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Friday, 25 March 2016

धर्म उदासी नहीं है–नृत्य, उत्सव है।और होली इसका प्रतीक है।इस दिन "ना” पर ''हां” की विजय हुई।धर्म उत्सव है–उदासी नहीं।यह याद रहे। और तुम्हें नाचते हुए,

धर्म उदासी नहीं है–नृत्य, उत्सव है।और होली इसका प्रतीक है।इस दिन "ना” पर ''हां” की विजय हुई।धर्म उत्सव है–उदासी नहीं।यह याद रहे। और तुम्हें नाचते हुए, परमात्मा के द्वार तक पहुंचना है।

अगर रोओ भी तो खुशी से रोना। अगर आंसू भी बहाओतो अहोभाव के बहाना। तुम्हारा रुदन भी उत्सव का ही अंग हो, विपरीत न हो जाए। थके-मांदे लंबे चेहरे लिए, उदास, मुर्दों की तरह, तुम परमात्मा को न पा सकोगे, क्योंकि यह परमात्मा का ढंग ही नहीं है।

जरा गौर से तो देखो, कितना रंग उसने लिया है! तुम बेरंग होकर भद्दे हो जाओगे। जरा गौर से देखो, कितने फूलों में कितना रंग! कितने इंद्रधनुषों में उसका फैलाव है! कितनी हरियाली में, कैसा चारों तरफ उसका गीत चल रहा है! पहाड़ों में, पत्थरों में, पक्षियों में, पृथ्वी पर, आकाश में–सब तरफ उसका महोत्सव है!

इसे अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम पाओगे, ऐसे ही हो जाना उससेमिलने का रास्ता है।गीत गाते कोई पहुंचता है, नाचते कोई पहुंचता है–यही भक्ति का सार है।

भक्ति सूत्र(नारद),
प्रवचन-१६, ओशो

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