असंतोष का तर्क समझो। असंतोष की व्यवस्था समझो। असंतोष की व्यवस्था यह है कि जो मिल गया, वही व्यर्थ हो जाता है।
सार्थकता तभी तक मालूम होती है जब तक मिले नहीं। जिस स्त्री को तुम चाहते थे, जब तक मिले न तब तक बड़ी सुंदर। मिल जाए, सब सौंदर्य तिरोहित।
जिस मकान को तुम चाहते थे—कितनी रात सोए नहीं थे! कैसे—कैसे सपने सजाए थे!—फिर मिल गया और बात व्यर्थहो गयी। जो भी हाथ में आ जाता है, हाथ में आते ही से व्यर्थ हो जाता है।
इस असंतोष को तुम दोस्त कहोगे? यही तो तुम्हारा दुश्मन है। यह तुम्हें दौड़ाता है—सिर्फ दौड़ाता है—और जब भी कुछ मिल जाता है, मिलते ही उसे व्यर्थ कर देता है। फिर दौड़ाने लगता है। यह दौड़ाता रहा है जन्मों—जन्मों से तुम्हें। वह जो चौरासी कोटियों में तुम दौड़े हो, असंतोष की दोस्ती के कारण दौड़े हो।
दस हजार रुपए पास में हैं—क्या है मेरे पास, कुछ भी तो नहीं! लाख हो जाएँ तो कुछ होगा! लाख होते ही तुम्हारा असंतोष—तुम्हारामित्र, तुम्हारा साझीदार—कहेगा, लाख में क्या होता है?
ज़रा चारों तरफ देखो, लोगों ने दस—दस लाख बना लिए हैं। अरे मूढ़, तू लाख में ही बैठा है! अब लाख की कीमत ही क्या रही? अब गए दिन लाखों के, अब दिन करोड़ों केहैं। करोड़ बना! तो कुछ होगा।
संतो मगन भया मन मेरा
-7ओशो
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