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Saturday, 26 March 2016

रजनीश से ‘ ओशो’ रजनीश बननेकी कहानी : उन्हीकीजुबानी मैंनेओशो का केवल नाम ही सुना था! ढेर सारे बाबाओंकीलिस्ट में से उन्हें भी एकही मानता था! कई बार उन्हेंपढ़ने का मौकाभी मिला, मग

रजनीश से ‘
ओशो’ रजनीश बननेकी कहानी : उन्हीकीजुबानी
 
मैंनेओशो का केवल नाम ही सुना था! ढेर सारे बाबाओंकीलिस्ट में से उन्हें भी एकही मानता था! कई बार उन्हेंपढ़ने का मौकाभी मिला, मगर मैंने उन्हें नहीं पढ़ा! कारणथा बाबाओं को लेकर मेरे मन क
पूर्वाग्रह! मगर जबएक बार उन्हेंसुना, तो यह धारणा टूट गयी! जिन्होंने ओशो को पढ़ा यासुना है, उनमें से कई लोगों के मन में सवाल आया होगा कि आखिरइस ईश्वर विरोधी शख्स ने बाबाओं जैसे इस भेष कोक्यों चुना?

क्यों खुद को भगवान घोषित कर लिया? इस सवाल काजवाब अगर आप उन्हीं के शब्दों में सुनेंगे तो ज्यादाबेहतर होगा! इसलिए प्रस्तुत है

ओशो रजनीश द्वारा12 जनवरी, 1985 को दिएगए भाषण के अंश!जवानी में यूनिवर्सिटी में मैं नास्तिक औरअधार्मिक व्यक्ति के रूपमें जाना जाताथा। प्रत्येक आचार व्यवस्थाके खिलाफ था और आज भी यह बरक़रार है। इससेएक इंच भी पीछे नहीं हटा।पर नास्तिक, अधार्मिक और प्रत्येक आचार व्यवस्थाविरोधी पहचान मेरे लिए एक समस्या बनगयी।

लोगों के साथ किसी तरह कासंचारमुश्किल था। लोगों के साथ किसी तरह का संपर्कस्थापित करना लगभग असंभव था। जब लोगों को पता चलता किमैंनास्तिक हूँ, अधार्मिक हूँ और आचार व्यवस्था काविरोधी हूँ तो वे सारे दरवाजे बंद कर लेते। मैं ईश्वर मेंविश्वास नहीं करता, किसी स्वर्ग-नरक मेंविश्वास नहीं करता। लोगोँ के लिए यह विचारही मुझसे दूर भागने के लिए काफी था।

मैंविश्वविद्यालय में प्रोफेसर था इसलिए सैकड़ों प्रोफेसर, शोध छात्रमुझसे कतराते थे क्योंकि वे जिस चीज में विश्वास रखतेथे उसे कहने का उनमें हौसला नहीं था। अपने विचारोंके लिए उनके पास कोई तर्क नहीं था।विश्वविद्यालयकी सड़कों के नुक्कड़ों पर, पान की दुकानोंपर, जहाँ भी कोई मिलता, वहीँ तर्क करतारहता था।

मैं धर्म पर सीधी चोट करता था,लोगों को इस बकवास से पूरी तरह छुटकारादिलानेकी पूरी कोशिश करता था। इसका परिणामयह निकला कि मैं एक द्वीप बनकर रह गया। कोईमुझसे बात करके राजी नहीं था। उन्हें डरथा कि यदि उन्होंने मुझे बुलाया तो पतानहीं मैं उनकोकहाँ ले जाऊँ।

आख़िरकार मुझे अपनीरणनीति बदलनी पड़ी।मैं सचेतहुआ कि जो लोग सत्य की खोज के इच्छुक हैं वेआश्चर्य की सीमा तक धर्म से जुड़े हैं।अधार्मिक समझा जानेके कारण मैं उनसे विचार विमर्शनहीं कर सकता था। यही लोग सत्यकी खोज के इच्छुक थे।

यही लोग थे जोमेरे साथ अनजानी राहों पर चल सकते थे। पर ये लोगपहले ही किसी धर्म सम्प्रदाय या दर्शनसे जुड़े थे। उनका मुझे अधार्मिक सोंचना ही बाधा बनगया। इन्हीं लोगों की मुझे जरुरतथी।वे लोग भी थे जो धर्म मेंलीन नहीं थे, पर उनमें सत्यकी खोज की जिज्ञासा नहींथी। यदि उन्हें प्रधानमन्त्री पद औरसत्य में से किसी एक को चुनने के लिए कहा जाता तो वेप्रधानमंत्री पद को प्राथमिकता देते।

सत्य के बारे में वेकहते, “कोई जल्दी नहीं। यह तोकभी भी किया जा सकता है।प्रधानमंत्री पद फिर शायद कभी न मिले।सत्य तो हर किसी कास्वभाव है, इसे कभीभी प्राप्त किया जा सकता है। सबसे पहलेवह करनाचाहिए जो क्षणिक है, समयबद्ध है और जिसका समय हाथ सेनिकल रहा है। ऐसा सुहाना सपना शायद फिरन आये। सत्य तोकहीं भागा नहीं जाता।

”उनका रुझान सपने,कल्पना की ओर था। उनकी औरमेरी बातचीत असंभव थीक्योंकि मेरे और उनके हित अलग अलग थे। मैंने पूरीकोशिश की पर इन लोगों की धर्म में, सत्यमें और अन्य किसी महत्वपूर्ण बात में रूचिनहीं थी। जिनकी रूचिथी वे ईसाई थे, या हिन्दू, मुसलमान, जैन या बौद्ध थे।वे पहले ही किसी धर्म या विचारधारा सेजुड़े थे।

अब मुझे स्पष्ट हो गया था कि मुझे धार्मिक होने कानाटक करना पड़ेगा। कोई और रास्ता भीनहीं था। इसके बाद ही मुझेअसली खोजी मिल सकते थे।मैं धर्म शब्दसे ही नफ़रत करता था। मैंने सदा इससे नफरतकी है। पर मुझे धर्म पर बोलना पड़ा। धर्मकी आड़ में जो बातें कहीं असल में वो वहनहीं था जो लोग समझते थे। वह सिर्फरणनीति थी।

उनके शब्द ईश्वर, धर्मऔर मुक्ति का मैं प्रयोग कर रहा था पर उन्हें अपने अर्थ दे रहाथा। इस तरह मैंने लोगों को ढूँढना शुरूकिया, वे मेरे पास आने लगे।लोगों की नजरों में अपनी छवि सुधारने मेंकई वर्ष लगे। लोग शब्द तो सुनते थे पर उनके अर्थनहीं समझते थे। लोग वही समझते हैं जोतुम कहते हो। जो कुछ अनकहा रह जाता, वो उसेनहीं समझते थे। इसलिए मैंने उनके हथियार कोही उनके ख़िलाफ़ प्रयोग किया।

मैंने धर्मग्रंथों परटिप्पणी की मगरउन्हें अपने अर्थ दिए।वह चीजें मैं बिना टिप्पणी केभी कह सकता था, वह मेरे लिए आसानथी, क्योंकि तब मैं सीधा तुमसे बात कर रहाहोता। फिर कृष्ण, महावीर और ईसा कोबीच में घसीटने की कोईजरुरत नहीं थी, वह सब भीकहने की जरुरत नहीं थी, जोउन्होंने कभी नहीं कहा। यह मानवताकी मूर्खता है कि वहज बातें जो मैं पहले कहता रहताथा, जिन्हें सुनने को कोई तैयार नहीं था, अब क्योंकि मैंकृष्ण बोल रहा था इसलिए हजारों लोग मेरे आस पास इकट्ठे होनेलगे।

यही एकमात्र तरीका है। जब मैंनेईसा पर बोलना शुरू किया तो ईसाई कॉलेजों और ईसाई धार्मिक संस्थाओंनें मुझे बोलने के लिए बुलाना शुरू किया, मैं मन ही मनहमेशा हँसता रहता। क्योंकि मूर्ख समझते हैं कि यह ईसा ने कहाहै। हाँ, मैंने ईसा के शब्द प्रयोग कियेहैं। किसी केशब्दों के खेल को समझने की जरुरत है, फिरकिसी भी शब्द को कोई भीअर्थ दिया जा सकता है। वे सोंचते हैं कि यही ईसा कावास्तविक सन्देश है।

वे कहते हैं कि ईसाई मिशनरियों और पादरियोंने ईशा के लिए इतना नहीं किया जितना आपने किया है।मैंचुप रहता। मैं जानता था मुझे ईसा से कुछ नहीं लेना।जो कुछ मैं कह रहा था, ईसा तो उसे समझ भीनहीं सकता। वह बेचारा तो बिलकुल अनपढ़ व्यक्ति था।इसमें कोई शक नहीं कि उसका व्यक्तित्वचुम्बकीय है। उसके लिए अनपढ़ और स्वर्ग केलोभियों को इकठ्ठा करना मुश्किल काम नहीं था। यहआदमी वादे करता था और इसके बदले में माँगता कुछनहीं था। फिर उसमें विश्वास करने में क्या हर्ज है?कोई खतरा नहीं, कोई जोख़िम नहीं।

यही कोई ईश्वर नहीं, स्वर्गनहीं, तो तुमने कुछ नहीं खोया। यदि येकहीं हों तो मुफ़्त लाभ ही लाभ। बहुतआसान हिसाब किताब है। यह आदमी कुछनहीं जनता। उसके पास कोई तर्क नहींहै। वह उन्हीं चीजों को दोहराता है जोउसने दुनिया से सुनी हैं। परन्तु वह कट्टर किस्म काअड़ियलनौजवान था। जो कुछ मैं ईसा के नामपर कहता था, वहपहले भी कह रहा था। पर तब किसी ईसाई कॉलेज या धार्मिक संस्थाओं नें मुझे नहीं बुलाया।बुलाना तो दूर, अगर मैं जाने की कोशिश भीकरता तो दरवाजे बंद कर लेते।

यह स्थितिथी। मुझेमेरेअपने शहर के बीच स्थित मंदिर में जाने से रोका गया…पुलिस की सहायता से। पर अब उसी मंदिरवालों नें मुझे बुलाना शुरू किया।मैंने अपने ढ़ंग तरीकेनिकाले। मैं ईश्वर पर बात करता और कहताकि ईश्वर तो बहुतअच्छा शब्द है। मैं ईश्वरता पर बोलरहा था इसलिए पुजारियों से ठगेगए सत्य के पथिकों नें मुझमें रुचि लेनी शुरू करदी। मैंने सभी धर्मों का सार इकठ्ठा करलिया। मैंने रास्ता ढूँढ लिया। मैंने सिर्फ यह सोंचा, “उनके शब्दों काइस्तेमाल करो, उनकी धार्मिक पुस्तकें इस्तेमाल करो।यदि तुम किसी और की बन्दूक चला रहेहो तो इसका मतलब ये नहीं कि तुम अपनीगोलियाँ नहीं प्रयोग कर सकते। बन्दूककिसी की भी हो, गोलियाँमेरी ही हैं।

असली काम तोगोलियों को ही करना है, फिर क्या हर्ज है? यह बहुतआसान काम था। मैं हिन्दू शब्दों का इस्तेमाल करकेवही खेल खेल सकता था, मुसलमानी शब्दप्रयोग करके यही खेल खेल सकता था, ईसाईशब्दावली प्रयोग करके खेल खेल सकता था।”मेरे पाससिर्फ यही लोग नहीं आये बल्कि जैन,साधु, साध्वियाँ, हिन्दू और बौद्ध साधू,ईसाई मिशनरी औरपादरी हर किस्म के लोग मेरे पास आये। तुमयकीन नहीं करोगे, तुमनेमुझेकभी हँसता हुआ नहीं देखा होगा। अंदरही अंदर मैं इतना हँसा हूँ कि अब मुझे हंसनेकी जरुरत ही नहींपड़ती। मैं तुम्हें सारी उम्रलतीफ़े सुनाता रहा हूँ पर मैं नहीं हँसताक्योंकि मैं तो सारी उम्र मजाक ही करतारहा हूँ। इससे अधिक मजाक की बात क्या होसकती है कि मैं सारे पादरियों और महान विद्वानों कोइतनी आसानी से बुद्धू बनाने में कामयाबहुआ।

वे मेरे पास सवाल लेकर आने लगे। शुरू शुरू में मुझे उनकेशब्द सावधानी से बोलने पड़ते। मैंशब्दों और पंक्तियों मेंअपने विचार चला देता, जिनमें मेरी रूचिहोती।शुरू शुरू में लोगों को धक्का सा लगा। वे लोग, जोजानते थेकि मैं नास्तिक हूँ, असमंजस में पड़ गए। स्कूल का मेराएक मास्टर कहता है, “क्या हो गया? क्या तू बदल गया?” औरउसने मेरे पैर छुए। मैंने कहा, “पैरों को हाथ मत लगाओ। मैंनहींबदला और मरते डैम तक नहींबदलूँगा।” ऐसा कई बार हुआ। एकबार मैं जबलपुर मुस्लिम संस्थामें बोल रहा था। मेरा मुसलमान टीचर वहाँ प्रिंसिपल था।जब मेरे टीचर ने मुझे देखा तो कहने लगे, “मैंनेमुअजजे होते सुने हैं पर यह तो अचानक मुअजजा है। तूसूफ़ीवाद और इस्लाम की आधारभूतफिलॉसफी पर बोल रहा है?

” मैंने कहा, “मैं आपसे झूठनहीं बोलूँगा, आप मेरे पुराने टीचर हो। मैं तोअपने दर्शन पर हीबोलूँगा। हाँ कभी कभारइस्लामी शब्द चलाऊँगा, बस…।

”….अब मैंने अपने लोगोंका चुनाव किया। सारे भारत में मैंने अपने ग्रुप बनाने शुरू किये।अबमेरे लिए सिख मत, हिंदू या जैन मत पर बोलना अनावश्यक था। परलगातार दस वर्ष मैं इनपरबोलता रहा। धीरेधीरे जब मेरे अपने लोग हो गए तो मैंने बोलना बंद करदिया। बीस साल सफ़र में रहकर मैंने सफ़र करना बन्दकर दिया। क्योंकि अब जरुरत ही नहींथी। अब मेरे अपनेलोग थे। दुसरे आना चाहते तो मेरेपास आ सकते थे।

…कई साल सन्यास देने के बाद काम छोड़ दिया,तीन साल के लिए। एक अंतराल जिसमें कोई जाना चाहे तोजा सकता था। क्योंकि मैं किसी कीजिंदगी में दखल नहीं देना चाहता था।

(रजनीश बाइबिल, वोल्यूम 3, पृष्ट 438 से 452)

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