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Thursday, 31 March 2016

अभी एक बहुत अदभुत नृत्यकार था पश्चिम में — निजिनसकी। उसका नृत्य असाधारण था, शायद पृथ्वी पर वैसा नृत्यकार इसके पहले नहीं था। असाधारणता यह थी कि वह अपने नाच में जमीन से इतने ऊपर उठ जाता था जितना कि साधारणतया उठना बहुत मुश्किल है।

अभी एक बहुत अदभुत नृत्यकार था पश्चिम में — निजिनसकी। उसका नृत्य असाधारण था, शायद पृथ्वी पर वैसा नृत्यकार इसके पहले नहीं था। असाधारणता यह थी कि वह अपने नाच में जमीन से इतने ऊपर उठ जाता था जितना कि साधारणतया उठना बहुत मुश्किल है।

और इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक यह था कि वह ऊपर से जमीन की तरफ आता था तो इतने स्लोली, इतने धीमे आता था कि जो बहुत हैरानी की बात है। क्योंकि इतने धीमे नहीं आया जा सकता। जमीन का जो खिंचाव है वह उतने धीमे आने की आज्ञा नहीं देता।

यह उसका चमत्कारपूर्ण हिस्सा था। उसने विवाह किया , उसकी पत्नी ने जब उसका नृत्य देखा तो वह आश्चर्यचकित हो गयी। वह खुदभी नर्तकी थी।उसने एक दिन निजिनसकी को कहा — उसकी पत्नी ने आत्मकथा में लिखा है,

मैंने एकदिन अपने पति को कहा — व्हाट ए शेम दैट यू कैन नाट सी युअरसेल्फ डांसिंग—कैसा दुख कि तुम अपने को नाचते हुए नहीं देख सकते। निजिनसकी ने कहा — हू सैड, आइ कैन नाट सी। आइ डू आलवेज सी। आइ एम आलवेज आउट। आइ मेक माइसेल्फ डान्स फ्राम दि आउटसाइड।

निजिनसकी ने कहा — मैं देखता हूं सदा, क्योंकि मैं सदा बाहर होता हूं और मैं बाहर से ही अपने को नाच करवाता हूं। और अगर मैं बाहर नहीं रहता हूं तो मैं इतने ऊपर नहीं जा पाता हूं और अगर मैं बाहर नहीं रहता हूं तो इतने धीमे जमीन पर वापस नहीं लौट पाता हूं।

जब मैं भीतर होकर नाचता हूं तो मुझ में वजन होता है, और जब मैं बाहर होकर नाचता हूं तो उसमें वजन खो जाता है।योग कहता है — अनाहत चक्र जब भी किसी व्यक्ति का सक्रिय हो जाए, तो जमीन का गुरुत्वाकर्षण उस पर प्रभाव कम कर देता है और विशेष नृत्यों का प्रभाव अनाहत चक्र पर पड़ता है। अनायास ही मालूम होता है। निजिनसकी ने नाचते-नाचते अनाहत चक्र को सक्रिय कर लिया। और अनाहत चक्र की दूसरी खूबी है कि जिस व्यक्ति का अनाहत चक्र सक्रिय हो जाए वह आउट आफ बाडी ऐक्सपीरिएंस, शरीर के बाहर के अनुभवों में उतर जाता है।

वह अपने शरीर के बाहर खड़े होकर देख पाता है। लेकिन जब आप शरीर के बाहर होते हैं, तब जो शरीर के बाहर होता है, वही आपकी प्राण ऊर्जा है। वही वस्तुतः आप हैं।

महावीर वाणी,
भाग-१,
प्रवचन-९, ओशो

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