कभी-कभी नहीं, सदा ही ज्ञानी साथ-साथ रोता और हंसता है। हंसता है अपने को देखकर, रोता है
तुम्हें देखकर। हंसता है यह देखकर, कि जीवन की संपदा कितनी सरलता से उपलब्ध है। रोता है यह देखकर, कि करोड़ों-करोड़ों लोग व्यर्थ ही निर्धन बने हैं।
हंसता है यह देखकर कि सम्राट होना बिलकुल सुगम था और रोता हैयह देखकर कि फिर क्यों अरबों लोग भिखारी बने हैं?जिसे तुम पाकर ही पैदा हुए हो, जिसे तुमने कभी खोया नहीं,
जिसे तुम चाहो तो भी खो न सकोगे, जिसे खोने का उपाय ही नहीं है, उसे तुमने खो दिया है यह देखकर रोता है।यह देखकर हंसता है, कि जो मुझे मिल गया है, उससे मिलाने के लिए कुछ भी करने की कभी कोई जरूरत न थी।
कहीं जाने की, किसी यात्रा की कोई जरूरत न थी। यह देखकर हंसता है कि सभी मेरे भीतर था और मैं कैसे चूकता रहा!और अचानक एक क्षण में आती है आंधी और सब कूड़ा-करकट उड़ जाता है। और भीतर परमात्मा विराजमान है।
तुम उसके मंदिरहो।तो जब भी भीतर देखता है, मुस्कुराता है; जब भी बाहर देखता है, उसकी आंखें आंसुओंसे भर जाती हैं।और ऐसा एक ज्ञानी के साथ नहीं होता, सभी ज्ञानियों के साथ होता है–और होगा ही।
इससे अन्यथा होने का उपाय नहीं है।इतना सरल है और इतना कठिन हो गया है!कबीर कहते हैं, कि मुझे हंसी आती है कि मछली पानी में क्यों प्यासी है?
चारों तरफ पानी ही पानी है, बाहर भीतर पानी ही पानी है; मछली पानी में ही पैदा होती है,पानी में ही जीती है, पानी में ही लीन होजाती है; फिर भी प्यासी!
तो कबीर कहते हैं,
“मुझे आवै हांसी”; मुझे बड़ी हंसी आती है।आदमी परमात्मा में ही पैदा होता है, जैसे परमात्मा सागर हो तुम्हारे चारोंतरफ–और चारों तरफ ही नहीं, भीतर भी। वही हो भीतर, वही हो बाहर और फिर भी तुम अतृप्त रह जाओ।
अहर्निश उसका नाद बज रहा हो और तुम्हें धुन भी न सुनाई पड़े, एक कण भी तुम्हारे कानों में न आए। चारों ओर उसी के फूल खिलते हों
और तुम्हें कोई सुगंध न मिले। सब तरफ उसी की रोशनी हो और तुम अंधे ही बने रहो और अपने अंधेरे में ही जी लो।इस उलझन को देखकर ज्ञानी हंसता भी है, रोता भी है।
तुम पर उसे दया भी आती है और तुम्हारी अत्यंत हास्यास्पद स्थिति देखकर वह हैरान भी होता है।और इसलिए अक्सर ज्ञानी पागल मालूम होगा। क्योंकि तुम उस आदमी को भी समझ सकते हो, जो रोता हो–दुखी होगा।
तुम उस आदमी को भी समझ सकते हो, जो हंसताहै–सुखी होगा। वह आदमी तुम्हारी समझ के बाहर हो जाता है, जो हंसता भी है, रोता भी है साथ-साथ!अलग-अलग तुम समझ लेते हो। तुम भी हंसे हो, तुम भी रोए हो। हंसे हो, जब प्रसन्न थे;
एक मनोदशा थी। रोए हो, जब दुखी थे; एकदूसरी मनोदशा थी। कभी दिन था, कभी रात थी; कभी सुख था, की दुख था; कभी खिले थे, कभी मुरझा गए थे। उन दोनों स्थितियों को तुम जानते हो; लेकिन दोनों साथ-साथ तो तुमने या तो पागल में देखी हैं,
या ज्ञानी में देखी हैं।पागलखाने में जाओ तो तुम्हें पागल कभी-कभी, हंसते-रोते, साथ-साथ मिल जाएंगे। और ज्ञानी में फिर यही घटना घटती है।तो ज्ञानी पागल जैसा लगता है।
इसलिए बहुत बार ज्ञानियों से हम वंचित ही रह गए हैं। क्योंकि बेबूझ मालूम पड़ती है, वह जो कहता है, पहेलियां मालूम होती हैं। वह जो कहता है, उससे कुछ सुलझता नहीं, और उलझता मालूम पड़ता है।
उसे देखकर ऐसा नहीं लगता है, कि कोई समाधान मिल जाएगा। ऐसा लगता है, कि तुम वैसे ही उलझे थे, इसे देखकर और उलझ जाओगे।हंसता और रोता है साथ-साथ, इसका गहरा अर्थ है। इसका अर्थ है, कि जिनको तुमने अब तक विपरीत की तरह जाना है,
ज्ञानी उन्हें एक की तरह जानता है। उपनिषद कहते हैं, “एकं सत विप्रा बहुधा वदंति”। एक ही सत्य है; जानने वालों ने उसे बहुत ढंग से कहा। एक ही अवस्था है जीवन की, अभिव्यक्ति बहुत तरह से हो सकती है।वही रोता है, वही हंसता है; वह एक ही है–एकं सत। वह सत्य एक ही है, जो हंसता है और रोता है।
जो दुखी होता है, जो सुखीहोता है, वह एक ही है।लेकिन तुम कभी उसे देख नहीं पाए। या तो तुमने उसे दुखी देखा, जब दुखी देखा, तब तुम सुख को भूल गए। और जब तुमने उसे सुखी देखा, तब तुम दुख को भूल गए। इसलिए तुम्हारे जीवन में अधूरापन है।
तुम उसे अखंड न देख पाए, कि वही हंसता है, वही रोता है। और अगर तुम यह देख पाओ कि वही हंसता है, वही रोता है, तो तुम दोनोंके पार हो गए। हंसना एक भाव-दशा रह गई, रोना भी एक भाव-दशा रह गई, तुम साक्षी हो गए। तुम जाग गए।तो ज्ञानी जागता है।
उस जागने में सभी अवस्थाएं सम्मिलित हो जाती हैं एक साथ। तुम खंड-खंड हो, ज्ञानी अखंड है। इसलिए ज्ञानी के सुख में भी तुम दुख की छाया पाओगे। और ज्ञानी के दुख में भी तुम सुख का रंग देखोगे।
ओशो
कहे कबीर दीवाना–प्रवचन–16
No comments:
Post a Comment