लाओत्से कहता है, किसी चीज को अति पर मत ले जाओ; समय रहते रुक जाओ। मध्य में ठहरजाओ। न इस तरफ, न उस तरफ।
वहीं साक्षी-भाव का उदय होता है, मध्य में।अगर चौदह वर्ष के बच्चे को ठीक से शिक्षित किया जा सके तो हम उसे तरकीब बताएंगे कि वह जीवन में उतरे, लेकिन अतिपर न जाए; मध्य में रहे।
जीवन के अनुभव से गुजरे, लेकिन अति पर न जाए। क्योंकि एक अति दूसरे अति पर ले जाती है। अगर वह भोग में बहुत उतर गया तो त्यागी हो जाएगा कभी न कभी। और दोनों गलत हैं।
अगर दुर्जन हुआ तो कभी न कभी सज्जन हो जाएगा। अगर सज्जन हुआ तो कभी न कभी दुर्जन हो जाएगा। क्योंकि एक अति पर पहुंच कर चीजें बुढ़ा जाती हैं।
फिर वहां से लौटना पड़ता है दूसरी अति पर। क्योंकि एक अति पर जब तुम जाते हो तो तुम्हें दिखता है कि जीवन दूसरी अति परहै।
भोगी सोचता है, त्यागी बड़े आनंद में है।तुम्हें त्यागी का पता नहीं। त्यागी सोचता है, भोगी सारी दुनिया का मजा ले रहा है; हम मुफ्त मारे गए। हम न मालूम किस बात में फंस गए। मैं दोनों को जानता हूं। भोगी दुखी है, भोग की चिंताएं हैं। त्यागी दुखी है, क्योंकि त्याग की चिंताएं हैं।
भोगी वासना के कारण दुखी है, क्योंकि वह उलझा रही है। त्यागी वासना को दबाने के कारण दुखी है,क्योंकि वह मवाद की तरह भीतर बढ़ रही है।अगर व्यक्ति ठीक, सम्यक राह पकड़े तो इतना भोग में जाने की जरूरत नहीं है कि त्याग पैदा हो जाए।
मध्य में ठहर जाना जरूरी है कि भोग से साक्षी-भाव आ जाए। बस इतना काफी है। वहीं रुक जाए। ऐसा व्यक्ति कभी नहीं बुढ़ाता। ऐसे व्यक्तिके भीतर की जीवन-धार सदा युवा बनी रहती है।
ऐसे व्यक्ति के भीतर जीवन सदा अपनीउत्कृष्टता में, संतुलन में, गरिमा में ठहरा रहता है। ऐसा व्यक्ति कभी चुकता नहीं। ऐसा व्यक्ति सदा ही भरा रहता है।
ताओ उपनिषद,भाग 5
ओशो।
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