ओशो
"जब सिर्फ संगीत रह जाता है"
जीवन का संगीत सुनो। उसे खोजो और पहले उसे अपने ह्रदय में ही सुनो। आरंभ में तुम कदाचित कहोगे कि यहां गीत तो है ही नहीं, मैं तो जब ढूंढता हूं तो केवल बेसुरा कोलाहल ही सुनाई देता है। और अधिक ढूंढो। यदि फिर भी तुम निष्फल रहो, तो ठहरो और भी अधिक गहरे में फिर ढूंढो।
एक प्राकृतिक संगीत, एक गुप्त जल-स्त्रोत प्रत्येक मानव ह्रदय में है। वह भले ही ढंका हो, बिलकुल छिपा हो, और नीरव जान पडता हो----किंतु वह है अवश्य।'
'जीवन का संगीत सुनो।'
लेकिन इसे सुनने की पहली शर्त है कि उसे पहले अपने ह्रदय में सुनो।
नहीं तो यह बाहर सुनाई नहीं पडेगा। हम बाहर संगीत सुनते हैं। शायद सोचते भी है कि संगीत समझ में आ रहा है। सिर भी हिलाते हैं, आनंदित भी होते हैं। लेकिन अगर भीतर का संगीत नहीं सुना है, तो यह सब ऊपर-ऊपर की बात है, इससे संगीत में प्रवेश न हो पाएगा।
संगीत अध्यात्म है। और जब तक आपके ह्रदय में राग का अनुभव न होने लगे,
और जब तक आपकी श्वास-श्वास में एक लयबध्दता न आ जाए, और जब तक आपका जीवन-स्पंदन वीणा न बन जाए; जब तक आपको भीतर न सुनाई पडने लगे वह नाद, जो जीवन का नाद है, जिसको पैदा नहीं करना होता, जो चल ही रहा है, जो आप हैं ही; जब तक आपको वह सुनाई न पड जाए, तब तक इस जगत में जो अनंत संगीत गुंजायमान हो रहा है, उससे आपकी कोई पहचान न होगी। और एक बार आपको अपने ह्रदय में सुनाई पड जाए वह नाद, तब आप पाएंगे कि हर तरफ, झरने की कलकल में, हवाओं का गुजरना वृक्षों के पत्तों के बीच से, उसमें; पत्थर के गिरने में, नदी के बहने में, नीरवता में, रात्रि के सन्नाटे में, झींगुरों की आवाज में, सब तरफ आपको अपने ह्रदय की प्रतिध्वनि सुनाई पडने लगेगी।
यह जगत एक संगीत हो जाएगा।
लेकिन यह होगा उस दिन, जिस दिन ह्रदय को सुना जा सके। क्यों ? क्योंकि ह्रदय इतना निकट है कि जब आप उसका संगीत नहीं सुन पाते, तो और सब चीजें तो दूर हैं, उनका संगीत आप न सुन पाएंगे। तारे बहुत दूर हैं, उनका संगीत आपको कैसे सुनाई पडेगा ? और ह्रदय इतना निकट है, उसका ही सुनाई नहीं पड रहा है!
*जो निकटतम है, उससे यात्रा शुरू करो।*
पुराने दिनों में----बहुत पुराने दिनों में, इतिहास ने जिसका स्मरण भी छोड दिया है----- संगीत की शिक्षा ध्यान से शुरू होती थी। क्योंकि वाद्य पर क्या करोगे, कंठ से क्या होगा,
जब तक ह्रदय के संगीत का स्वर अनुभव न होने लगे ? नृत्य की शिक्षा ध्यान से शुरू होती थी। क्योंकि शरीर को हिलाने से क्या होगा ? जब तक कि स्पंदन भीतर न आने लगे, जब तक कि भीतर विद्युत प्रवाहित न होने लगे, जब तक कि भीतर कोई नाच न उठे----तब तक शरीर को हिलाना कवायद होगी, तब तक वह नृत्य नहीं होगा। और चाहे कितनी ही कुशलता आ जाए शरीर को नचाने की, वह कुशलता टेक्निकल होगी, हार्दिक नहीं होगी। उसमें कहीं भी ह्रदय नहीं होगा, कुशलता होगी। और कुशलता बहुत गहरी हो सकती है। फिर भी आत्मा नहीं होगी, शरीर ही नाचेगा। वही फर्क है।
बडे से बडा संगीतज्ञ भी नाच सकता है, नृत्यकार नाच सकता है।
बडे से बडा संगीतज्ञ संगीत को जन्म दे सकता है। लेकिन कृष्ण के नृत्य में बात कुछ और है। टेक्निकली वह गलत भी हो सकते हैं। उनके नृत्य में भूल-चूक खोजी जा सकती है। और पंडितों को लगा दें, तो वे जरूर खोज लेंगे। लेकिन फिर भी उनका नृत्य किसी और आयाम में है।
मीरा के संगीत में भूल-चूक खोजी जा सकती है, काव्य में भूल-चूक खोजी जा सकती है, व्याकरण में भूल-चूक खोजी जा सकती है। क्योंकि मीरा न तो कोई कवि है, न वह कोई नर्तकी है, न वह कोई संगीतज्ञ है। लेकिन फिर भी किसी अंतस के कोने में, गहरे में, संगीत घटा है, नृत्य घटा है, काव्य का जन्म हुआ है। वही काव्य, वही नृत्य शरीर तक आ गया है, बाहर तक फैल गया है। इसलिए उसके नृत्य में कुछ बात ही और है। वह इस जगत का नहीं है नृत्य। तो वह कहीं पार से आती है कोई किरण, वह कहीं दूर की खबर लाती है। इसलिए मीरा छा गई ह्रदय पर। बहुत बडे संगीतज्ञ हुए, मीरा की कोई तुलना नहीं उनसे। टेक्निकली कोई उसका अस्तित्व नहीं है, लेकिन संगीतज्ञों को हम भूलते चले जाएंगे, मीरा को भूलना असंभव है।
चैतन्य नाचते हैं। उनके नाचने में न कोई व्यवस्था है, न कोई जानकारी है, नाचना अनगढ है। लेकिन नृत्य में कुछ प्राण हैं, कोई आत्मा है, नृत्य सजीव है। शरीर ही नहीं कंप रहा है, भीतर कहीं गहरे में स्पंदन हो रहे हैं। और शरीर उन स्पंदनों की केवल खबर दे रहा है।
नृत्य-संगीत जैसी सारी कलाओं का जन्म कभी मंदिर में हुआ था, उनका जन्म मंदिर से है। वे कलाएं मंदिर से फिर लोक-लोक में व्याप्त हो गई हैं। उनका प्राथमिक चरण कभी अध्यात्म की खोज का ही हिस्सा था। लेकिन धीरे-धीरे सभी चीजों के साथ होता है कि हम उसके बाह्य आवरण में ज्यादा उत्सुक हो जाते हैं। फिर बाह्य आवरण की व्यवस्था में उत्सुक हो जाते हैं। फिर हम इतनी व्यवस्था कर लेते हैं कि हम भूल ही जाते हैं कि जिसके लिए व्यवस्था कर रहे हैं, वह कभी का मर चुका है। अब हम शरीर की सजावट किए चले जा रहे हैं। *
संगीत बहुत दूर चला गया अध्यात्म से, नृत्य बहुत दूर चला गया। इतने दूर कि करीब-करीब उलटा हो गया है। करीब-करीब नृत्य और संगीत अब वासना की सेवा कर रहा है। कभी वह आत्मा से पैदा हुआ था, अब वासना कि सेवा में रत है।*
इसलिए इस्लाम को तो इनकार ही कर देना पडा संगीत को कि यह पाप है। यह हैरानी की बात है। मगर सोचने जैसी है।
इस्लाम भी सही है और हिंदू भी सही हैं। जिस दिन संगीत पैदा हुआ था, उस दिन वह परम-ज्ञान का हिस्सा था, ध्यान का हिस्सा था। लेकिन धीरे-धीरे हटते-हटते वह वासना की सेवा में रत हो गया। और जब मोहम्मद का जन्म हुआ तो संगीत वासना की सेवा में रत था।वह कामवासना का हिस्सा हो गया था। इसलिए मोहम्मद ने कहा कि संगीत मस्जिद के सामने नहीं। तो वह पाप है। दोनों सही हैं। क्योंकि संगीत के दोनों बिंदु हैं, दो छोर हैं।*
एक बात स्मरणीय है कि संगीत वासना की सेवा में लग जाएगा, अगर आपने उसे पहले भीतर न सुना। अगर बाहर सुना तो उसकी जो चोट है, वह आपके काम-केंद्र पर होगी। क्योंकि काम-केंद्र आपका सबसे बाहरी केंद्र है------सबसे निम्न, सबसे बाहरी। अगर आपने संगीत भीतर सुना, तब तो वह आत्मा में प्रतिध्वनित होगा।* अगर आपने बाहर सुना तो उसकी पहली चोट, पहला आघात सेक्स सेंटर पर होगा, काम-केंद्र पर होगा, क्योंकि वही निकटतम है। और तब अनिवार्य रूप से संगीत काम की सेवा में संलग्न हो जाएगा।
तो कामातुर लोग नाच में रस लेते हैं, गान में रस लेते हैं।
तो धीरे-धीरे राजा-महाराजाओं के दरबार की बात हो गई। साधु दूर हटता गया, क्योंकि असाधु संगीत का रस लेने लगा। लेकिन कारण संगीत नहीं है, कारण अगर भीतर से पहले यात्रा न हुई, तो यह उलझन आएगी। अगर भीतर से यात्रा हुई, एक बार भीतर का संगीत अनुभव में आया, तो फिर जगत में जो भी संगीत संभव है-----निर्मित,अनिर्मित; प्राकृतिक, कृत्रिम---- वह सभी संगीत, एक बार भीतर का स्मरण आ जाए, तो वहीं चोट करेंगे।
नानक अपने साथ एक संगीतज्ञ को रखते थे। बोलते कम थे, गाते ज्यादा थे। और बगल में बैठा मरदाना अपने इकतारा को बजाता था। पर नानक पहले अजपा कि शिक्षा देते थे। कि पहले भीतर अजपा का जो नाद है, वह सुना जाए। और जब उनके साधक अजपा के नाद में लीन होने लगते थे,
भीतर का नाद सुनने लगते थे, तब वे बाहर का संगीत भी साथ में देते थे। यह बाहर का भी संगीत तब भीतर के उस गहन संगीत के साथ एक हो जाता था। और जब बाहर और भीतर का संगीत एक होता है, तो बाहर और भीतर मिट जाते हैं, सिर्फ संगीत रह जाता है। वह संगीत का क्षण ब्रम्ह-अनुभव का क्षण होता है।
साधना-सूत्र