◆◆ सृजनात्मक है स्त्री, भ्रम पाले बैठा है पुरूष ◆◆◆
स्त्री को वह शक्तियां मिली हुई हैं, जोउसे अपने काम को -- और स्त्री का बड़े से बड़ा काम उसका माँ होना है।
उससे बड़ा काम संभव नहीं है। और शायद माँ होने से बडी कोई संभावना पुरुष के लिए तो है ही नहीं, स्त्री के लिए भी नहीं है।
कभी आपने नहीं सोचा होगा, इतने मूर्तिकार हुए, इतने चित्रकार, इतने कवि, इतने आर्किटेक्ट, लेकिन स्त्री कोई एक बड़ी चित्रकार नहीं हुई! कोई एक स्त्री बडी आर्किटेक्ट, वास्तुकला मेंअग्रणी नहीं हुई! सृजन का सारा काम पुरुष ने किया है।
और कई बार पुरुष को ऐसा खयाल आता है कि सृजनात्मक शक्ति हमारे पास है। स्त्री के पास कोई सृजनात्मक शक्ति नहीं है।
लेकिन बात उलटी है। स्त्री पुरुष को पैदा करने में इतना बड़ा श्रम कर लेती है कि और कोई सृजन करने कि जरूरत नहीं रह जाती।
स्त्री के पास अपना एक सृजनात्मक कृत्य है, जो इतना बड़ा कि न, पत्थर की मूर्ति बनाना और एक जीवित व्यक्ति को बड़ा करना..... लेकिन स्त्री के काम को हमने सहज स्वीकार कर लिया है।
और इसीलिए स्त्री की सारी सृजनात्मक शक्ति उसके माँ बनने में लग जाती है। उसके पास और कोई सृजन की न सुविधा बचती है, न शक्ति बचती है।
~ ओशो ~
(सम्भोग से समाधि की ओर, प्रवचन #14)
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