जन्म-मृत्यु से परे है जीवनमैं एक शवयात्रा में गया था।जो वहां थे,उनसे मैंने कहायदि यह शवयात्रा तुम्हेंअपनी ही मालूम नहींहोती है,
तो तुम अंधे हो।मैं तो स्वयं को अर्थी परबंधा देख रहा हूं।काश! तुम भी ऐसा ही देख सको,तो तुम्हारा जीवन दूसरा हो जावे।जो स्वयं की मृत्यु को जान लेता है,उसकी दृष्टिं संसार से हटकरसत्य पर केंद्रित हो जाती है।
शेखसादी ने लिखा है...बहुत दिन बीते दजला के किनारेएक मुरदे की खोपड़ी नेकुछ बातें एक राहगीर से कहीथीं।
वह बोली थी,'ओ! प्यारे, जरा होश में चल।मैं भी कभी शाही दबदबारखती थीऔर मेरे ऊपर ताज था।फतह मेरे पीछे-पीछे चलीऔर मेरे पैर जमीन पर न पड़ते थे।होश ही न थाकि एक दिन सब समाप्त हो गया।
कीड़े मुझे खा गए हैंऔर हर पैर मुझे ठोकर मार जाता है।तू भी अपने कानों सेगफलत की रुई निकाल डाल,ताकि तुझे मुरदों की आवाज सेउठने वाली नसीहत हासिल हो सके।
'मुरदों की आवाज सेउठने वाली नसीहत क्या है?और, क्या कभी हम उसे सुनते हैं!जो उसे सुन लेता है,उसका जीवन ही बदल जाता है।जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी है।उन दोनों के बीच जो है,वह जीवन नहीं,जीवन का आभास ही है।
जीवन वह कैसे होगा,क्योंकि जीवन की मृत्यु नहींहो सकती है!जन्म का अंत है,जीवन का नहीं।और, मृत्यु का प्रारंभ है,जीवन का नहीं।जीवन तो उन दोनों से पार है।
जो उसे नहीं जानते हैं,वे जीवित होकर भी जीवितनहीं हैं।और, जो उसे जान लेते हैं,वे मर कर भी नहीं मरते।
!! ओशो !
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