सारा जीवन हो गया सक्रिय ध्यान करते हुए, कुछ नहीं हुआ! आप कैसे कहते हैं कि सक्रिय ध्यान से कुंडलिनी जागती है?
सक्रिय ध्यान संबंधित मेरी पोस्ट पर एक मित्र ने मुझे यह मैसेज भेजा है।
सारा जीवन हो गया सक्रिय ध्यान करते औरकुंडलिनी नहीं जगी तो इसमें सक्रिय ध्यान का कोई दोष नहीं है मित्र।
यदि हम नशे में गाड़ी चलाएंगे और दुर्घटना होगी तो हम गाड़ी को दोषी नहीं ठहरा सकते!यह एक वैज्ञानिक प्रयोग है, या तो हम इसे ठीक तरीके से कर नहीं रहे है, और यदिकरते हैं तो इसे संभाल नहीं रहे हैं।
सद्गुरु कहते हैं कि जिस तरह गर्भवती स्त्री अपनी कोंख में बच्चे को संभालती है, उसी तरह ध्यानी को अपना ध्यान संभालना होता है।
सक्रिय ध्यान का एक-एक चरण महत्वपूर्णहै। हर चरण शरीर और चेतना के एक विशेष तल को प्रभावित करता है।
हमें सक्रिय ध्यान के बाद शरीर और चेतना के तल पर जो गति हुई है, उसे बरकरार रखना होगा।
यानीअगले दिन सुबह, जहां हमने आज छोड़ा है, उससे 'आगे' गति हो, न कि,'वहीं 'से फिर शुरू करना पड़े
जहां से आज किया था।हम सक्रिय ध्यान करते हैं और साथ ही व्यसन भी जारी रखते हैं, सिगरेट और गुटखा-तंबाखू भी लेते रहते हैं।
मैंनेदेखा है ध्यान शिविरों में संन्यासी मित्र ईधर ध्यान करते हैं और उधर बाहर जाकर चुपके से बिड़ी - सिगरेट भी पी लेते हैं।यदि ध्यान प्रयोग के साथ धुम्रपान भी जारी है,
यानी हम सक्रिय ध्यान के पहले चरण में फेफड़े से कार्बन बाहर निकालते हैं और बाद में धुम्रपान करके फिर से फेफड़ों में कार्बन डाल लेते हैं।
अर्थात एक हाथ से ईंट रखी और दूसरे हाथ से वापस निकाल ली! इस तरह से तो मंदिर बनेगा ही नहीं!
सक्रिय ध्यान के पहले चरण ने हमारे शरीर में जो परिवर्तन किये हैं, धुम्रपान उन्हें निष्क्रिय कर देता है।अब आता है दूसरा चरण - दूसरे चरण में हम रेचन द्वारा दमित आवेगों को बाहर निकाल देते हैं।
अब हमें उन्हें वापस भीतर नहीं डालना है। यानी अब तनाव इकट्ठा नहीं करना है। हम बाजार से जिस चीज की हमें जरूरत नहीं होती, वह भी खरीद लाते हैं।
हजारों रूपये बेकार के कार्यों में खर्च कर देते हैं, लेकिन दो- पाँच रूपयों के लिए सब्जीवालों, फेरीवालों या फिर बस कंडक्टर से झीक-झीक करते हैं।
घर-परिवार और मित्रों से छोटी - छोटी बातों पर विवाद करते हैं। यानी फिर से तनाव इकट्ठा कर लेते हैं,
अर्थात हमारा सक्रिय ध्यान का दूसरा चरण बेकार गया! यहां हमने फिर ईंट वापस निकाल ली।सक्रिय ध्यान के इस दूसरे चरण को संभालने के लिए हमें 'स्वीकार' भाव रखना होगा।
जो है, जैसा है, मुझे स्वीकार है। बस। इतना यदि हम करते हैं तो अनावश्यक तनाव से बचेंगे और हमारा दूसरा चरण भी पूरा हो जाएगा।
अब आता है तीसरा चरण - तीसरा चरण विचारों पर चोट करता है। दो विचारों केबीच अंतराल (गैप) पैदा करता है।
हमें अनावश्यक बहस, बिना काम की बातचीत और बिना सार की चीजें पढ़ने सुनने से बचनाहोगा। यदि हम फ्री रहते हैं तो अपने को अखबार और टेलीविजन इत्यादि में व्यस्तरखते हैं,
बेहतर होगा अपने काम के अतिरिक्त जो समय है, उसे 'ना कुछ' करने में बतायें, अकेले और मौन रहने में बताएं।
इस तरह हम सक्रिय ध्यान के चरणों को बरकरार रख उसे पूरा कर सकते हैं।सक्रिय ध्यान एक वैज्ञानिक विधि है। यदि यह काम नहीं कर रहा है, इसमें हमसे ही कहीं चूक हो रही है।
यह विधि हमें 'पूरा' मांगती है। तभी तो सद्गुरु पहले हमें संकल्प करवाते हैं,
वह भी परमात्मा को साक्षी रखकर! कि "मैं परमात्मा को साक्षी रखकर संकल्प करता हूँ कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगा दूंगा 'पूरी'।" एक बार नहीं, बल्कि तीन बार करवाते हैं,
ताकि संकल्प हमारे भीतर गहरा उतर सके। संकल्प और पूरी शक्ति होगी तभी यह विधि काम करेगी। यह विधि ध्यान नहीं है,
ध्यान में प्रवेश के लिये यात्रापथ का निर्माण करती है। ध्यान में प्रवेश करने के बाद हमें पताचलेगा कि आगे इसे करना है या नहीं।
जीवन भर करने की जरूरत ही नहीं है। यह विधि प्राथमिक है, 'सक्रिया' से 'अक्रिया' में यानी ध्यान में ले जाने के लिये है।
-स्वामी ध्यान उत्सव
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