परमात्मा को जाननेवाला तो सिर्फ रहस्य-विमुग्ध रह जाता है; मौन हो जाता है। और जिस दिन तुम परमात्मा के साथ थोड़ा सा भी संबंध जोड़ लेते हो, उस दिन परमात्मा तो ज्ञात होता ही नहीं,
यह संसार भी अज्ञात हो जाता है।
जिसने परमात्मा के साथ थोड़ा संबंध जोड़ लिया, उस दिन उसकी पत्नी भी अज्ञात हो गई, पति भी अज्ञात हो गया, अपना बेटा भी अज्ञात हो गया, क्योंकि इस बेटे की आंखों में भी परमात्मा ही झांकेगा। इस मित्र केहाथ में भी परमात्मा का ही स्पर्श होगा।
यह पत्नी भी कोई और नहीं, उसका ही एक रूप है। यह वृक्षों में भी वही हरा है। इन पक्षियों में भी वही गीत गा रहा है।
इस सूरज में वही प्रकाश है। इस अंधेरी रात में वही अंधेरी रात है।परमात्मा को जानने से परमात्मा ही अज्ञात नहीं होता; सारा जगत् पुनः अज्ञातहो जाता है।
इसको दूसरी भाषा में अगर कहें तो फिर से जगत् रहस्यपूर्ण हो जाता है; फिर से आश्चर्य का जन्म होता है; फिर से तुम्हें बच्चे की आंख मिलती है; पुनर्जन्म हुआ; द्विज बने।
यह नया जन्म ही संन्यास है।
~ ओशो ~
(अजहूं चेत गंवार, प्रवचन #18)
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