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Tuesday, 29 March 2016

"शराब और ध्यान" शराब में हम 'वहीं' होते हैं, 'जहां' ध्यान में होते हैं।      शराब में जो स्थिति 'थोड़े समय' के लिये निर्मित होती है, ध्यान में वह स्तिथि 'हमेशा'

"शराब और ध्यान"

शराब में हम 'वहीं' होते हैं, 'जहां' ध्यान में होते हैं।

     शराब में जो स्थिति 'थोड़े समय' के लिये निर्मित होती है, ध्यान में वह स्तिथि 'हमेशा' के लिये बनी रहती है। यही कारण है कि बुद्धों के सत्संग को मधुशाला या मयखाना कहा गया और सूफियों ने शराब को ध्यान के प्रतिक रूप में चुना।

     शराब में कैसे निर्मित होती है ध्यान वाली स्थिति?
     जब हम अपने शरीर में शराब डालते हैं, तो थोड़ी देर के बाद ही शराब हमारे शरीर की कोशिकाओं को शिथिल करना शुरू कर देती है। यानि हमारा शरीर धीरे-धीरे नशे में अर्थात नींद या बेहोशी में जाने लगता है।
     शराब पीने के बाद हमारा शरीर ठीक उसी स्थिति में आ जाता है, जिस स्थिति में वह नींद में होता है। यानि 'जागते' हुए 'नींद' में जाना। और जैसे ही हमारा शरीर नशे में या नींद में जाता है, हमारी श्वास गहरी होने लगती है, जैसी नींद में होती है। धीरे-धीरे हमारा शरीर उस तल पर आ जाता है, जिस तल पर वह नींद में होता है। लेकिन हम 'जागे' हुए होते हैं।
     शराब में यदि हम बैठे हुए, या कि खडे़ हुए होते हैं तो हम 'जागते' हुए नींद में होते हैं। और यदि हम लेट जाते हैं, तो हम वास्तविक नींद में चले जाते हैं, अर्थात सो जाते हैं। इसलिए ज्यादातर लोग, जिन्हें नींद नहीं आती, वे नींद में जाने के लिए शराब का उपयोग करते हैं। शरीर नशे में हो, तो आसानी से नींद में प्रवेश कर जाता है।
     शराब के साथ हम बैठे हुए या खडे़ हुए वास्तविक नींद में नहीं जा पाते, क्योंकि शरीर पूरी तरह से विश्राम में नहीं होता, तना हुआ होता है। और गहरी श्वास से शरीर को ज्यादा आक्सीजन मिलती है, जो हमें जगाये रखने में मदद करती है।
     रात बिस्तर पर जब हम नींद में सोये हुए होते हैं, तब हमारा अचेतन जो कार्य करता है, वह यह है कि हमारी इच्छाओं, आकांक्षाओं को स्वप्न के रूप में प्रकट कर उन्हें पूरी करता है।और शराब में वह वास्तविकता में प्रकट करना शुरू कर देता है। क्योंकि शराब में हम 'जागे' हुए 'नींद' में होते हैं।
     कहते हैं कि शराब में आदमी झूंठ नहीं बोलता। उसका कारण यह है कि शराब में हमारा शरीर नींद की भावदशा में होता है। हमारा चेतन मन तो सोने लगता है और अचेतन जागने लगता है।
     दिन में जब हम जागे हुए होते हैं तो चेतन मन संस्कार, संकोच, परिवार-समाज का भय व दबाववश कुछ कह नहीं पाता। जिस मित्र या रिश्तेदार को वह पसंद नहीं करता, उसके आने पर ऊपर से तो वह मुस्कुराकर स्वागत करता है और भीतर कहता है "यह हरामज़ादा कहाँ से आ गया! अब घंटे भर तक भेजा खाए बगैर नहीं जायेगा!" और यदि मालिक या बाॅस परेशान करता है, तो ऊपर से तो दुम हिलाकर "जी सर... यस सर...।" कहता है, और भीतर गालियाँ बक रहा होता है।
     चेतन मन ने भीतर जो भी बातें कही थी, वे बातें सच थी और बाहर व्यवहार में जो दर्शा रहा था, वह झूंठ है। अचेतन को बाहर के व्यवहार का पता नहीं होता, लेकिन चेतन मन ने भीतर जो कहा था, उसे वह सुन लेता है या वे सारी बातें अचेतन में चली जाती है। बाहर के व्यवहार और बातों से वह मुक्त होता है। उसे पता ही नहीं होता कि सामने वाला मित्र है, रिश्तेदार है, मालिक या बाॅस है। वह सीधे - सीधे वे सारी बातें कह देता है, जो चेतन मन संकोचवश बाहर नहीं कह पाया था और भीतर कही थी।
     शराब में चेतन मन के हटते ही, अचेतन वे सारी बातें नि:संकोच कह देता है। अक्सर तो लोग जो बातें सामने नहीं कह पाते, उन्हें कहने के लिए शराब का उपयोग करते हैं। अचेतन परिणाम की चिंता नहीं करता, क्योंकि उसके पास कहने को वे ही बातें थी जो चेतन ने भीतर कही थी या कि दबायी थी।
     शराब में हम 'जागे' हुए होते हैं तो अचेतन सामने कह देता है।और यदि हम सोये हुए हों तो वह स्वप्न में कहता है। तभी तो नशा उतरने पर जब चेतन मन लौटता है तो क्षमा मांग कर कहता है कि "मैं होश में नहीं था।" या कि "मैं नशे में था।"
     शराब में जैसे-जैसे हमारा शरीर नशे (बेहोशी या नींद) में जाने लगता है, वैसे-वैसे ही हमारा मन भी शिथिल होकर बेहोशी में जाने लगता है।
     हमारा शरीर और मन दोनों संयुक्त है, क्योंकि दोनों की गतिविधियां एक-दूसरे का अनुगमन करने की रही है। जिस तरह मन में कामवासना के विचार मात्र से हमारा शरीर सक्रिय हो उठता है, ठीक उसी तरह शरीर के नशे में झूमने या शिथिल और शांत होने पर मन भी शिथिल और शांत होने लगता है।... और जैसे ही मन शांत होने लगता है, विचार भी शांत होकर बिखरने लगते हैं।... और जैसे ही मन से विचारों की तरंगें शांत होकर बिखरने लगती है, वैसे ही दो विचारों के बीच जो अंतराल (गैप) है, वह बढने लगता है।... और अंतराल के बढ़ने के साथ ही अचेतन की प्रतीति होनी शुरू हो जाती है। यानि शराब में हमारा अचेतन में प्रवेश होता है, जिसे चौथा मानस शरीर कहा गया है और जिसका चक्र है अनाहत। अर्थात हमारा निर्विचार चेतना में प्रवेश होता है, जिसे 'ध्यान' कहा गया है।
     शराब में जो आनंद है, वह शराब का नहीं, निर्विचार चेतना के प्रकट होने का है। शराब तो बस वह स्थिति निर्मित करती है, जिसमें हमारा शरीर और मन दोनों शांत हो विश्राम में चले जायें। और उनके विश्राम में जाते ही निर्विचार चेतना प्रकट हो जाती है।
     ध्यान की सारी विधियां, सारे प्रयोग यही काम करते हैं। शरीर और मन दोनों को विश्राम में ले जाते हैं ताकि निर्विचार चेतना प्रकट हो सके। फर्क सिर्फ इतना है कि शराब तुरंत शरीर को उस स्थिति में, यानि विश्राम में ले जाती है और ध्यान विधियां समय मांगती है। शराब 'थोड़े समय' के लिए शरीर को उस स्थिति में ले जाती है और ध्यान प्रयोग 'हमेशा' के लिए।
     शराब में हमारा निर्विचार चेतना में प्रवेश 'होता' है। और ध्यान में हम निर्विचार चेतना में प्रवेश 'करते' हैं। शराब में हम असजग होते हैं, बेहोश होते हैं, और हमारा साक्षी होना भी खो जाता है। ध्यान में हम सजग होते हैं, होश में होते हैं, साक्षी होते हैं। शराब में सिर्फ हानि ही होती है, शरीर की भी और चेतना की भी। और ध्यान में सिर्फ लाभ होता है, गहरी श्वास से प्राणवायु मिलती है, जो शरीर को स्वस्थ रखती है। और होश या साक्षी से हमारी चेतना के निखरने के साथ ही आध्यात्मिक विकास जारी रहता है।
     शराब के साथ यदि साक्षी को जोड़ दिया जाये, तो शराब 'छोड़नी' नहीं पड़ती, 'छूटती' है। और यदि ध्यान के साथ साक्षी जोड़ दिया जाये। हम अपने शरीर, अपनी श्वास के साक्षी हो जायें, तो श्वास लयबद्धता में चलने लगेगी, यानि नाभि को छूएगी, तो शरीर विश्राम में जाने लगेगा। शरीर विश्राम में, तो मन विश्राम में... मन विश्राम में, तो विचार विश्राम में... और विचारों के विश्राम में जाते ही महाविश्राम... यानि निर्विचार चेतना... अर्थात ऐसा नशा, जो कभी नहीं उतरता... ध्यान का नशा।
-स्वामी ध्यान उत्सव

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