काबा की तरफ दूर से सिजदा कर लूं,या दहर का आखिरी नजारा कर लूं..मरते वक्त भी, मरण-शथ्या पर भी आदमी के मन में यही सवाल उठते रहते हैं–
काबा की तरफ दूर से सिजदा कर लूं.....या दहर का आखिरी नजारा कर लूं......मंदिर को प्रणाम कर लूं या इतनी देर संसार को और एक बार देख लूं!या दहर का आखिरी नजारा कर लूं.....
कुछ देर की मेहमान है जाती दुनियाएक और गुनाह कर लूं कि तोबा कर लूंजा रही है दुनिया।कुछ देर की मेहमान है जाती दुनियाजरा और थोड़ा समय हाथ में है।
एक और गुनाह कर लूं कि तोबा कर लूंपश्चात्ताप में गवाऊं यह समय कि एक पापऔर कर लूं!यह तुम्हारी कथा है। यह तुम्हारे मन कीकथा है। यही तुम्हारी कथा है, यही तुम्हारी व्यथा भी।
मरते दम तक भी आदमीभीतर देखने से डरता है। सोचता है, थोड़ा समय और! थोड़ा और रस ले लूं। थोड़ा और दौड़ लूं।इतना दौड़कर भी तुम्हें समझ नहीं आती किकहीं पहुंचे नहीं। इतने भटककर भी तुम्हें खयाल नहीं आता कि बाहर सिवाय भटकाव के कोई मंजिल नहीं है।
ओशो,
एस धम्मो सनंतनो,
भाग -3
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