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Sunday, 13 March 2016

OSHO ◆ सत्य का अवतरण कब, कैसे, किसपे हो जाए ◆◆◆◆ कुछ पता नहीं, सदा गाह्यता के लिए तैयार रहो ◆

◆◆ सत्य का अवतरण कब, कैसे, किसपे हो जाए ◆◆◆◆
कुछ पता नहीं, सदा गाह्यता के लिए तैयार रहो ◆◆मैंने सुना है, एक आदमी ने चोरी की। घर के लोग जाग गए, शोरगुल मच गया, आदमी भागा। उसके पीछे घर के लोग भागे। रास्ते से पुलिस वाला भी पीछे हो लिया।वह आदमी तो बड़ी घबड़ाहट में पड़ गया।वर्षा के दिन, नदी के किनारे आया तो बाढ़, हिम्मत न पड़ी कूदने की। कुछ और नहीं सूझा,कपड़े तो फेंक दिए नदी में, नंगा होकर किनारे पर बैठ गया।जब लोग पहुंचे, उन सबने उसे झुककर नमस्कार कियाऔर कहा कि साधु महाराज, एक चोर अभी -- अभी यहां आया है, आपने जरूर देखा होगा।उस चोर के भीतर एक क्रांति हो गयी!उनका कहना साधु महाराज और उसने सोचा कि मैं तो सिर्फ धोखे का साधु हूं, मेरे चरणों में झुक रहे हैं, काश, मैं सच्चा साधु होता!एक आकांक्षा जगी, न - मालूम किन जन्मों की सोई हुई आकांक्षा रहीं होगी! फिर उसने चोरी का रास्ता ही नहीं छोड़ा, साधारण संसार का रास्ता ही छोड़ दिया। फिर तो वहीं रम गया।सम्राट भी एक दिन उसके चरण छूने आया। सम्राट ने पूछा, आप कहां से आए? आपकी प्रतिभा की बड़ी ख्याति सुनी है। वह हंसनेलगा, उसने कहा, मत पूछो।धोखा देने चला था, धोखा खा गया।उसने अपनी कहानी कही कि हूं मैं वही चोर।

अब छुपाऊंगा नहीं। अब साधुता उस जगह आ गयी जहां छुपाना मुश्किल हो जाता है। साधुता उस जगह आ गयी जहां सत्य ही प्रकट करना होता है।था तो चोर, कपड़े ही फेंके थे, कभी सोचा भी नथाकपड़े फेंकते वक्त कि साधु हो जाऊंगा।

कोईऔर उपाय न देखकर साधु का वेश बनाकर बैठ गया था,नंग - धड़ंग, राख पड़ी थी घाट पर, उसी को लपेटलिया था, लेकिन जो लोग पीछे आए थे, पैर छुए;उन्होंने मुझे दीक्षा दे दी; उन्होंने पैर छुए और मेरी दीक्षा हो गयी।

वस्त्र ही नहीं गए नदी में, चोर भी बह गया।
और जब मुझे दिखायी पड़ा कि झूठे साधु को भी इतना सम्मान है, तो सच्चे साधु को कितना सम्मान होगा!बस, मेरे भीतर कुछ मिट गया और कुछ नया उमग आया।
      
       ~ ओशो ~
(राम दुवारे जो मरे, प्रवचन #4)

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