मैंने सुना है, दो फकीर थे और उन दोनों फकीरों में एक विवाद था, बड़ा लंबा विवाद था।
उनमें एक फकीर था, जो इस बात को मानता था कि कुछ पैसे वक्त - बेवक्त के लिए अपनेपास रखना जरूरी है।
दूसरा मित्र कहता था, पैसे की रखने की क्या जरूरत है? हम संन्यासी हैं, हमें पैसे की क्या जरूरत है? पैसे तो वे रखते हैं, जो संसारी हैं।
इस जगत का बड़ा रहस्य यह है कि -- न पदार्थवादी जीतता है, न अध्यात्मवादी जीतता है।
जीत भी नहीं सकते हैं, क्योंकि वे जिंदगी को आधा - आधा तोड़कर कह रहे हैं।तो उन दोनों में बड़ा विवाद था।
वे दोनों एक दिन सांझ एक नदी के किनारे भागे हुए पहुंचे हैं। रात उतरने के करीब है। माझी नाव बांध रहा है। नाव बांधते उस मांझी से उन्होंने कहा, नाव मत बांधो, हमें उस पार पहुंचा दो, रात उतरने को है, हमें उस पार जाना जरूरी है।
हमारा गुरु मृत्यु के निकट है और खबर आई है कि सुबह तक उसके प्राण निकल जाएंगे। तो माझी ने कहा कि मैं पांच रुपए लूंगा, तो उतार दूंगा।
तो जो फकीर कहता था कि रुपए पास रखना चाहिए, वह हंसा और उसने कहा, कहो दोस्त, अब क्या खयाल है? पैसा रखना व्यर्थ है या सार्थक है? वह दूसरा फकीर सिर्फ हंसता रहा। फिर उसने पांच रुपए निकाले, मांझी को दिए।
फिर वे नाव पर सवार हुए और उस पार पहुंच गए। फिर उतर कर उसने कहा, कहो मित्र, आज नदी के पार न उतर पाते, अगर पैसे पास न होते। वह दूसरा खूब हंसने लगा। उसने कहा, हम पैसे पास होने की वजह से नदी पार नहीं उतरे हैं।
तुम पैसे छोड़ सके, इसलिए नदी केपार उतरे हैं। पैसा होने से नहीं, पैसा छोड़ने से उतरे हैं नदी के पार। दलील फिर अपनी जगह खड़ी हो गई।वे दोनों अपने गुरु के पास गए और मरते हुएगुरु से उन्होंने पूछा कि क्या करें? बड़ीमुश्किल है! हमारे दोनों के सिद्धान्त ठीक मालूम पड़ते हैं।वह गुरु खूब हंसा।
उसने कहा कि तुम दोनों पागल हो। तुम वही पागलपन कर रहे हो, जो आदमी बहुत जमाने से कर रहा है। क्या पागलपन है, उन्होंने पूछा।
गुरु ने कहा, तुम एक सत्य के आधे हिस्से को देख रहे हो।यह सच है कि पैसे छोड़ने से ही तुम नाव से उतर सके, लेकिन दूसरी बात भी उतनी ही सच है कि तुम पैसे इसलिए छोड़ सके कि पैसे तुम्हारे पास थे। और यह भी सच है कि पैसे पास होने से ही तुम नदी पार उतरे, लेकिन दूसरी बात भी उतनी ही सच है कि अगर पास ही होते तो तुम नदी उतर न सकते थे।
तुम पास से दूर कर सके, इसलिए तुम नदी उतरे। ये दोनों ही बातें सच हैं। और ये दोनों बातें ही इकट्ठा जीवन है और इनमें विरोध नहीं है।
~ ओशो ~
(मैं मृत्यु सिखाता हूँ, प्रवचन #9)
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