कस्तूरी कुंडल बसै
कबीर ने बड़ा प्यारा प्रतीक चुना है। जिस मंदिर की तुम खोज कर रहे हो, वह तुम्हारे कुंडल में बसा है; वह तुम्हारे ही भीतर है; तुम ही हो।और जिस परमात्मा की तुम मूर्ति गढ़ रहे हो,उसकी मूर्ति गढ़ने की कोई जरूरत नहीं; तुम ही उसकी मूर्ति हो। तुम्हारे अंतर - आकाशमें जलता हुआ उसका दीया, तुम्हारे भीतर उसकी ज्योतिर्मयी छवि मौजूद है। तुम मिट्टी के दीये भले हो ऊपर से, भीतर तो चिन्मय की ज्योति हो। मृण्यम होगी तुम्हारी देह; चिन्मय है तुम्हारा स्वरूप। मिट्टी के दीए तुम बाहर से हो; ज्योति थोड़े ही मिट्टी की है। दीया पृथ्वी का है; ज्योति आकाश ही है। दीया संसार का है; ज्योति परमात्मा की है।लेकिन तुम्हारी स्थिति वही है जो कस्तूरी मृग की है: भागते फिरते हो; जन्मों - जन्मों से तलाश कर रहे हो, उसकी जो तुम्हारी भीतर ही छिपा है। उसे खोज रहे हो, जिसे तुमने कभी खोया नहीं। खोजने के कारण ही तुम वंचित हो।यह कस्तुरी - मृग पागल ही हो जाएगा। यह जितना खोजेगा उतनी मुश्किल में पड़ेगा; जहां जाएगा, सारे संसार में भटके तो भी पान सकेगा। क्योंकि बात ही शुरु से गलत हो गई - जो भीतर था उसे उसने बाहर सोच लिया, क्योंकि गंध बाहर से आ रही थी, गंध उसे बाहर से आती मालूम पड़ी थी।तुम्हें भी आनंद की गंध पागल बनाये दे रही है। तुम भी आनंद की गंध को बाहर से आता हुआ अनुभव करते हो। और खोजते फिरते हो संसार भर के मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों में।
~ ओशो ~
(सुन भई साधो, प्रवचन #11)
No comments:
Post a Comment