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Monday, 14 March 2016

           ओशो अरी मैं तो नाम के रंग छकी

एक बार ज़रा क्षण भर को ऐसा सोचो कि चौबीस घंटे के लिए सारी कामना छोड़ दो- सुख की कामना भी छोड़ दो। चौबीस घंटे में कुछ हर्जा नहीं हो जाएगा, कुछ ख़ास नुक़सान नहीं हो जाएगा। ऐसे भी इतने दिन वासना कर- कर के क्या मिल गया है?

चौबीस घंटे मेरी मानो। चौबीस घंटे के लिए सारी वासना छोड़ दो। कुछ पाने की आशा मत रखो। कुछ होने की भी आशा मत रखो। एक क्रांति घट जाएगी चौबीस घंटे में।

तुम अचानक पाओगे, जो है, परम तृप्तिदायीहै। जो भी है। रूखी- सूखी रोटी भी बहुत सुस्वादु है। क्योंकि अब कोई कल्पना न रही।

अब किसी कल्पना में इसकी तुलना न रही। जैसा भी है परम तृप्तिदायी है। यहअस्तित्व आनंद ही आनंद से भरपूर है। परहम इसके आनंद भोगने के लिए कभी मौक़ा ही नहीं पाते।

हम दौड़े- दौड़े है, भागे- भागे है। हम ठहरते ही नहीं। हम कभी दो घड़ी विश्राम नहीं करते। इस विश्राम का नाम ही ध्यान है। वासना से विश्राम ध्यान है। तृष्णा से विश्राम ध्यान है।

अगर तुम एक घंटा रोज़ सारी तृष्णा छोड़ कर बैठ जाओ, कुछ न करो, बस बैठे रहो- मस्ती आ जाएगी। आनंद छा जाएगा। रस बहने लगेगा!

धीरे - धीरे तुम्हें यह बात दिखाई पड़ने लगेगी, जब घंटे भर में रस बहने लगता है, तो फिर इसीढंग से चौबीस घंटे क्यों न जिए?
           ओशो
अरी मैं तो नाम के रंग छकी

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