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Wednesday, 16 March 2016

★★★ प्रेम, करुणा, साक्षी, उत्सव - लीला ★★★ क्राइस्ट ने जिसे प्रेम कहा है वह बुद्ध की ही करुणा है, थोड़े से भेद के साथ। वह बुद्ध की करुणा का ही पहला चरण है।

★★★ प्रेम, करुणा, साक्षी, उत्सव - लीला ★★★

क्राइस्ट ने जिसे प्रेम कहा है वह बुद्ध की ही करुणा है, थोड़े से भेद के साथ। वह बुद्ध की करुणा का ही पहला चरण है।

क्राइस्ट का प्रेम ऐसा है जिसका तीर दूसरे की तरफ है। कोई दीन है, कोई दरिद्र है, कोई अंधा है, कोई भूखा है, कोई प्यासा है, तो क्राइस्ट का प्रेम बनजाता है सेवा। दूसरे की सेवा से परमात्मा तक जाने का मार्ग है;

क्योंकिदूसरे में जो पीड़ित हो रहा है वह प्रभु है। लेकिन ध्यान दूसरे पर है। इसलिए ईसाइयत सेवा का मार्ग बन गई।बुद्ध की करुणा एक सीढ़ी और ऊपर है। इसमें दूसरे पर ध्यान नहीं है।

बुद्ध की करुणा में सेवा नहीं है; करुणा की भाव - दशा है। यह दूसरे की तरफ तीर नहीं है, यह अपनी तरफ तीर है। कोई न भी हो, एकांत में भी बुद्ध बैठे हैं, तो भी करुणा है।बुद्ध की करुणा तो बड़ी अभौतिक है, और जीसस की करुणा बड़ी भौतिक है।

इसलिए ईसाई मिशनरी अस्पताल बनायेगा, स्कूल खोलेगा, दवा बांटेगा।बौद्ध भिक्षु कुछ और बांटता है; वह दिखाई नहीं पड़ता। वह जरा सूक्ष्म है। वह ध्यान बांटेगा, समाधि की खबर लायेगा।

वह भी स्वास्थ्य के विचार को तुम तक लाता है, लेकिन आंतरिक स्वास्थ्य के, असली स्वास्थ्य के।अष्टावक्र का साक्षी और एक कदम आगे है।अब कहीं कुछ आता - जाता नहीं, सब ठहर गयाहै, सब शांत हो गया है।

अष्टावक्र कहते हैं आत्मा न जाती है न आती है, अब गंध अपने में ही रम गई है। साक्षी - भाव जाता ही नहीं, ठहर गया, सब शून्य हो गया।क्राइस्ट के प्रेम में दूसरा महत्वपूर्ण है; बुद्ध की करुणा में स्वयं का होना महत्वपूर्ण है, साक्षी में न दूसरा रहा न स्वयं रहा, मैं - तू दोनों गिर गये।और उत्सव - लीला.........वह आखिरी बात है।

साक्षी में सब ठहर गया, लेकिन अगर यह ठहरा रहना ही आखिरी अवस्था हो तो परमात्मा सृजन क्यों करे? परमात्मा तो ठहरा ही था! तो यह लीला का विस्तार क्यों हो ?

तो यह नृत्य, यह पक्षियों की किलकिलाहट, ये वृक्षों पर खिलते फूल, ये चांद - तारे ! परमात्मा तोसाक्षी ही है! तो जो साक्षी पर रुक जाताहै वह मंदिर के भीतर नहीं गया। सीढ़ियांपूरी पार कर गया, आखिरी बात रह गई।अब न तू बचा न मैं बचा, अब तो नाच होने दो। अब तो नाचो। कभी तू के कारण न नाच सके, कभी मैं के कारण न नाच सके। अब तो दोनों न बचे, अब तुम्हें नाचने से कौन रोकता है ?

अब कौन - सा बंधन है ? अब तो नाचो; अब तो रचाओ रास; अब तो होने दो उत्सव! अब क्यों बैठे हो ? अब लौट आओ!

~ ओशो ~
(अष्टावक्र महागीता, भाग #4, प्रवचन#48)

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