दो प्रकार के ज्ञानएक ज्ञान है, जो भर तो देता है मन को बहुतजानकारी से, लेकिन हृदय को शून्य नहीं करता।एक ज्ञान है, जो मन को भरता नहीं, खाली करताहै। हृदय को शून्य का मंदिर बनाता है। एक ज्ञान है,जो सीखने से मिलता है और एक ज्ञान है जोअनसीखने से मिलता है।
जो सीखने से मिले,वह कूड़ाकरकट है। जो अनसीखने से मिले, वही मूल्यवान है।सीखने से वही सीखा जा सकता है, जो बाहर सेडाला जाता है। अनसीखने से उसका जन्म होता है,जो तुम्हारे भीतर सदा से छिपा है।ज्ञान को अगर तुमने पाने की यात्रा बनाया, तोपंडित होकर समाप्त हो जाओगे।
ज्ञान को अगरखोने की खोज बनाया, तो प्रज्ञा का जन्महोगा।पांडित्य तो बोझ है; उससे तुम मुक्त न होओगे। वह तोतुम्हें और भी बांधेगा। वह तो गले में लगी फांसी है,पैरों में पड़ी जंजीर है। पंडित तो कारागृह बनजाएगा, तुम्हारे चारों तरफ। तुम उसके कारण अंधे होजाओगे।
तुम्हारे द्वार दरवाजे बंद हो जाएंगे।क्योंकि जिसे भी यह भ्रम पैदा हो जाता है, किशब्दों को जानकर उसने जान लिया, उसका अज्ञानपत्थर की तरह मजबूत हो जाता है।तुम उस ज्ञान की तलाश करना जो शब्दों से नहींमिलता, निःशब्द से मिलता हैं। जो सोचने विचारनेसे नहीं मिलेगा, निर्विचार होने से मिलता है।
तुमउस ज्ञान को खोजना, जो शास्त्रों में नहीं है, स्वयंमें है। वही ज्ञान तुम्हें मुक्त करेगा, वही ज्ञान तुम्हेंएक नए नर्तन से भर देगा। वह तुम्हें जीवित करेगा वहतुम्हें तुम्हारी कब्र के ऊपर बाहर उठाएगा। उससे हीआएंगे फूल जीवन के। और उससे ही अंततः परमात्माका प्रकाश प्रकटेगा।
~ ओशो ~
(कहे कबीर दीवाना, प्रवचन #3)
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