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Thursday, 31 March 2016

गाय के शरीर में जीना, मतलब चेतना का पशु से मनुष्य बनने के लिए स्वयं को विकसित करना।

गाय के शरीर में जीना, मतलब चेतना का पशु से मनुष्य बनने के लिए स्वयं को विकसित करना।

    

चेतना जब गाय की योनि में प्रवेश करती है, तभी से गाय की खूब सेवा की जाती है, ठीक उसी तरह, जिस तरह बेटी के गर्भवती होने पर उसकी की जाती है। हमारे धर्म में गाय को एक पशु नहीं बल्कि परिवार का एक सदस्य माना गया है। उस चेतना का स्वागत किया जाता है कि आज वह इस तल पर आ पहुंची है कि जहां से वह पशु योनि से मुक्त हो मनुष्य योनि में प्रवेश कर सके!
     

गाय के बछड़ा जनने पर इतनी खुशी हुई कि आदमी सुध-बुध खोकर, बछड़े को कंधे पर लेकर भागा गांव में डोंडी पीटते हुए कि "म्हारी गंगा ब्याणी... म्हारी गंगा ब्याणी...।" मारे खुशी के उसे होश ही नहीं रहता  है, कि इस उत्साह में भागने पर कब उसकी धोती खुलकर गीर गई है, सारा गांव हंस रहा है, और अब वह नग्न खड़ा है!

उसे होश में लाया जाता है... अचानक वह 'अवा्क' और 'किंकर्तव्यविमूढ़' खड़ा रह जाता है। "अवा्क और किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह जाना" यह स्थिति है "ध्यान" की... जहां सब ठहर जाता है। कोई विचार नहीं होता!
    

बछड़े के आने पर बेटी बहुत खुश होती। उसे तो मानो खिलोना मिल गया हो! दोनों बहनों की तरह साथ बड़ी होती। दोनों एक -दूसरे से खूब घुलमिल जाती और जब बेटी का विवाह करते, तो उसके साथ ही गाय का भी विवाह कर देते और दान के रूप में उसी के साथ भेज दिया जाता ताकि आगे भी उनका यह प्रेम सदा बना रहे और बेटी का उससे लगाव होने के कारण वह उसका आजन्म खयाल रख सके?
    

इस तरह बेटी को भी विवाह के लिए राजी कर लिया जाता, कि तेरा विवाह ही नहीं कर रहे, तेरे साथ तेरी गाय का विवाह भी कर रहे हैं! इससे बेटी को एक भरोसा रहता है, कि ससुराल में वह अकेली नहीं है, पीहर का कोई न कोई साथ है! और गाय को यह स्मरण दिलवाने को, कि 'अगले जन्म में तू भी बेटी बनके आ, हम फिर तेरा भी कन्यादान करेंगे! ' इस तरह से उस चेतना को पशु से मनुष्य की ओर विकसित होने में मदद की जाती।
    

लेकिन यह मदद अंत तक बनी रहनी चाहिए, तभी उसका जीवन सार्थक है। पशु - चेतना का, मनुष्य- चेतना में विकास तभी संभव है जब चेतना को गाय के शरीर में 'पूरी तरह' से विकसित होने दिया जाये। यानी उसके जीवन को कोई बाधा न पहुंचाई जाये, वह 'पूरी' उम्र जीये। अर्थात उसका वध, उसकी हत्या न होने पाये। वह अपनी मौत मरे। हम उसके जीवन को उसे सहज जीने दें! हम उसके जीवन के निर्धारक न बनें! उसके बूढा होने पर उसकी ठीक वैसी ही देखभाल करें जैसी अपने परिवार के बूढ़े व्यक्ति की करते हैं। गाय चेतना के पशु -योनि का परम विकास है। यहां आकर गाय का शरीर इतना पवित्र हो जाता है, कि उसकी पूजा करनी शुरू कर दी जाती है। उसका दूध और मल-मूत्र भी उपयोगी साबित होता है।
    

हमें गो-सेवा करके चेतना को गाय के शरीर में पूरी तरह से विकसित होने में मदद करनी है। और यह तभी संभव है जब वह अपनी स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त हो सके। यदि समय से पहले उसकी मृत्यु (हत्या) होती है तो उसकी चेतना मनुष्य शरीर लेने के लिए विकसित नहीं हो पायेगी। गाय के शरीर में जीना, मतलब चेतना का पशु से मनुष्य में विकसित होना।

-स्वामी ध्यान उत्सव

साक्षी साधना      ध्यान का अंतरतम और सार तत्व है यह सीखना कि कैसे साक्षी हों।     

साक्षी साधना

     ध्यान का अंतरतम और सार तत्व है यह सीखना कि कैसे साक्षी हों।
    

एक कौआ आवाज दे रहा है... तुम सुन रहे हो। यहां दो है —विषय - वस्तु (आब्जेक्ट) और विषयी (सब्जेक्ट) लेकिन क्या तुम उस दृष्टा को देख सकते हो जो इन दोनों को देख रहा है? —कौआ —सुनने वाला और फिर एक 'कोई और' जो इन दोनों को देख रहा है। यह एक सीधी सरल घटना है।
    

तुम एक वृक्ष को देखते हो —तुम हो और वृक्ष है, लेकिन क्या तुम एक और तत्व को नहीं पाते? —कि तुम वृक्ष को देख रहे हो और फिर एक दृष्टा है जो देख रहा है कि तुम वृक्ष को देख रहे हो।
    

साक्षी ध्यान है। तुम क्या देखते हो, यह बात गौण है। तुम वृक्ष को देख सकते हो, तुम नदी को देख सकते हो, बादलों को देख सकते हो, तुम बच्चों को आसपास खेलता हुआ देख सकते हो। साक्षी होना ध्यान है। तुम क्या देखते हो यह बात नहीं है, विषय-वस्तु की बात नहीं है।
    

देखने की गुणवत्ता, होशपूर्ण और सजग होने की गुणवत्ता —ध्यान है।
    

एक बात ध्यान रखें, ध्यान का अर्थ है होश। तुम जो कुछ भी होशपूर्वक करते हो वह ध्यान है। कर्म क्या है, यह प्रश्न नहीं, किंतु गुणवत्ता जो तुम कर्म में ले आते हो, उसकी बात है। चलना ध्यान हो सकता है, यदि तुम होशपूर्वक चलो। बैठना ध्यान हो सकता है, यदि तुम होशपूर्वक बैठ सको। पक्षियों की चहचहाहट को सुनना ध्यान हो सकता है, यदि तुम होशपूर्वक सुन सको। या केवल अपने भीतर मन की आवाजों को सुनना ध्यान बन सकता है, यदि तुम जाग्रत और साक्षी रह सको।
    

सारी बात यह है कि तुम सोये - सोये मत रहो। फिर जो भी हो, ध्यान होगा।

-ओशो
ध्यान योग

मंगल प्रभात एक सुबह, अभी सूरज भी निकला नहीं था और एक मांझी नदी के किनारे पहुंच गया था। उसका पैर किसी चीज से टकरा गया। झुक कर उसने

मंगल प्रभात एक सुबह,

अभी सूरज भी निकला नहीं था और एक मांझी नदी के किनारे पहुंच गया था। उसका पैर किसी चीज से टकरा गया। झुक कर उसने देखा, पत्थरों से भरा हुआ एक झोला पड़ा था।

उसने अपना जाल किनारे पर रख दिया, वह सुबह सूरज के उगने की प्रतीक्षा करने लगा। सूरज उग आए, वह अपना जाल फेंके और मछलियां पकड़े।

वह जो झोला उसे पड़ा हुआ मिल गया था, जिसमें पत्थर थे, वह एक-एक पत्थर निकाल कर शांत नदी में फेंकने लगा। सुबह के सन्नाटे में उन पत्थरों के गिरने की छपाक की आवाज सुनता, फिर दूसरा पत्थर फेंकता।

धीरे-धीरे सुबह का सूरज निकला, रोशनी हुई। तब तक उसने झोले के सारे पत्थर फेंक दिए थे, सिर्फ एक पत्थर उसके हाथ में रह गया था।

सूरज की रोशनी में देखते से ही जैसे उसके हृदय की धड़कन बंद हो गई, सांस रुक गई। उसने जिन्हें पत्थर समझ कर फेंक दिया था, वे हीरे-जवाहरात थे! लेकिन अब तो अंतिम हाथ में बचा था टुकड़ा और वह पूरे झोले को फेंक चुका था।

वह रोने लगा, चिल्लाने लगा। इतनी संपदा उसे मिल गई थी कि अनंत जन्मों के लिए काफी थी, लेकिन अंधेरे में, अनजान, अपरिचित, उसने उस सारी संपदा को पत्थर समझ कर फेंक दिया था।

लेकिन फिर भी वह मछुआ सौभाग्यशाली था, क्योंकि अंतिम पत्थर फेंकने के पहले सूरज निकल आया था और उसे दिखाई पड़ गया था कि उसके हाथ में हीरा है।

साधारणतः सभी लोग इतने सौभाग्यशाली नहीं होते हैं। जिंदगी बीत जाती है, सूरज नहीं निकलता, सुबह नहीं होती, रोशनी नहीं आती और सारे जीवन के हीरे हम पत्थर समझ कर फेंक चुके होते हैं।

जीवन एक बड़ी संपदा है, लेकिन आदमी सिवाय उसे फेंकने और गंवाने के कुछ भी नहीं करता है! जीवन क्या है, यह भी पता नहीं चल पाता और हम उसे फेंक देते हैं!

जीवन में क्या छिपा था--कौन से राज, कौन सा रहस्य, कौन सा स्वर्ग, कौन सा आनंद, कौन सी मुक्ति--उस सबका कोई भी अनुभव नहीं हो पाता और जीवन हमारे हाथ से रिक्त हो जाता है!

ओशो

ओशो "जब सिर्फ संगीत रह जाता है" जीवन का संगीत सुनो। उसे खोजो और पहले उसे अपने ह्रदय में ही सुनो। आरंभ में तुम कदाचित कहोगे कि यहां गीत तो है ही नहीं, मैं तो जब ढूंढता हूं तो केवल बेसुरा कोलाहल ही सुनाई देता है। और अधिक ढूंढो। यदि फिर भी तुम निष्फल रहो, तो ठहरो और भी अधिक गहरे में फिर ढूंढो।

ओशो
"जब सिर्फ संगीत रह जाता है"
जीवन का संगीत सुनो। उसे खोजो और पहले उसे अपने ह्रदय में ही सुनो। आरंभ में तुम कदाचित कहोगे कि यहां गीत तो है ही नहीं, मैं तो जब ढूंढता हूं तो केवल बेसुरा कोलाहल ही सुनाई देता है। और अधिक ढूंढो। यदि फिर भी तुम निष्फल रहो, तो ठहरो और भी अधिक गहरे में फिर ढूंढो।

एक प्राकृतिक संगीत, एक गुप्त जल-स्त्रोत प्रत्येक मानव ह्रदय में है। वह भले ही ढंका हो, बिलकुल छिपा हो, और नीरव जान पडता हो----किंतु वह है अवश्य।'
'जीवन का संगीत सुनो।'
लेकिन इसे सुनने की पहली शर्त है कि उसे पहले अपने ह्रदय में सुनो।
नहीं तो यह बाहर सुनाई नहीं पडेगा। हम बाहर संगीत सुनते हैं। शायद सोचते भी है कि संगीत समझ में आ रहा है। सिर भी हिलाते हैं, आनंदित भी होते हैं। लेकिन अगर भीतर का संगीत नहीं सुना है, तो यह सब ऊपर-ऊपर की बात है, इससे संगीत में प्रवेश न हो पाएगा।
संगीत अध्यात्म है। और जब तक आपके ह्रदय में राग का अनुभव न होने लगे,

और जब तक आपकी श्वास-श्वास में एक लयबध्दता न आ जाए, और जब तक आपका जीवन-स्पंदन वीणा न बन जाए; जब तक आपको भीतर न सुनाई पडने लगे वह नाद, जो जीवन का नाद है, जिसको पैदा नहीं करना होता, जो चल ही रहा है, जो आप हैं ही; जब तक आपको वह सुनाई न पड जाए, तब तक इस जगत में जो अनंत संगीत गुंजायमान हो रहा है, उससे आपकी कोई पहचान न होगी। और एक बार आपको अपने ह्रदय में सुनाई पड जाए वह नाद, तब आप पाएंगे कि हर तरफ, झरने की कलकल में, हवाओं का गुजरना वृक्षों के पत्तों के बीच से, उसमें; पत्थर के गिरने में, नदी के बहने में, नीरवता में, रात्रि के सन्नाटे में, झींगुरों की आवाज में, सब तरफ आपको अपने ह्रदय की प्रतिध्वनि सुनाई पडने लगेगी।

यह जगत एक संगीत हो जाएगा।
लेकिन यह होगा उस दिन, जिस दिन ह्रदय को सुना जा सके। क्यों ? क्योंकि ह्रदय  इतना निकट है कि जब आप उसका संगीत नहीं सुन पाते, तो और सब चीजें तो दूर हैं, उनका संगीत आप न सुन पाएंगे। तारे बहुत दूर हैं, उनका संगीत आपको कैसे सुनाई पडेगा ? और ह्रदय इतना निकट है, उसका ही सुनाई नहीं पड रहा है!
*जो निकटतम है, उससे यात्रा शुरू करो।*
पुराने दिनों में----बहुत पुराने दिनों में, इतिहास ने जिसका स्मरण भी छोड दिया है----- संगीत की शिक्षा ध्यान से शुरू होती थी। क्योंकि वाद्य पर क्या करोगे, कंठ से क्या होगा,

जब तक ह्रदय के संगीत का स्वर अनुभव न होने लगे ? नृत्य की शिक्षा ध्यान से शुरू होती थी। क्योंकि शरीर को हिलाने से क्या होगा ? जब तक कि स्पंदन भीतर न आने लगे, जब तक कि भीतर विद्युत प्रवाहित न होने लगे, जब तक कि भीतर कोई नाच न उठे----तब तक शरीर को हिलाना कवायद होगी, तब तक वह नृत्य नहीं होगा। और चाहे कितनी ही कुशलता आ जाए शरीर को नचाने की, वह कुशलता टेक्निकल होगी, हार्दिक नहीं होगी। उसमें कहीं भी ह्रदय नहीं होगा, कुशलता होगी। और कुशलता बहुत गहरी हो सकती है। फिर भी आत्मा नहीं होगी, शरीर ही नाचेगा। वही फर्क है।

बडे से बडा संगीतज्ञ भी नाच सकता है, नृत्यकार नाच सकता है।
बडे से बडा संगीतज्ञ संगीत को जन्म दे सकता है। लेकिन कृष्ण के नृत्य में बात कुछ और है। टेक्निकली वह गलत भी हो सकते हैं। उनके नृत्य में भूल-चूक खोजी जा सकती है। और पंडितों को लगा दें, तो वे जरूर खोज लेंगे। लेकिन फिर भी उनका नृत्य किसी और आयाम में है।

मीरा के संगीत में भूल-चूक खोजी जा सकती है, काव्य में भूल-चूक खोजी जा सकती है, व्याकरण में भूल-चूक खोजी जा सकती है। क्योंकि मीरा न तो कोई कवि है, न वह कोई नर्तकी है, न वह कोई संगीतज्ञ है। लेकिन फिर भी किसी अंतस के कोने में, गहरे में, संगीत घटा है, नृत्य घटा है, काव्य का जन्म हुआ है। वही काव्य, वही नृत्य शरीर तक आ गया है, बाहर तक फैल गया है। इसलिए उसके नृत्य में कुछ बात ही और है। वह इस जगत का नहीं है नृत्य। तो वह कहीं पार से आती है कोई किरण, वह कहीं दूर की खबर लाती है। इसलिए मीरा छा गई ह्रदय पर। बहुत बडे संगीतज्ञ हुए, मीरा की कोई तुलना नहीं उनसे। टेक्निकली कोई उसका अस्तित्व नहीं है, लेकिन संगीतज्ञों को हम भूलते चले जाएंगे, मीरा को भूलना असंभव है।

चैतन्य नाचते हैं। उनके नाचने में न कोई व्यवस्था है, न कोई जानकारी है, नाचना अनगढ है। लेकिन नृत्य में कुछ प्राण हैं, कोई आत्मा है, नृत्य सजीव है। शरीर ही नहीं कंप रहा है, भीतर कहीं गहरे में स्पंदन हो रहे हैं। और शरीर उन स्पंदनों की केवल खबर दे रहा है।

नृत्य-संगीत जैसी सारी कलाओं का जन्म कभी मंदिर में हुआ था, उनका जन्म मंदिर से है। वे कलाएं मंदिर से फिर लोक-लोक में  व्याप्त हो गई हैं। उनका प्राथमिक चरण कभी अध्यात्म की खोज का ही हिस्सा था। लेकिन धीरे-धीरे सभी चीजों के साथ होता है कि हम उसके बाह्य आवरण में ज्यादा उत्सुक हो जाते हैं। फिर बाह्य आवरण की व्यवस्था में उत्सुक हो जाते हैं। फिर हम इतनी व्यवस्था कर लेते हैं कि हम भूल ही जाते हैं कि जिसके लिए व्यवस्था कर रहे हैं, वह कभी का मर चुका है। अब हम शरीर की सजावट किए चले जा रहे हैं। *

संगीत बहुत दूर चला गया अध्यात्म से, नृत्य बहुत दूर चला गया। इतने दूर कि करीब-करीब उलटा हो गया है। करीब-करीब नृत्य और संगीत अब वासना की सेवा कर रहा है। कभी वह आत्मा से पैदा हुआ था, अब वासना कि सेवा में रत है।*
इसलिए इस्लाम को तो इनकार ही कर देना पडा संगीत को कि यह पाप है। यह हैरानी की बात है। मगर सोचने जैसी है।

इस्लाम भी सही है और हिंदू भी सही हैं। जिस दिन संगीत पैदा हुआ था, उस दिन वह परम-ज्ञान का हिस्सा था, ध्यान का हिस्सा था। लेकिन धीरे-धीरे हटते-हटते वह वासना की सेवा में रत हो गया। और जब मोहम्मद का जन्म हुआ तो संगीत वासना की सेवा में रत था।वह कामवासना का हिस्सा हो गया था। इसलिए मोहम्मद ने कहा कि संगीत मस्जिद के सामने नहीं। तो वह पाप है। दोनों सही हैं। क्योंकि संगीत के दोनों बिंदु हैं, दो छोर हैं।*

एक बात स्मरणीय है कि संगीत वासना की सेवा में लग जाएगा, अगर आपने उसे पहले भीतर न सुना। अगर बाहर सुना तो उसकी जो चोट है, वह आपके काम-केंद्र पर होगी। क्योंकि काम-केंद्र आपका सबसे बाहरी केंद्र है------सबसे निम्न, सबसे बाहरी। अगर आपने संगीत भीतर सुना, तब तो वह आत्मा में प्रतिध्वनित होगा।* अगर आपने बाहर सुना तो उसकी पहली चोट, पहला आघात सेक्स सेंटर पर होगा, काम-केंद्र पर होगा, क्योंकि वही निकटतम है। और तब अनिवार्य रूप से संगीत काम की सेवा में संलग्न हो जाएगा।
तो कामातुर लोग नाच में रस लेते हैं, गान में रस लेते हैं।

तो धीरे-धीरे राजा-महाराजाओं के दरबार की बात हो गई। साधु दूर हटता गया, क्योंकि असाधु संगीत का रस लेने लगा। लेकिन कारण संगीत नहीं है, कारण अगर भीतर से पहले यात्रा न हुई, तो यह उलझन आएगी। अगर भीतर से यात्रा हुई, एक बार भीतर का संगीत अनुभव में आया, तो फिर जगत में जो भी संगीत संभव है-----निर्मित,अनिर्मित; प्राकृतिक, कृत्रिम---- वह सभी संगीत, एक बार भीतर का स्मरण आ जाए, तो वहीं चोट करेंगे।
नानक अपने साथ एक संगीतज्ञ को रखते थे। बोलते कम थे, गाते ज्यादा थे। और बगल में बैठा मरदाना अपने इकतारा को बजाता था। पर नानक पहले अजपा कि शिक्षा देते थे। कि पहले भीतर अजपा का जो नाद है, वह सुना जाए। और जब उनके साधक अजपा के नाद में लीन होने लगते थे,

भीतर का नाद सुनने लगते थे, तब वे बाहर का संगीत भी साथ में देते थे। यह बाहर का भी संगीत तब भीतर के उस गहन संगीत के साथ एक हो जाता था। और जब बाहर और भीतर का संगीत एक होता है, तो बाहर और भीतर मिट जाते हैं, सिर्फ संगीत रह जाता है। वह संगीत का क्षण ब्रम्ह-अनुभव का क्षण होता है।

साधना-सूत्र

अभी एक बहुत अदभुत नृत्यकार था पश्चिम में — निजिनसकी। उसका नृत्य असाधारण था, शायद पृथ्वी पर वैसा नृत्यकार इसके पहले नहीं था। असाधारणता यह थी कि वह अपने नाच में जमीन से इतने ऊपर उठ जाता था जितना कि साधारणतया उठना बहुत मुश्किल है।

अभी एक बहुत अदभुत नृत्यकार था पश्चिम में — निजिनसकी। उसका नृत्य असाधारण था, शायद पृथ्वी पर वैसा नृत्यकार इसके पहले नहीं था। असाधारणता यह थी कि वह अपने नाच में जमीन से इतने ऊपर उठ जाता था जितना कि साधारणतया उठना बहुत मुश्किल है।

और इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक यह था कि वह ऊपर से जमीन की तरफ आता था तो इतने स्लोली, इतने धीमे आता था कि जो बहुत हैरानी की बात है। क्योंकि इतने धीमे नहीं आया जा सकता। जमीन का जो खिंचाव है वह उतने धीमे आने की आज्ञा नहीं देता।

यह उसका चमत्कारपूर्ण हिस्सा था। उसने विवाह किया , उसकी पत्नी ने जब उसका नृत्य देखा तो वह आश्चर्यचकित हो गयी। वह खुदभी नर्तकी थी।उसने एक दिन निजिनसकी को कहा — उसकी पत्नी ने आत्मकथा में लिखा है,

मैंने एकदिन अपने पति को कहा — व्हाट ए शेम दैट यू कैन नाट सी युअरसेल्फ डांसिंग—कैसा दुख कि तुम अपने को नाचते हुए नहीं देख सकते। निजिनसकी ने कहा — हू सैड, आइ कैन नाट सी। आइ डू आलवेज सी। आइ एम आलवेज आउट। आइ मेक माइसेल्फ डान्स फ्राम दि आउटसाइड।

निजिनसकी ने कहा — मैं देखता हूं सदा, क्योंकि मैं सदा बाहर होता हूं और मैं बाहर से ही अपने को नाच करवाता हूं। और अगर मैं बाहर नहीं रहता हूं तो मैं इतने ऊपर नहीं जा पाता हूं और अगर मैं बाहर नहीं रहता हूं तो इतने धीमे जमीन पर वापस नहीं लौट पाता हूं।

जब मैं भीतर होकर नाचता हूं तो मुझ में वजन होता है, और जब मैं बाहर होकर नाचता हूं तो उसमें वजन खो जाता है।योग कहता है — अनाहत चक्र जब भी किसी व्यक्ति का सक्रिय हो जाए, तो जमीन का गुरुत्वाकर्षण उस पर प्रभाव कम कर देता है और विशेष नृत्यों का प्रभाव अनाहत चक्र पर पड़ता है। अनायास ही मालूम होता है। निजिनसकी ने नाचते-नाचते अनाहत चक्र को सक्रिय कर लिया। और अनाहत चक्र की दूसरी खूबी है कि जिस व्यक्ति का अनाहत चक्र सक्रिय हो जाए वह आउट आफ बाडी ऐक्सपीरिएंस, शरीर के बाहर के अनुभवों में उतर जाता है।

वह अपने शरीर के बाहर खड़े होकर देख पाता है। लेकिन जब आप शरीर के बाहर होते हैं, तब जो शरीर के बाहर होता है, वही आपकी प्राण ऊर्जा है। वही वस्तुतः आप हैं।

महावीर वाणी,
भाग-१,
प्रवचन-९, ओशो

!! यह राजमहल है !! एक गांव के संबंध में मैंने सुना है किवहां एक दिन एक जादूगर आ गया थाऔर उस गांव के कुएं में उसने एकपुड़िया डाल दी थी औरकहा था किइस कुएं का पानी जो भी पीएगा,वह पागल हो

!! यह राजमहल है !!

एक गांव के संबंध में मैंने सुना है किवहां एक दिन एक जादूगर आ गया थाऔर उस गांव के कुएं में उसने एकपुड़िया डाल दी थी औरकहा था किइस कुएं का पानी जो भी पीएगा,वह पागल हो जाएगा।

एक ही कुआं था उस गांव में।एक कुआं और था,लेकिन वह गांव का कुआं न था,वह राजा के महल में था।सांझ होते —होते तक गांव के हरआदमी को पानी पीना पड़ा।चाहे पागलपन की कीमतपर भी पीना पड़े,लेकिन मजबूरी थी।प्यास तो बुझानी पड़ेगी,चाहे पागल ही क्यों न हो जाना पड़े।

गांव के लोग अपने को कब तक रोकते,उन्होंने पानी पीया। सांझ होते —होते पूरा गांव पागल हो गया।सम्राट बहुत खुश था,उसकी रानियां बहुत खुश थीं,महल में गीत और संगीत का आयोजन हो रहा था।उसके वजीर खुश थे कि हम बन गए,लेकिन सांझ होते —होते उन्हें पता चलाकिगलती में हैं वे,क्योंकि सारा महल सांझ होते—होते गांव के पागलों ने घेर लिया।

पूरा गांव हो गया था पागल।राजा के पहरेदार औरसैनिक भी हो गए थे पागल।सारे गांव ने राजा के महल कोघेर कर आवाज लगाई किमालूम होता है किराजा का दिमाग खराब हो गया है।हम ऐसे पागल राजा को सिंहासनपर बर्दाश्त नहीं कर सकत

महल के ऊपर खड़े होकर राजा ने देखा किबचाव का अब कोई उपाय नहीं है।राजा अपने वजीर से पूछने लगा किअब क्या होगा?हम तो सोचते थे कि भाग्यवान हैंहम कि हमारे पास अपना कुआं है।आज यह महंगा पड़ गया है।सभी राजाओं को एकन एक दिन अलग कुआं महंगा पड़ता है।

सारी दुनिया में पड़ रहा है।जो अभी भी राजा हैं,कल उनको भी कुआं महंगा पड़ेगा।अलग कुआं खतरनाक है।लेकिन तब तक खयाल नहीं था।वजीर से राजा कहने लगा, क्या होगा अब?वजीर ने कहा, अब कुछ पूछने की जरूरत नहीं है।

आप भागे पीछे के द्वार से,और गांव के उस कुएं का पानीपीकर जल्दी लौट आएं।अन्यथा यह महल खतरे में है।सम्राट ने कहा, उसे कुएं का पानी!क्या तुम मुझे पागल बनाना चाहते हो?वजीर ने कहा, अब पागल बनेबिना बचने का कोई उपाय नहीं है।राजा भागा, उसकी रानियां भागी।

उन्होंने जाकर उस कुएं का पानी पी लिया।उस रात उस गांव में एक बड़ाजलसा मनाया गया।सारे गांव के लोगों ने खुशी मनाई,बाजे बजाए, गीत गाएऔर भगवान को धन्यवाद दिया किहमारे राजा का दिमाग ठीक हो गया है।क्योंकि राजा भी भीड़ में नाच रहा थाऔर गालियां बक रहा था।

अब राजा का दिमाग ठीक हो गया।चूंकि हमारी नींद सार्वजनिक है,सार्वभौमिक है,क्योंकि हम जन्म से ही सोए हुए हैं,इसलिए हमें पता नहीं चलता है।इस नींद में हम क्या समझ पाते हैं जीवन को?इतना ही कि यह शरीर जीवन है।इस शरीर के भीतर जरा भी प्रवेश नहीं हो पात

यह समझ वैसी ही है,जैसे किसी राजमहल के बाहर दीवाल केआसपास कोई घूमता हो औरसमझता हो कि यह राजमहल है।दीवाल पर, बाहर की दीवाल पर,चारदीवारी पर, परकोटे पर,परकोटे के बाहर कोई घूमता होऔर सोचता हो कि राजमहल है-

मैं मृत्यु सिखाता हूं–
(प्रवचन–1)

★ प्रेम और घृणा आनुपातिक शब्द हैं, न कि पूर्ण ★ राबिया नाम की एक फकीर औरत थी। राबिया के पास एक दूसरा फकीर आकर ठहरा।राबिया जिस धर्मग्रंथ को पढ़ती थी, उसमें उसने एक पंक्ति को काट दिया था, एक लकीर उसने काट दी थी।

★ प्रेम और घृणा आनुपातिक शब्द हैं, न कि पूर्ण ★

राबिया नाम की एक फकीर औरत थी। राबिया के पास एक दूसरा फकीर आकर ठहरा।राबिया जिस धर्मग्रंथ को पढ़ती थी, उसमें उसने एक पंक्ति को काट दिया था, एक लकीर उसने काट दी थी।

धर्मग्रंथों में कोई पंक्तियां काटता नहीं है, क्योंकि धर्मग्रंथों में कोई सुधार क्या करेगा?वह दूसरे फकीर ने किताब पढ़ी और उसने कहा कि राबिया, किसी ने तुम्हारे धर्मग्रंथ को नष्ट कर दिया, यह तो अपवित्र हो गया,

इसमें एक लाइन कटी हुई है, यह किसने काटी है?राबिया ने कहा यह मैंने ही काटी है।वह फकीर बहुत हैरान हो गया। उसने कहा तूने यह लाइन क्यों काटी?

उस पंक्ति में लिखा हुआ था शैतान को घृणा करो।राबिया ने कहा : मैं मुश्किल में पड़ गई हूं। जिस दिन से मेरे मन में परमात्मा के प्रति प्रेम जगा है, उस दिन से मेरे भीतर घृणा विलीन हो गई है।

मैं घृणा चाहूं भी तो नहींकर सकती हूं। और अगर शैतान भी मेरे सामने खड़ा हो जाए, तो मैं प्रेम ही कर सकती हूं। मेरे पास कोई उपाय न रहा, क्योंकि घृणा करने के पहले मेरे पास घृणा होनी चाहिए।मैं आपको घृणा करूं, इसके पहले मेरे हृदय में घृणा होनी चाहिए। नहीं तो मैंकरूंगा कहां से और कैसे?

और एक ही हृदय में घृणा और प्रेम का सह - अस्तित्व संभव नहीं है। ये दोनों बातें उतनी ही विरोधी हैं, जितनी बातें जीवन और मृत्यु।ये दोनों बातें एक साथ एक ही हृदय में नहीं होती हैं। तो फिर हम जिसको प्रेम कहते हैं, वह क्या है?

थोड़ी कम जो घृणा है, उसे हम प्रेम कहते हैं। थोड़ी ज्यादाजो घृणा है, उसे हम घृणा कहते हैं।

~ ओशो ~
{अंतर्यात्रा, साधना - शिविर, ऐज़ॉल, प्रवचन #1, 03/02/1968)

અબ્બાસ અલમદાર(અ. સ) પર નોહા__________________________લશ્કરમાં હતો શોર ખબરદાર ખબરદાર,આવે છે અલમદાર;શબ્બીરના બાઝુ છે હરમના છે એ આધાર, આવે છે અલમદાર.*

અબ્બાસ અલમદાર(અ. સ) પર નોહા__________________________લશ્કરમાં હતો શોર

ખબરદાર ખબરદાર,આવે છે અલમદાર;શબ્બીરના બાઝુ છે હરમના છે એ આધાર,
આવે છે અલમદાર.*

હાથોમાં સકીનાની મશક છે ને અલમ છે,વલ્લાહ શું દમ છે
જો રોકશો એને તો થશે લાશોના અંબાર
આવે છે અલમદાર.*

શું આન છે શું શાન છે, મીચાય છે આંખોપથરાય છે આંખો;લાગે છે કે આવી ગયા છે હેદરે કરરાર,
આવે છે અલમદાર.*

તલવાર એની ઘૂમશે લશ્કરમાં હવા જેમ,
મહેશરની સજા જેમએ સેંકડોને મારશે,
મારે નહીં બે ચાર,
આવે છે અલમદાર*

હસરતથી જુએ છે અહીં સરદારે મદીના,સાથે છે સકીના;
ખેઇમામાં ઊભી જોઈ રહી છે એ નિરાધાર,આવે છે અલમદાર.*

શબ્બીરનું જયારે હવે કોઈ નથી બાકી,
સામે છે હલાકીતો રણમાં હવે આવે છે એક બોલતી તલવાર
આવે છે અલમદાર.*

પાણીથી મશક ભરવા એ આવે છે અકેલા,
ગુસ્સાથી ભરેલા,છે નહેર તરફ આંખ ને આંખમાં અંગાર,
આવે છે અલમદાર*

છે તારા તરફ એને બધાં કરતાં વધુ તેઇશ,
કઝા તારી છે દરપેશ;સંતાઈ જા તું ક્યાં જગે સીમ્ર સિતમગાર,
આવે છે અલમદાર.*

તું તારા ગુના પર હવે પસ્તાઈ રહ્યો છે,
ગભરાઈ રહ્યો છે;

કિંતુ ઓ 'મરીઝ' આવે છે એક ખાસ મદદગાર

આવે છે અલમદાર

***********************************************૭ મી મોહર્રમ ૧૪૩૭