राम और कृष्ण मैं फर्क.?हिंदू बहुत ही इस गणित में कुशल हैं। इसलिए राम को उन्होंने पूर्णावतार नहीं कहा; कृष्ण को कहा। क्योंकि कृष्ण में राम और रावण दोनों संयुक्त हो गए हैं। कृष्ण में बुराई भी है, भलाई भी है, और दोनों के बीच एक तालमेल है। कृष्ण से ज्यादा बेईमान आदमी न खोज सकोगे।
ईमानदार भी खोजना मुश्किल है। वचन दे और तोड़ दे। कहा युद्ध में अस्त्र न उठाऊंगाऔर उठा लिया। यह कोई भरोसे का आदमी नहीं है। अगर तुम न समझो तो कृष्ण तुम्हें अवसरवादी मालूम पड़ेंगे। और अगर तुम समझो तो तुम्हें परम संत का दर्शन कृष्ण में हो जाएगा। क्योंकि कृष्ण क्षण-क्षण जीते हैं, और समग्रता से जीते हैं। क्षण का यथार्थ जो पैदा करवा देता है उसी को जीलेते हैं।
कृष्ण में राम और रावण का मेल हो गया है। और इसीलिए कृष्ण को हिंदुओं ने पूर्णावतार कहा है। राम अधूरे हैं।दो दिन पहले ही कोई मुझसे पूछता था। जो पूछता था व्यक्ति वे रामचरित मानस के कथा-वाचक हैं। तो वे मुझसे पूछते थे कि आप राम पर क्यों नहीं बोलते? तो मैंने कहा कि मुझे राम में ज्यादा रस नहीं है। उनको बड़ी चोट लगी होगी। पूछने लगे, क्यों रस नहीं है? मैंने कहा, यह जरा लंबी बात है। रस इसीलिए नहीं है कि राम अधूरे हैं। और कृष्ण में मुझे रस है, क्योंकि कृष्ण पूरे हैं।
और पूरा आदमी बेबूझ होगा। क्योंकि उसमें बुराई-भलाई दोनों का ऐसा सम्मिलन होगा कि तुम पहचान ही न पाओगे कि क्या बुरा है और क्या भला। पूरा आदमी अनूठा होगा; पकड़ मुश्किल हो जाएगी।राम को पकड़ना आसान है। इसलिए लोग राम के भक्त हैं। इसलिए राम का बड़ा व्यापी प्रभाव पड़ा।
कृष्ण का अगर कोई भक्त भी है तो वह भी चुनाव करता है; पूरे कृष्ण को नहीं मानता वह। कुछ हैं जो गीता के कृष्ण को मानते हैं; उनको भागवत का कृष्ण पसंद नहीं पड़ता। कुछ हैं जो कृष्ण के बाल-चरित्र को मानते हैं; उनका युवा चरित्र पसंद नहीं पड़ता।सूरदास को युवा चरित्र पसंद नहीं है। बच्चा लड़कियों के साथ छेड़खानी करे, चल सकता है; जवान आदमी छेड़खानी करे, बरदाश्त के बाहर है। तो सूरदास के कृष्ण बालक ही बने रहते हैं।
वे पैरों में घुंघरू बांध कर ही चलते रहते हैं। उनके पांव की पैजनियां बजती रहती है। उससे बड़ा नहीं होने देते वे उनको। क्योंकि उससे बड़ा हुआ तो यह आदमी खतरनाक है। बालक को हम पसंद कर लेते हैं। छोटा बच्चा अगर कपड़े चुरा कर चढ़ जाए स्त्रियों के वृक्ष पर तो कोई ऐसी बड़ी एतराज की बात नहीं है। लेकिन जवान? तो फिर जरा अड़चन शुरू होती है।
हमारी नीति को बाधा आनी शुरू होती है। तो यह हम रावण में तो बरदाश्त कर सकते हैं, लेकिन कृष्ण में कैसे बरदाश्त करेंगे?इसलिए हमने अशुभ को और शुभ को बिलकुल अलग-अलग कर रखा है। और ध्यान रखना, जिंदगी में दोनों इकट्ठे हैं। और जिंदगी का पूरा राज उसी ने जाना जिसने दोनों को साथ जी लिया। जिंदगी की आखिरी ऊंचाई उसी की है जिसने पूरे जीवन को जीया–बिना चुनाव किए, बिना काटे। कठिन तो जरूर है।
राम का जीवन आसान है, क्योंकि एकंगा है, साफ-सुथरा है, गणित पक्का है। जो-जो ठीक-ठीक है वह-वह करना है। जो गैर-ठीक है,बिलकुल नहीं करना है। रावण का जीवन भी साफ-सुथरा है। दोनों के गणित सीधे हैं। उलझन है कृष्ण के जीवन में। वहां गणित खो जाता है और पहेली निर्मित होती है। वहां साफ-सुथरापन विलीन हो जाता है और रहस्य का जन्म होता है। क्योंकि वहां सभी द्वंद्व एक साथ हो गए; सभी द्वैत मिल गए।
कृष्ण अद्वैत हैं।लाओत्से को अगर तुम्हें समझना हो तो लाओत्से उस परम बिंदु की तरफ इशारा कर रहा है। उसको वह कहता है मौलिक चरित्र। तुम्हारा स्वभाव उसी दिन प्रकट होगा जिस दिन राम और रावण तुम्हारे भीतर आलिंगनबद्ध हो जाएं। यह बहुत कठिन है। इससे कठिन और कुछ भी नहीं। लेकिन इसे बिना किए जीवन की निष्पत्ति नहीं होती।
जब तक यह घटित न हो जाए तब तक तुम अधूरे रहोगे और बेचैन रहोगे। पूरे होने की बेचैनी है। अधूरा कभी भी चैन को उपलब्ध नहीं हो सकता। यह तुम्हारा वर्तुल आधा न रहे, पूरा हो जाए, कि फिर परम चैन शुरू हो जाता है।
-ओशो -
ताओ उपनिषाद–
(भाग–5)
प्रवचन–100
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