★ प्रेम और घृणा आनुपातिक शब्द हैं, न कि पूर्ण ★
राबिया नाम की एक फकीर औरत थी। राबिया के पास एक दूसरा फकीर आकर ठहरा।राबिया जिस धर्मग्रंथ को पढ़ती थी, उसमें उसने एक पंक्ति को काट दिया था, एक लकीर उसने काट दी थी।
धर्मग्रंथों में कोई पंक्तियां काटता नहीं है, क्योंकि धर्मग्रंथों में कोई सुधार क्या करेगा?वह दूसरे फकीर ने किताब पढ़ी और उसने कहा कि राबिया, किसी ने तुम्हारे धर्मग्रंथ को नष्ट कर दिया, यह तो अपवित्र हो गया,
इसमें एक लाइन कटी हुई है, यह किसने काटी है?राबिया ने कहा यह मैंने ही काटी है।वह फकीर बहुत हैरान हो गया। उसने कहा तूने यह लाइन क्यों काटी?
उस पंक्ति में लिखा हुआ था शैतान को घृणा करो।राबिया ने कहा : मैं मुश्किल में पड़ गई हूं। जिस दिन से मेरे मन में परमात्मा के प्रति प्रेम जगा है, उस दिन से मेरे भीतर घृणा विलीन हो गई है।
मैं घृणा चाहूं भी तो नहींकर सकती हूं। और अगर शैतान भी मेरे सामने खड़ा हो जाए, तो मैं प्रेम ही कर सकती हूं। मेरे पास कोई उपाय न रहा, क्योंकि घृणा करने के पहले मेरे पास घृणा होनी चाहिए।मैं आपको घृणा करूं, इसके पहले मेरे हृदय में घृणा होनी चाहिए। नहीं तो मैंकरूंगा कहां से और कैसे?
और एक ही हृदय में घृणा और प्रेम का सह - अस्तित्व संभव नहीं है। ये दोनों बातें उतनी ही विरोधी हैं, जितनी बातें जीवन और मृत्यु।ये दोनों बातें एक साथ एक ही हृदय में नहीं होती हैं। तो फिर हम जिसको प्रेम कहते हैं, वह क्या है?
थोड़ी कम जो घृणा है, उसे हम प्रेम कहते हैं। थोड़ी ज्यादाजो घृणा है, उसे हम घृणा कहते हैं।
~ ओशो ~
{अंतर्यात्रा, साधना - शिविर, ऐज़ॉल, प्रवचन #1, 03/02/1968)
No comments:
Post a Comment