर। क्योंकि एक अति पर जब तुम जाते हो तो तुम्हें दिखता है कि जीवन दूसरी अति परहै।

भोगी सोचता है, त्यागी बड़े आनंद में है।तुम्हें त्यागी का पता नहीं। त्यागी सोचता है, भोगी सारी दुनिया का मजा ले रहा है; हम मुफ्त मारे गए। हम न मालूम किस बात में फंस गए। मैं दोनों को जानता हूं। भोगी दुखी है, भोग की चिंताएं हैं। त्यागी दुखी है, क्योंकि त्याग की चिंताएं हैं।

भोगी वासना के कारण दुखी है, क्योंकि वह उलझा रही है। त्यागी वासना को दबाने के कारण दुखी है,क्योंकि वह मवाद की तरह भीतर बढ़ रही है।अगर व्यक्ति ठीक, सम्यक राह पकड़े तो इतना भोग में जाने की जरूरत नहीं है कि त्याग पैदा हो जाए।

मध्य में ठहर जाना जरूरी है कि भोग से साक्षी-भाव आ जाए। बस इतना काफी है। वहीं रुक जाए। ऐसा व्यक्ति कभी नहीं बुढ़ाता। ऐसे व्यक्तिके भीतर की जीवन-धार सदा युवा बनी रहती है।

ऐसे व्यक्ति के भीतर जीवन सदा अपनीउत्कृष्टता में, संतुलन में, गरिमा में ठहरा रहता है। ऐसा व्यक्ति कभी चुकता नहीं। ऐसा व्यक्ति सदा ही भरा रहता है।

ताओ उपनिषद,भाग 5
  ओशो।

एक सूफी फकीर हसन एक गाव में आया है। रात आंधी हो गई है, कहीं ठहरने को कोई जगह नहीं है; अजनबी, अपरिचित आदमी है। सराय के मालिक ने कहा कि कोई गवाह ले आओ,तब मैं ठहरने दूंगा।आंधी रात, गवाह कहा खोजे?

एक सूफी फकीर हसन एक गाव में आया है। रात आंधी हो गई है, कहीं ठहरने को कोई जगह नहीं है;

अजनबी, अपरिचित आदमी है। सराय के मालिक ने कहा कि कोई गवाह ले आओ,तब मैं ठहरने दूंगा।आंधी रात, गवाह कहा खोजे?

अनजान, अपरिचित गांव है। कोई पहचान वाला भी नहीं है। परेशान है। एक झाडू के नीचे सोने को जा रहा है कि तब एक आदमी उसे पाससे गुजरता हुआ दिखाई पड़ा।

उसने उस आदमीसे कहा कि पूरी बस्ती सो गई है, किसी को मैं जानता नहीं हूं। क्या आप मेरे लिए थोड़ी सहायता करेंगे कि चलकर सराय के मालिक को कह दें कि आप मुझे जानते हैं!

उस आदमी ने कहा—पास आकर हसन को देखा किफकीर है—हसन को कहा कि पहले तो मैं तुम्हें अपना परिचय दे दूं क्योंकि मैं एक चोर हूं और रात में अपने काम पर निकला हूं।

एक चोर की गवाही एक साधु के काम पड़ेगी या नहीं, मैं नहीं जानता! सराय का मालिक मेरी बात मानेगा, नहीं मानेगा। मेरी गवाही का बहुत मूल्य नहीं हो सकता।

लेकिन मैं एक निवेदन करता हूं कि मेरा घर खाली है। मैं तो रातभर काम में लगा रहूंगा, तुम आकर सो सकते हो।हसन थोड़ा चिंतित हुआ। और उसने कहा कि तुम एक चोर होकर भी मुझ पर इतना भरोसा करते हो कि अपने घर में मुझे ठहराते हो?

उस चोर ने कहा, जो बुरे से बुरा हो सकता है, वह मैं करता हूं। अब इससे बुरा और कोई क्या कर सकेगा? चोरी ही करोगे न ज्यादा से ज्यादा! यह आम अपना काम है।

तुम घर आकर रह सकते हो।सराय में जगह नहीं मिली। सराय अच्छे लोगों ने बनाई थी। एक चोर ने जगह दी! और उसने कहा, अब और बुरा क्या हो सकता है!

लेकिन फिर भी हसन डरा कि चोर के घर में रुकना या नहीं रुकना! या झाडू के नीचे ही सो जाना बेहतर है!बाद में हसन ने कहा कि उस दिन मुझे पता चला कि मेरा साधु उस चोर से कमजोर था।

साधु डरा कि चोर के घर रुकूं या न रुकूं! और चोर न डरा कि इस अजनबी आदमी को घर में ठहराऊं या न ठहराऊं! चोर को यह भी भय न लगा कि यह साधु है, अपना दुश्मन है, अपने को बदल डालेगा!

साधु को यह भय लगा कि चोर के साथ रहने से कहीं मेरी साधुता नष्ट न हो जाए!हसन ने बाद में कहा कि उस दिन मुझे पता चला कि मेरे साधु का जो निश्चय था, वह चोर के निश्चय से कमजोर था।

वह ज्यादा दृढ़ निश्चयी था।गया, चोर के घर रात रुका। कोई सुबह, भोर होने के पहले चोर आया, हसन ने दरवाजा खोला। हसन ने पूछा, कुछ मिला? चोर ने हंसते हुए कहा, आज तो नहीं मिला, लेकिन फिर कोशिश करेंगे।

उदास नहीं था, परेशान नहीं था, चिंतित नहीं था; आकर मजे से सो गया! दूसरी रात भी गया।

और हसन एक महीने उसके घर में रहा, और रोज ऐसा हुआ कि रोज वह खाली हाथ लौटता और हसन उससे पूछता कि कुछ मिला? और वह कहता, आज तो नहीं, लेकिन फिर कोशिश करेंगे!फिर बरसों बाद हसन को आत्म—शान हुआ।

दूर उस चोर का कोई पता भी न था कहां होगा। जिस दिन हसन को आत्म—शान हुआ, उसने पहला धन्यवाद उस चोर को दिया और परमात्मा से कहा, उस चोर को धन्यवाद! क्योंकि उसके पास ही मैंने यह सीखा कि साधारण—सी चोरी करने यह आदमी जाता है और खाली हाथ लौट आता है,

लेकिन उदास नहीं है, थकता नहीं, निश्चय इसका टूटता नहीं। कभी ऐसा नहीं कहता कि यह धंधा बेकार है, छोड़ दें, कुछ हाथ नहीं आता!

और जब मैं परमात्मा को खोजने निकला, उस परम संपदा को खोजने निकला, तो न मालूम कितनी बार ऐसा लगता था कि यह सब बेकार है, कुछ मिलता नहीं।

न कोई परमात्मा दिखाई पड़ता है, न कोई आत्मा का अनुभव होता है। पता नहीं इस सब बकवास में मैं पड़ गया हूं छोडूं। और जब भी मुझे ऐसा लगता था, तभी मुझे उस चोर का खयाल आता थाकि साधारण—सी संपदा को चुराने जो गया है,

उसका निश्चय भी मुझसे ज्यादा है, और मैं परम संपदा को चुराने निकला हूं, तो मेरा निश्चय इतना डांवाडोल है! तो जिस दिन उसे ज्ञान हुआ,

उसने पहला धन्यवाद उस चोर को दिया और कहा कि मेरा असली गुरु वही है। हसन के शिष्यों ने उससे पूछा कि उसके असली गुरु होने का कारण?

तो उसने कहा, उसका दृढ़ निश्चय!दृढ़ निश्चय का अर्थ है कि पूरे प्राण इतने आत्मसात हैं कि चाहे हार हो, चाहे जीत; चाहे सफलता मिले, चाहे असफलता, निर्णय नहीं बदलेगा।

दृढ़ निश्चय का अर्थ है, चाहे असफलता मिले, चाहे सफलता, चाहे जन्मों—जन्मों तक भटकना पड़े, निर्णय नहीं बदलेगा। खोज जारी रहेगी। सब खो जाए बाहर, लेकिन भीतर खोजने वाला संकल्प नहीं खोएगा।

वह जारी रहेगा। सब विपरीत हो जाए, सब प्रतिकूल पड़ जाए, कोई साथी न मिले, कोई संगी न मिले, कोई अनुभव की किरण भी न मिले, अंधेरा घनघोर हो, टूटने की कोई आशा न रहे, तब भी।

~ ओशोगीता दर्शन , (भाग-04 ), प्रवचन : 111

આજે તારો કાગળ મળ્યોગોળ ખાઈને સૂરજ ઊગે, એવો દિવસ ગળ્યોએક ટપાલી મૂકે હાથમાં…

આજે તારો કાગળ મળ્યોગોળ ખાઈને સૂરજ ઊગે,

એવો દિવસ ગળ્યોએક ટપાલી મૂકે હાથમાં…

વ્હાલ ભરેલો અવસરથાય કે બોણી આપું,

પહેલાં છાંટું એને અત્તરવૃક્ષોને ફળ આવે એવો મને ટપાલી મળ્યો…

આજે.તરસ ભરેલા પરબીડિયાની વચ્ચે મારીજાત

‘ લે મને પી જા હે કાગળ !’ પછી માંડજે

વાતમારો જીવ જ મને મૂકીને અક્ષરમાં જઈ ભળ્યો…આજે

એકે એક શબદની આંખો, અજવાળાથી છલકેતારા અક્ષર

તારા જેવું મીઠું મીઠું મલકેમારો સૂરજ પશ્ચિમ બદલે તારી બાજુ ઢળ્યો…

– મુકેશ જોષી

ગેરસમજણ સામટી ફેલાવ ના ! દુશ્મનોની જેમ તું બોલાવ ના

ગેરસમજણ સામટી ફેલાવ ના !

દુશ્મનોની જેમ તું બોલાવ ના !

એક તો મનથી બહુ દાઝેલ છું ;

ગત – સમયનું તાપણું સળગાવ ના !

કોણ સમજ્યું છે અહીં કિંમત કદી ?

વ્યર્થ  તું સંબધ વચ્ચે લાવ ના !

મેં સમજવામાં નથી ગલતી કરી ;

દોસ્તી શું છે મને સમજાવ ના !

કાં મને પડકારવાનું બંધ કર !

કાં સુલેહી વાવટો ફરકાવ ના !

–  શૈલેન રાવલ

હોય સાથે છતાં હું પડી એકલી ભાર ઊંચકી સહુનો રડી એકલી

હોય સાથે છતાં હું પડી એકલી
ભાર ઊંચકી સહુનો રડી એકલી

રોઈ, મૂંઝાઈ તોફાનને સન્મુખે,હિમના એ પહાડો ચઢી એકલી

કંટકો તોડવાની સજા પામીનેઆજ ગુલાબ સાથે લડી એકલી

ક્ષારણો લાગવાના હવે સાંધમાં,સ્નેહના ઝારણે તો અડી એકલી

– સુનીલ શાહ

જાતની સાથે જ સોબત થઇ ગઇ એકલા રહેવાની આદત થઇ ગઇ

જાતની સાથે જ સોબત થઇ ગઇ
એકલા રહેવાની આદત થઇ ગઇ

એક આંસુ કો’કનું લૂછી દીધુંજો ખુદા કેવી ઇબાદત થઈ ગઈ

આયના સામે કશા કારણ વગરઆજ બસ મારે અદાવત થઇ ગઇ

શબ્દ ખુલ્લે આમ વહેંચ્યો છે બધેકેવડી મોટી સખાવત થઇ ગઇ

એમણે પીડા વિશે પૂછ્યા પછીકેટલી પીડામાં રાહત થઈ ગઈ

કાલ મન ઉજજડ હતું પણ આજ તોકૈંક સ્મરણની વસાહત થઇ ગઇ

– ઉર્વીશ વસાવડા

ઓ હ્રદય, તેં પણ ભલા કેવો ફસાવ્યો છે મને ? જે નથી મારાં બન્યાં, એનો બનાવ્યોછે મને ! સાથ આપો ક્એ ન આપો એ ખુશી છે આપની, આપનો ઉપકાર, મારગ તો બતાવ્યો છે મને.

ઓ હ્રદય, તેં પણ ભલા કેવો ફસાવ્યો છે મને ?
જે નથી મારાં બન્યાં, એનો બનાવ્યોછે મને !

સાથ આપો ક્એ ન આપો એ ખુશી છે આપની,
આપનો ઉપકાર, મારગ તો બતાવ્યો છે મને.

સાવ સહેલું છે, તમે પણ એ રીતે ભૂલીશકો,
કે તમારા પ્રેમમાં મેં તો ભુલાવ્યો છે મને.

મારા દુઃખના કાળમાં એને કરું છું યાદ હું,
મારા સુખના કાળમાં જેણે હસાવ્યો છે મને.

હોત દરિયો તો હું તરવાનીય તક પામીશકત,
શું કરું કે ઝાંઝાવાંઓએ ડુબાવ્યોછે મને.

કાંઇ નહોતું એ છતાં સૌઉ મને લૂંટીગયા,
કાંઇ નહોતું એટલે મેં પણ લૂંટાવ્યો છે મને.

એ બધાંનાં નામ દઇ મારે નથી થાવું ખરાબ,
સારાં સારાં માનવીઓએ સતાવ્યો છે મને.

તાપ મારો જીરવી શકતાં નથી એ પણ હવે,
લઇ હરીફોની મદદ જેણે જલાવ્યો છે મને.

છે હવે એ સૌને મારો ઘાટ ઘડવાની ફિકર,
શુદ્ધ સોના જેમ જેઓએ તપાવ્યો છે મને.

આમ તો હાલત અમારા બેયની સરખી જ છે,
મેં ગુમાવ્યાં એમ એણે પણ ગુમાવ્યો છે મને.

આ રીતે સમતોલ તો કેવળ ખુદા રાખી શકે,
ભાર માથા પર મૂક્યો છે ને નમાવ્યોછે મને.

સાકી, જોજે હું નશામાં ગમને ભૂલી જાઉં નહિ,
એ જ તો આ તારા મયખાનામાં લાવ્યો છે મને.

આપ સાચા અર્થમાં છો મારે માટે તો વસંત,
જ્યારે જ્યારે આપ આવ્યાં છો, ખિલાવ્યો છે મને.

આ બધા ‘બેફામ’ જે આજે રડે છે મોત પર,
એ બધાંએ જિંદગી આખી રડાવ્યો છે મને.–

‘બેફામ’ , બરકત વીરાણી

કિસ્મતોની સાથ તું ખોટો લડે છે, શું ખબર કે કોણ કોને ક્યાં નડે છે.

કિસ્મતોની સાથ તું ખોટો લડે છે,

શું ખબર કે કોણ કોને ક્યાં નડે છે.

શું હશે જે આંસુ થઈને નિકળે છે,

સ્વપ્ન ઇચ્છા કે બીજું શું પીગળે છે.

સૌને એક જ વાત અહિયા સાંકળે છે,

કોઈ રગ સૌની અહી કાયમ કળે છે.

આંખ જુદી,દિલ જુદુ,વિચાર જુદા,શુ ખબર કે ક્યાં હવે લશ્કર લડે છે.તું ઉભો છો

જિંદગીના સ્ટેજ ઊપર,
કર અભિનય જેવો તુજને આવડે છે.

આ નથી અભિમાન કૈ ફિતરત છે

આ તો,ક્યાં કદી પણ સિંદરીના વળ બળે છે?

રોજનિશી સાચવું દર્પણમાં ‘પાગલ’,મારી વાતો એ જ કાયમ સાંભળે છે.

-અલ્પેશ પાગલ.