कोई अपना नहीं है, यह इतना बड़ा सत्य है कि इससे लड़ना मत। यही तो दुर्दशा है साधारण जन की, जो नहीं हो सकता उसे करने की चेष्टा करता है;
जो हो सकता है, मात्रनिर्णय लेने से जो हो सकता है, उसकी चेष्टा नहीं करता।कितनी बार तुम सबको नहीं लगा है कि कितने अकेले हो, मगर फिर-फिर तुमने अपने को भुलाने की कोशिश की है! क्यों इतने डरे हो अपने से?
जो भी तुम भीतर हो उसे जानना ही होगा! सुखद-दुखद, कुछ भी हो, अपने स्वरूप से परिचय बनाना ही होगा, क्योंकि उसी परिचय के आधार पर तुम्हारे जीवन के फूल खिलेंगे।देखो! जिनके जीवन के भी फूल खिले हैं,
वेसब किसी न किसी रूप में एकांत की तलाश में चले गए थे। खिल गए फूल, तब लौट आए बाजार में। लेकिन जब फूल खिले नहीं थे–चाहे महावीर, चाहे बुद्ध, चाहे मुहम्मद, चाहे क्राइस्ट–सब चले गए थे, दूर एकांत में। बाहर का एकांत तो भीतर के एकांत की खोज का ही सहारा है।
बाहर का एकांत तो भीतर के एकांत को बनाने के लिए सुविधा जुटा देता है बस। असली एकांत तो भीतर है। लेकिन अगर बाहर भी एकांत हो तो भीतर के एकांत में डूबने में सुविधा मिलती है।
जरूरी नहीं है किकोई भागकर जाए, ठेठ बाजार में भी अकेला हो सकता है।वस्तुत: तुम्हें हर बार लगता है कि अकेले हो, मगर उस अंतर्दृष्टि को तुम पकड़ते नहीं। वह अंतर्दृष्टि तुम्हारा जीवंत सत्य नहीं बन पाती, उलटे तुम उसे झुठलाते हो। तुम कहते हो,’’ कौन कहता है मैं अकेला हूं?
पत्नी है, बच्चे हैं, सब भरा-पूरा है!’’ भीतर तो देखो, पात्र खाली का खाली पड़ा है। ये प्रवचनाएं हैं। इस प्रवचनाओं से जागो!अकेलेपन से लड़कर कभी कोई नहीं जीता।
जीतनेवाले अकेलेपन पर सवार हो गए, उन्होंने अकेलेपन का घोड़ा बना लिया, अकेलेपन को रथ बना लिया, उस पर सवार हो गए। और तब अकेलापन कैवल्य तक पहुंचा देता है, उस परम दशा तक, जिसको भगवान कहें,
परमात्मा कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें–उस परम दशा तक पहुंचा देता है। अकेले ही तुम पहचोगे।तो मैं जब तुमसे कहता हूं, अकेलेपन को स्वीकार कर लो,
तो ध्यान रखना, स्वीकार करने का मजा तो तभी होगा जब तुम स्वागत से स्वीकार करोगे। ऐसे बे-मन से कर लिया कि ठीक है, चलो, नहीं होता तो चलो यही कर लेते हैं, तो कुछ भी होगा।
तब तुम्हारे इस बे- मन के पीछे तुम्हारी पुरानी आकांक्षा अभी भी सक्रिय है। तुम कोई न कोई उपाय खोजकर फिर अपने अकेलेपन को भरोगे।
भक्ति सूत्र (नारद) प्रवचन–18
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