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Friday, 18 March 2016

चीन में कहानी है कि एक आदमी वर्षों तक सोचता था कि पास में एक पहाड़ पर तीर्थस्थान था वहा जाना है। लेकिन-कोईतीन-चार घंटे की यात्रा थी, दस-पंद्रह मील का

चीन में कहानी है कि एक आदमी वर्षों तक सोचता था कि पास में एक पहाड़ पर तीर्थस्थान था वहा जाना है। लेकिन-कोईतीन-चार घंटे की यात्रा थी, दस-पंद्रह मील का फासला था-वर्षों तक सोचता रहा। पास ही था, नीचे घाटी में ही रहता था, हजारों यात्री वहां से गुजरते थे, लेकिन वह सोचता था पास ही तो हूं, कभी भीचला जाऊंगा।बूढ़ा हो गया। तब एक दिन एक यात्री ने उससे पूछा कि भाई, तुम भी कभी हो? उसने कहा कि मैं सोचता ही रहा, सोचा इतना पास हूं कभी भी चला जाऊंगा।

लेकिन अब देर हो गई, अब मुझे जाना ही चाहिए। उठा, उसनेदुकान बंद की। सांझ हो रही थी। पत्नी ने पूछा, कहां जाते हो? उसने कहा मैं, अबतो यह मरने का वक्त आ गया, और मैं यही सोचता रहा इतने पास है, कभी भी चला जाऊंगा, और मैं इन यात्रियों को ही जो तीर्थयात्रा पर जाते हैं सौदा-सामान बेचता रहा। जिंदगी मेरी यात्रियों के ही साथ बीती-आने-जाने वालों के साथ। वेखबरें लाते, मंदिर के शिखरों की चर्चा करते, शाति की चर्चा करते, पहाड़ के सौंदर्य की बात करते, ‘गैर मैं सोचता कि कभी भी चला जाऊंगा, पास ही तो है।

दूर-दूर के लोग यात्रा कर गए, मैं पास रहा रह गया। मैं जाता हूं।कभी यात्रा पर गया न था। सिर्फ यात्रा की बातें सुनी थीं। सामान बाधा, तैयारी की रातभर-पता था कि तीन बजे रात निकल जाना चाहिए, ताकि सुबह-सुबह ठंडे-ठंडे पहुंच जाए। लालटेन जलाई। क्योंकि देखाथा कि यात्री बोरिया-बिस्तर ‘भी रखते हैं, लालटेन भी लेकर जाते हैं।

लालटेन लेकर गांव के बाहर पहुंचा तब उसे एक बात खयाल आई कि लालटेन का प्रकाश तो चार कदम से ज्यादा पड़ता नहीं। पंद्रह मील का फासला है। चार कदम तक पड़ने वाली रोशनी साथ है। यह पंद्रह मील की यात्राकैसे पूरी होगी? घबड़ाकर बैठ गया। हिसाब लगाया। दुकानदार था, हिसाब-किताब जानता था। चार कदम पड़ती है रोशनी,पंद्रह मील का फासला है। इतनी सी रोशनीसे कहीं जाना हो सकता है? घबड़ा गया।


हिसाब बहुतों को घबड़ा देता है।अगर तुम परमात्मा का हिसाब लगाओगे, घबड़ा जाओगे। कितना फासला है। कहां तुम, कहा परमात्मा! कहां तुम, कहा मोक्ष! कहातुम्हारा कारागृह और कहा मुक्ति का आकाश! बहुत दूर है। तुम घबड़ा जाओगे, पैर कंप जाएंगे। बैठ जाओगे, आश्वासन खो जाएगा, भरोसा टूट जाएगा।

पहुंच सकते हो,यह बात ही मन में समाएगी न।उसके पैर डगमगा गए। वह बैठ गया। कभी गया न था, कभी चला न था, यात्रा न की थी। सिर्फ लोगों को देखा था आते-जाते। उनकी नकल कर रहा था, तो लालटेन भी ले आयाथा, सामान भी ले आया था। कहते हैं, पास से फिर एक यात्री गुजरा और उसने पूछा कि तुम यहां क्या कर रहे हो? उस आदमी ने कहा, मैं बड़ी मुसीबत में हूं।

इतनी सी रोशनी से इतने दूर का रास्ता! पंद्रह मील का अंधकार, चार कदम पड़ने वाली रोशनी! हिसाब तो करो! उस आदमी ने कहा, हिसाब-किताब की जरूरत नहीं। उठो और चलो। मैं कोई गणित नहीं जानता, लेकिन इसरास्ते पर बहुत बार आया-गया हूं। और तुम्हारी लालटेन तो मेरी लालटेन से बड़ी है।

तुम मेरी लालटेन देखो-वह बहुत छोटी सी लालटेन लिए हुए था, जिससे एक कदम मुश्किल से रोशनी पड़ती थी-इससे भी यात्रा हो जाती है। क्योंकि जब तुम एक कदम चल लेते हो, तो आगे एक कदम फिर रोशन हो जाता है। फिर एक कदम चल लेते हो, फिर एक कदम रोशन हो जाता है।जिनको चलना है, हिसाब उनके लिए नहीं है।जिनको नहीं चलना है, हिसाब उनकी तरकीब है।

जिनको चलना है, वे चल पड़ते हैं। छोटी सी रोशनी पहुंचा देती है। जिनको नहीं चलना है, वे बड़े अंधकार का हिसाब लगाते हैं। वह अंधकार घबड़ा देता है। पैर डगमगा जाते हैं।साधक बनो, ज्ञानी नहीं। साधक बिना बने जो ज्ञान आ जाता है, वह कूड़ा-करकट है।

साधक बनकर जो आता है, वह बात ही और है। महावीर ठीक कहते हैं, जो चल पड़ा वह पहुंच गया; वह ज्ञानी की बात है। उस ज्ञानी की जो चला है, पहुंचा है।

ओशो,
एस धम्मो सनंतनो,
भाग -2

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